- इल्तुतमिश ही दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था।
- वस्तुतः दिल्ली का पहला सुल्तान इल्तुतमिश था, क्योंकि 1229 में उसे बगदाद के अब्बासी ख़लीफा से मान्यता प्राप्त हुई, जिससे सुल्तान के रूप में उसकी स्वतंत्र स्थिति एवं दिल्ली सल्तनत को औपचारिक मान्यता प्राप्त हुई।
- इल्तुतमिश ने राजधानी लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित की।
- तराइन की तीसरी लड़ाई (1215) इल्तुतमिश और याल्दौज के बीच हुई जिसमें याल्दौज पराजित हुआ।
- इल्तुतमिश ने ‘तुर्क-ए-चहलगानी’ (चालीसा दल) नामक संगठन की स्थापना की जिसमें उसके विश्वसनीय लोग थे।
- उसने इक्ता व्यवस्था को संगठित रूप दिया जिसे मुहम्मद गौरी ने प्रारंभ किया था।
- मुद्रा व्यवस्था में सुधार करते हुए चांदी का टंका एवं तांबे का जीतल चलाया।
- इसने दरबार में ‘न्याय का घंटा’ लगवाया।
- इसने रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
- चंगेज़ खान से बचने के लिये इल्तुतमिश ने ख्वारिज्म के शासक जलालुद्दीन मंगबरनी को अपने यहाँ शरण नहीं दी।
- इल्तुतमिश को ‘गुलाम का गुलाम’ कहा गया है।
- कोई भी चीज जिसे डिजिटल रूप में बदला जा सकता है वह NFTs हो सकती हैं।
- ड्राइंग, फोटो, वीडियो, GIF, संगीत, इन-गेम आइटम, सेल्फी और यहाँ तक कि एक ट्वीट, सबकुछ एक NFT में बदला जा सकता है, जिससे बाद में क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग करके ऑनलाइन कारोबार किया जा सकता है।
- अगर कोई व्यक्ति अपनी डिजिटल संपत्ति को NFTs में परिवर्तित करता है, तो उसे ब्लॉकचैन द्वारा संचालित स्वामित्व का प्रमाण मिलेगा।
- NFTs नॉन-फंजिबल टोकेंस हैं, जिसका अर्थ है कि एक NFT का मूल्य दूसरे के बराबर नहीं है।
- नॉन-फंजिबल का अर्थ है कि NFT परस्पर विनिमेय नहीं हैं। प्रत्येक NFT की UNIQUE पहचान होती है, जो इसे नॉन-फंजिबल और अद्वितीय बनाती है।
माइक्रोवेव ओवन एक रसोईघर उपकरण है, जो कि खाना पकाने और खाना गर्म करने के काम आता है।
सिद्धांत (Principle)
- माइक्रोवेव गैर-आयनित विकिरण होता है, जो विद्युत-चुंबकीय तरंगों के रूप में संचारित होता है। माइक्रोवेव ओवन में मैग्नेट्रॉन नाम की एक वैक्यूम ट्यूब होती है। इस ट्यूब से लगभग 2.45 गीगाहर्ट्ज (GHz) आवृत्ति की माइक्रोवेव निकलती हैं।
- जब माइक्रोवेव्स किसी पोलर मॉलीक्यूल (जैसे- जल, वसा या शुगर) के संपर्क में आती हैं तो अणुओं में घूर्णन होता है, जिस कारण वे एक-दूसरे से टकराते हैं। चूँकि तापमान गतिज ऊर्जा से संबंधित है इसलिये उसमें वृद्धि होती है। अतः माइक्रोवेव ओवन में खाना पकाने या गर्म करने हेतु इन पोलर मॉलीक्यूल का होना आवश्यक है।
माइक्रोवेव ओवन के लाभ (Advantages of Microwave Oven)
- माइक्रोवेव ओवन केवल खाने को ही गर्म करता है, कंटेनर और आस-पास की हवा को नहीं।
- माइक्रोवेव एक गैस स्टोव की तुलना में खाना गर्म करने के लिये बहुत कम समय लेता है।
- अमेरिकी ऊर्जा दक्षता एजेंसी ने एक शोध में पाया है कि माइक्रोवेव ओवन गैस स्टोव की तुलना में ऊर्जा का प्रयोग करने में तो निश्चित रूप से बेहतर होते हैं, हालाँकि इलेक्ट्रिक हीटिंग या इंडक्शन कुकिंग की तुलना में यह उतने कुशल नहीं हैं।
Polymer शब्द की उत्पत्ति दो ग्रीक शब्दों ‘पॉली’ अर्थात् अनेक और ‘मर’ अर्थात् इकाई अथवा भाग से हुई है। बहुलकों के बहुत वृहत् अणु की तरह परिभाषित किया जा सकता है जिनका द्रव्यमान अतिउच्च होता है। इन्हें बृहदणु भी कहा जाता है, जो कि पुनरावृत्त संरचनात्मक इकाइयों के बृहद् पैमाने पर जुड़ने से बनते हैं। पुनरावृत्त संरचनात्मक इकाइयाँ कुछ सरल और क्रियाशील अणुओं से प्राप्त होती हैं जो एकलक कहलाती हैं। यह इकाइयाँ एक-दूसरे के साथ सहसंयोजक बंधों द्वारा जुड़ी होती हैं। बहुलकों के संबंधित एकलकों से विरचन के प्रक्रम को बहुलकन कहते हैं।
स्रोत के आधार पर बहुलकों का वर्गीकरण
- प्राकृतिक बहुलक (Natural Polymers)- यह बहुलक पादपों तथा जंतुओं में पाए जाते हैं। उदाहरण के लिये प्रोटीन, सेलुलोज, स्टार्च, कुछ रेजिन और रबर।
- अर्द्ध-संश्लेषित बहुलक (Semi-Synthetic Polymers)- सेलुलोज व्युत्पन्न जैसे सेलुलोज एसीटेट (रेयॉन) और सेलुलोज नाइट्रेट आदि इस उपसंवर्ग के उदाहरण हैं।
- संश्लेषित बहुलक (Synthetic Polymers)- विभिन्न प्रकार के संश्लेषित बहुलक जैसे- प्लास्टिक (पॉलिथीन), संश्लेषित रेशे (नाइलॉन 6,6) और संश्लेषित रबर (ब्यूना-S) मानवनिर्मित बहुलकों के उदाहरण हैं, जो विस्तृत रूप से दैनिक जीवन एवं उद्योगों में प्रयुक्त होते हैं।
बहुलकों को उनकी संरचना, आणविक बलों अथवा बहुलकन की विधि के आधार पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है।
- मगरमच्छ संरक्षण के लिये 1974 ई. में परियोजना बनाई गई तथा 1978 तक कुल 16 मगरमच्छ प्रजनन केंद्र स्थापित किये गए।
- ओडिशा का ‘भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान’ जो विश्व धरोहर सूची में शामिल है, के लवणयुक्त पानी में रहने वाले मगरमच्छों की संख्या सर्वाधिक है।
- ‘केंद्रीय मगरमच्छ प्रजनन एवं प्रबंधन प्रशिक्षण संस्थान’ हैदराबाद में स्थित है।
- मगरमच्छ अभयारण्यों की सर्वाधिक संख्या आंध्र प्रदेश में है।
- मगरमच्छ प्रजनन एवं प्रबंधन प्रोजेक्ट 1975 में FAO तथा UNDP की सहायता से शुरू किया गया।
- 1970 के दशक में शुरू की गई ‘भागवतपुर मगरमच्छ परियोजना’ (पश्चिम बंगाल) का उद्देश्य खारे पानी में मगरमच्छों की संख्या में वृद्धि करना था।
DNA में उपस्थित न्यूक्लियोटाइड क्षार (Nucleotide Bases) एडिनीन (A), थायमीन (T), साइटोसीन (C) तथा गुआनिन (G) को चरणबद्ध करने की क्रिया ही DNA अनुक्रमण कहलाती है। इसके निम्नलिखित लाभ हैं-
- ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट एक बड़ा उदाहरण है- DNA अनुक्रमण का।
- इसकी सहायता से विभिन्न आनुवंशिक बीमारियों (Genetic Diseases), जैसे- अल्जाइमर (Alzheimer’s), सिस्टिक फाईब्रोसिस (Cystic Fibrosis), मायोटॉनिक डिस्ट्रोफी (Myotonic Dystrophy) और कैंसर (Cancer) आदि से निजात पाने में सहायता मिलेगी।
- जीन अनुक्रम (Gene Sequence) के माध्यम से पशुधन की वंशावलियों को जानने में मदद मिलेगी।
- इस प्रणाली की मदद से मानव जीन से संबंधित रोगों के कारणों का पता लगाया जा सकेगा, परंतु सभी रोगों का ज्ञान केवल जीन अनुक्रमण से संभव नहीं है।
- पशुओं में रोगों से लड़ने वाली प्रजातियों का विकास किया जा सकेगा।
- यह प्रणाली रोगों के उपचार के लिये नई विधियों का पता लगाने में उपयोगी सिद्ध होगी।
- किसी भी व्यक्ति में रोग के लक्षण दिखने के पूर्व ही उसकी रोकथाम की जा सकेगी।
- रासायनिक खेती में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम के एक निश्चित मिश्रण का उपयोग उर्वरक के रूप में किया जाता है जो NPK के नाम से प्रचलित है।
- NPK का अनुपात अलग-अलग फसलों के लिये अलग-अलग होता है, किंतु हरित क्रांति के समय NPK का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया।
- भारत में दलहनी फसलों में यह अनुपात 1 : 2 : 1 तथा 1 : 2 : 2 है।
नाइट्रोजन
- नाइट्रोजन फसलों की वृद्धि के हेतु आवश्यक तत्त्व है। यह फसलों में प्रोटीन एवं कार्बोहाइड्रेट के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है।
फॉस्फोरस
- फॉस्फोरस पौधों में श्वसन, प्रकाश संश्लेषण तथा अन्य रासायनिक क्रियाओं हेतु आवश्यक है। कम अवधि वाली फसलों में घुलनशील फॉस्फोरस का प्रयोग किया जाता है।
पोटैशियम
- पोटैशियम फसलों में पोषक तत्त्वों व पानी के स्थानांतरण में सहायक होता है तथा फसलों में रोगों के प्रति प्रतिरोधकता बढ़ाता है।
- एल्युमीनियम- अत्यधिक क्रियाशील होने के कारण एल्युमीनियम का उपयोग क्रोमियम तथा मैंगनीज़ के ऑक्साइडों से, उनके निष्कर्षण में किया जाता है। एल्युमीनियम युक्त मिश्र धातु हल्की होने के कारण बहुत उपयोगी होती है।
- कॉपर (तांबा)- तांबे का उपयोग विद्युत उद्योग में तार बनाने, जल और भाप के लिये पाइप बनाने सहित मिश्रधातुओं में भी किया जाता है, जो धातु से अधिक कठोर होती हैं। जैसे पीतल (ज़िंक के साथ), कांसा (टिन के साथ) तथा मुद्रा मिश्रधातु (निकेल के साथ)।
- ज़िंक- ज़िंक का व्यापक मात्रा में उपयोग बैटरियों में, कई मिश्रधातु घटकों में, जैसे- पीतल (Cu-60%, Zn-40%) तथा जर्मन सिल्वर (Cu 25-30%, Ni 40-50%, Zn 25-30%) में होता है।
- लोहा- ढलवाँ लोहा का उपयोग स्टोवों, रेलवे स्लीपरों, गटर पाइपों तथा खिलौने आदि को ढालने में होता है। पिटवां लोहे का उपयोग लंगरों, तारों, बोल्टों, चेनों तथा कृषि उपयोगी उपकरणों के बनाने में किया जाता है। स्टील (इस्पात) में दूसरी धातुएं मिलाई जाती हैं तो मिश्रधातु इस्पात प्राप्त होता है। निकेल इस्पात का उपयोग रस्से बनाने, स्वचालित वाहनों तथा हवाई जहाज़ों के हिस्से, लोलक, मापक फीतों, कटाई के औज़ारों तथा संदलन मशीनों के बनाने में और स्टेनलेस स्टील का उपयोग साइकिलों, स्वचालित वाहनों, बर्तनों तथा पेनों इत्यादि में किया जाता है।
पुस्तक |
भाषा |
लेखक |
तुज़ुक-ए-बाबरी (बाबरनामा) |
तुर्की |
बाबर |
हुमायूँनामा |
फारसी |
गुलबदन बेगम |
तारीख़-ए-रशीदी |
फारसी |
मिर्ज़ा हैदर दुगलत |
तजकिरात-उल-वाक्यात |
फारसी |
जौहर आफतावची |
वाक्यात-ए-मुश्ताकी |
फारसी |
रिज़कुल्लाह मुश्ताकी |
तोहफा-ए-अकबरशाही (तारीख़-ए-शेरशाही) |
फारसी |
अब्बास खां शेरवानी |
अकबरनामा |
फारसी |
अबुल फज़ल |
तबकात-ए-अकबरी |
फारसी |
निज़ामुद्दीन अहमद |
तुज़ुक-ए-जहाँगीरी |
फारसी |
जहाँगीर, मौतमिद खां, हादी खां |
पादशाहनामा |
फारसी |
मुहम्मद अमीन काज़विनी |
शाहजहाँनामा |
फारसी |
इनायत खां |
मज़म-उल-बहरीन |
फारसी |
दारा शिकोह |
- इस अभयारण्य का विस्तार लगभग 199.5 वर्ग किमी. है, जिसमें 156.32 वर्ग किमी. क्षेत्रफल दर्रा वन्य जीवन अभयारण्य का, 37.98 वर्ग किमी. जवाहरसागर वन्य जीव अभयारण्य का तथा 5.25 वर्ग किमी. क्षेत्रफल राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य का शामिल है। कोटा, चितौड़गढ़, बूंदी एवं झालावाड़ ज़िलों के क्षेत्र में इस उद्यान का विस्तार देखा जा सकता है।
- राजस्थान सरकार ने वर्ष 2004 में चंबल और दर्रा अभयारण्य को मिलाकर राजीव गाँधी नेशनल पार्क बनाने की घोषणा की थी, परंतु वर्ष 2006 में कैबिनेट की एक बैठक में इसका नाम बदलकर दर्रा राष्ट्रीय अभयारण्य कर दिया गया था। आगे वर्ष 9 जनवरी, 2009 में हाड़ौती के प्रकृति प्रेमी शासक मुकंद सिंह के नाम पर इस क्षेत्र को मुकंदरा हिल्स राष्ट्रीय उद्यान कर दिया गया।
- इस अभयारण्य की मुकंदरा पहाड़ियों में आदिमानव के शैलाश्रय तथा उनके द्वारा बनाए गए शैल चित्र देखने को मिलते हैं। यह क्षेत्र सघन वनों से ढका होने के कारण यहाँ तेंदुआ, चीता, रीछ, जंगली सूअर, हिरन, सांभर, चीतल, नीलगाय आदि काफी संख्या में पाए जाते हैं।
- यह अभयारण्य गागरोनी तोते के लिये प्रसिद्ध है, जिसका वैज्ञानिक नाम एलेक्जेंड्रिया पैराकीट है। यह तोता हूबहू मानव की आवाज की नकल करने के लिये प्रसिद्ध है। इसे हीरामन तोता और हिंदुओं का आकाश लोचन नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यह तोता विलुप्ति की कगार पर है, अतः इसे संरक्षित करने की आवश्यकता है।
- ऊर्जा केवल एक रूप से दूसरे रूप में रूपांतरित हो सकती है; न तो इसकी उत्पत्ति की जा सकती है और न ही विनाश। इसे ही ऊर्जा संरक्षण का नियम कहते हैं। रूपांतरण के पहले व रूपांतरण के पश्चात् कुल ऊर्जा सदैव अचर रहती है।
- ऊर्जा संरक्षण के नियम को गणितीय रूप से प्राप्त नहीं किया जा सकता बल्कि यह एक प्रायोगिक सार्वभौमिक नियम है।
- यदि m द्रव्यमान की एक वस्तु h ऊँचाई से स्वतंत्रतापूर्वक गिराई जाती है तो-
- प्रारंभ में स्थितिज ऊर्जा PE का मान mgh होगा तथा गतिज ऊर्जा शून्य होगी। इस प्रकार वस्तु की कुल ऊर्जा mgh है। जैसे-जैसे वस्तु गिरेगी, उसकी स्थितिज ऊर्जा कम होगी और गतिज ऊर्जा बढ़ेगी। न्यूनतम बिंदु पर वस्तु की गतिज ऊर्जा अधिकतम और स्थितिज ऊर्जा शून्य हो जाएगी अर्थात्
- स्थितिज ऊर्जा + गतिज ऊर्जा = अचर (Constant)
- किसी वस्तु की स्थितिज ऊर्जा तथा गतिज ऊर्जा का योग उसकी कुल यांत्रिक ऊर्जा है।
ऊर्जा का रूपांतरण
ऊर्जा का एक या अधिक प्रकार में रूपांतरण होता रहता है। ऊर्जा को एक रूप से अन्य में, विभिन्न उपकरणों की सहायता से परिवर्तित किया जा सकता है-
- विद्युत ऊर्जा से प्रकाश एवं ऊष्मा – विद्युत बल्ब
- रासायनिक ऊर्जा से विद्युत ऊर्जा – विद्युत सेल
- यांत्रिक ऊर्जा से विद्युत ऊर्जा – डायनमो
- स्थितिज ऊर्जा से विद्युत ऊर्जा – टरबाइन (जल विद्युत उत्पादन में)
- विद्युत ऊर्जा से यांत्रिक ऊर्जा – मोटर
- ऊष्मा से यांत्रिक ऊर्जा – इंजन
- नाभिकीय ऊर्जा से ऊष्मीय ऊर्जा, ऊष्मा ऊर्जा से यांत्रिकी ऊर्जा एवं यांत्रिकी ऊर्जा से विद्युत ऊर्जा – परमाणु विद्युत गृह
- विद्युत ऊर्जा से ध्वनि ऊर्जा – स्पीकर
- विद्युत ऊर्जा से विद्युत चुंबकीय ऊर्जा – ट्रांसमीटर
रुधिर या रक्त हमारे शरीर में विद्यमान एक तरल पदार्थ है जो पाचित भोज्य पदार्थों को क्षुद्रांत से शरीर के अन्य भागों तक, ऑक्सीजन को फेफड़ों से शरीर की कोशिकाओं तक, साथ ही शरीर के अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालने के लिये उनका परिवहन करता है। रक्त, प्लाज़्मा (Plasma) नामक तरल से बना है। यह रक्त प्रोटीनों से निर्मित हल्का पीला द्रव है। प्लाज़्मा में तीन प्रकार की कोशिकाएँ विद्यमान रहती हैं- लाल रक्त कणिकाएँ/कोशिकाएँ (Erythrocytes), श्वेत रक्त कणिकाएँ/कोशिकाएँ (Leukocytes) एवं पट्टिकाणु (Platelets)। ये रुधिर कोशिकाएँ अस्थि मज्जा (Bone Marrow) में बनती हैं।
- लाल रक्त कोशिकाएँ (Red Blood Cells- RBC) : आरबीसी अत्यंत छोटी कोशिका है जो रक्त में तैरती है, इसीलिये इसे कणिकाएँ (Corpuscles) भी कहते हैं। आरबीसी में लाल रंग का एक वर्णक होता है जिसे हीमोग्लोबिन (Hemoglobin) कहते हैं। हीमोग्लोबिन के कारण ही रक्त लाल होता है। हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन को स्वयं से जोड़कर शरीर के सभी अंगों तक और अंततः कोशिकाओं तक पहुंचाता है। हीमोग्लोबिन की कमी में सभी कोशिकाओं तक ऑक्सीजन ठीक से नहीं पहुँच पाती।
- श्वेत रक्त कोशिकाएँ (White Blood Cells- WBC) : वर्णक रहित ये रंगहीन कोशिकाएँ एंटीबॉडी का निर्माण कर हमारे शरीर में प्रवेश करने वाले रोगाणुओं को नष्ट कर हमें संक्रमण से बचाती हैं।
- पट्टिकाणु (Platelets) : पट्टिकाणु या प्लेटलेट्स नामक कोशिका खंड रक्त का स्कंदन या थक्का बनाने में मददगार होता है जिससे शरीर से रक्त निकलना बंद हो जाता है।
पत्थर जैसे कठोर काले रंग के इस पदार्थ का उपयोग खाना पकाने के ईंधन, रेल इंजनों को चलाने के लिये भाप उत्पादन, तापीय शक्ति संयंत्रों में विद्युत उत्पादन और विभिन्न उद्योगों में ईंधन के रूप में किया जाता है।
- बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रक्रमों के कारण लगभग 300 मिलियन वर्ष पूर्व वन, मृदा के नीचे दब गए और अधिक मृदा के भार से संपीडित (Compressed) हो गए। पृथ्वी की गहराई में जाकर वन के पेड़-पौधे मृत होकर धीरे-धीरे कोयले में रूपांतरित हो गए। कोयले में मुख्यतः कार्बन के होने तथा मंद प्रक्रम द्वारा मृत वनस्पतियों का कोयले में रूपांतरण कार्बनीकरण (Carbonisation) कहलाया।
- वायु में गर्म करने पर कोयला जलता है जिसमें मुख्यतः कार्बन डाइऑक्साइड गैस मुक्त होती है।
- कोयले के औद्योगिक प्रक्रमण (Industrial Processing) द्वारा कोक, कोलतार एवं कोयला गैस जैसे उपयोगी उत्पाद प्राप्त होते हैं-
- कोक (Coke) : यह कठोर, सरंध्र और काला पदार्थ है जो कार्बन का लगभग शुद्ध रूप है। यह इस्पात के औद्योगिक निर्माण एवं धातुओं के निष्कर्षण में उपयोगी है।
- कोलतार (Coal Tar) : यह लगभग दो सौ पदार्थों के मिश्रण से बना अप्रिय गंध वाला काला गाढ़ा द्रव है जिसका संश्लेषित रंग, औषधि, सुगंध, विस्फोटक, प्लास्टिक, पेंट, फोटोग्राफिक सामग्री, सड़क एवं छत निर्माण सामग्री इत्यादि में होता है। आज-कल कोलतार की जगह सड़क निर्माण में बिटुमेन जैसे पेट्रोलियम उत्पाद प्रयोग में लाए जाते हैं। मॉथ एवं अन्य कीटों को भगाने में प्रयुक्त नैफ्थलीन की गोलियां कोलतार से प्राप्त की जाती हैं।
- कोयला गैस (Coal Gas) : कोयले के प्रक्रमण द्वारा कोक बनाते समय प्राप्त होने वाली कोयला गैस का उपयोग कोयला प्रक्रमण संयंत्रों के निकट स्थापित उद्योगों में ईंधन के रूप में किया जाता है। लंदन में 1810 में एवं न्यूयॉर्क में 1820 के आस-पास इसका उपयोग पहली बार सड़कों को प्रकाशित करने के लिये किया गया था किंतु आज यह ऊष्मा के स्रोत के रूप में ज़्यादा प्रयुक्त है।
न्यूक्लियर-फ्री ज़ोन उस क्षेत्र को कहा जाता है जहाँ परमाणु हथियारों का विकास, स्वामित्व, परीक्षण और तैनाती पूरी तरह से प्रतिबंधित होती है। ऐसे क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय संधियों के माध्यम से स्थापित किये जाते हैं, जिनका उद्देश्य शांति बनाए रखना, क्षेत्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करना और परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकना होता है।
- टलाटेलोल्को की संधि, 1967 (Treaty of Tlatelolco) द्वारा लैटिन अमेरिका क्षेत्र को परमाणु मुक्त क्षेत्र रखने पर बल दिया गया।
- परमाणु अप्रसार संधि (1968) में भी परमाणु मुक्त क्षेत्रों का प्रावधान किया गया था।
- रारोटोंगा संधि, 1985 (Treaty of Rarotonga) द्वारा दक्षिण प्रशांत क्षेत्र को परमाणु मुक्त क्षेत्र के रूप में घोषित किया गया।
- पेलिंडाबा संधि, 1996 (Pelindaba Treaty) द्वारा अफ्रीकी महाद्वीप को परमाणु मुक्त क्षेत्र घोषित किया।
- बैंकाक संधि, 1997 (Bangkok Treaty) द्वारा आसियान देशों ने इस क्षेत्र को परमाणु मुक्त क्षेत्र स्थापित किया गया।
इन सभी संधियों के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया कि दुनिया के कुछ संवेदनशील क्षेत्र परमाणु खतरे से मुक्त रहें, जिससे वैश्विक शांति, सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा मिले।
- देश से प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिये जनवरी 2017 में केंद्र सरकार द्वारा ‘Visiting Advanced Joint Research Faculty’ स्कीम की शुरुआत की गई।
- वैसे तो यह योजना विदेशी वैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों के लिये है, लेकिन सारा ज़ोर एनआरआई और भारतीय मूल के वैज्ञानिकों पर है। इन्हें सरकारी शोध एवं शिक्षण संस्थानों में काम करने की पेशकश की गई है।
- योजना के तहत ये वैज्ञानिक सरकारी शोध एवं शिक्षण संस्थानों में 1-3 महीने तक अपनी सेवाएँ दे सकते हैं।
- इसके एवज में सरकार उन्हें तनख्वाह के रूप में पहले महीने एकमुश्त राशि के रूप में 15,000 अमेरिकी डॉलर प्रदान करेगी। बाकी दो महीनों में वैज्ञानिकों को दस-दस हज़ार अमेरिकी डॉलर मिलेंगे।
- इस योजना को विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (SERB), विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग का एक सांविधिक निकाय, ने शुरू किया है।
- वज्र फैकल्टी स्कीम शुरू करने का उद्देश्य दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों को भारत लाना और देश में अनुसंधान का संचालन करना है।
किसी स्थान के वर्ष के सर्वाधिक औसत मासिक तापमान और न्यूनतम औसत मासिक तापमान के बीच का अंतर ही वार्षिक तापांतर कहलाता है। उदाहरणतः कर्क रेखा पर जनवरी में न्यूनतम और मई–जून में अधिकतम ताप दर्ज होता है; इनमें जनवरी और मई के अधिकतम तापमान के अन्तर को उस स्थान का वार्षिक तापांतर होता है।
- कारण :
- पृथ्वी अपने अक्ष पर 23½° झुकी हुई है।
- इसी झुकाव के कारण वर्ष के छह माह में उत्तरी गोलार्ध में (उत्तरायण) और छह माह में दक्षिणी गोलार्ध में (दक्षिणायण) सूर्य की सीधी किरणें पड़ती हैं।
- कर्क रेखा (23½° उत्तर): जून संक्रांति पर यहाँ सीधी किरणें पड़ती हैं जिसके कारण ग्रीष्मकाल उत्पन्न होता है, जबकि दिसंबर–जनवरी में तापमान न्यूनतम रहता है।
- मकर रेखा (23½° दक्षिण): इसके ठीक विपरीत दिसंबर संक्रांति पर गर्मी और जून में शीतकाल होता है।
- मुख्य विशेषताएँ :
- भूमध्य रेखीय क्षेत्र:
- वर्ष भर तापमान लगभग समान रहता है, अतः वार्षिक तापांतर बहुत कम होता है।
- समुद्री तटीय क्षेत्र:
- महासागर के समीप होने से गर्मी–ठंड में तीव्रता नहीं रहती, इसलिये तापांतर सीमित रहता है।
- स्थलीय अंतःभाग:
- महाद्वीपीय क्षेत्र में अधिक तेजी से तापमान में परिवर्तन होता है; उत्तरी गोलार्ध में स्थल भाग अधिक होने के कारण वार्षिक तापांतर अधिक होता है, जबकि दक्षिणी गोलार्ध में जल भाग की अधिकता के कारण यह कम होता है।
- भूमध्य रेखीय क्षेत्र:
- महत्व:
वार्षिक तापांतर का अध्ययन जलवायु वर्गीकरण (जैसे महाद्वीपीय बनाम समुद्री जलवायु) तथा कृषि, बुनियादी ढाँचा और स्वास्थ्य प्रबंधन में मौसमी चरम स्थितियों को समझने में सहायक होता है।
- चोल पल्लवों के सामंत थे। इनका इतिहास मुख्यतः अभिलेखों से जाना जाता है जो कि संस्कृत, तमिल, तेलुगू और कन्नड़ भाषाओं में लिखे गए हैं।
- विजयालय (850-887) ने चोल राज्य की स्थापना की और उसने नरकेसरी की उपाधि धारण की थी।
- चोलों की प्रारंभिक राजधानी तंजौर या तंजावुर थी।
- अरमोलिवर्मन (राजराज-I) ने पांड्य, चेर तथा श्रीलंका के गठबंधन को पराजित किया। उसने श्रीलंका के शासक महेंद्र पंचम को पराजित कर लंका के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
- राजराज-I ने मालदीव पर अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से विजय प्राप्त की। यह प्रथम चोल शासक था जिसने भूमि की माप करवाई। अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र राजेंद्र-I को सम्राट घोषित कर दिया। राजराज-I ने तंजौर में ‘बृहदेश्वर (राजराजेश्वर) शिव मंदिर’ बनवाया।
- राजेंद्र-I ने संपूर्ण श्रीलंका को जीत लिया। 1022 में गंगा-घाटी का अभियान किया। पाल शासक महिपाल को पराजित किया। इस उपलक्ष्य में वापस आकर ‘गंगैकोंडचोलपुरम्’ नामक नगर की स्थापना की और ‘गंगैकोंडचोल’ की उपाधि धारण की। राजेंद्र प्रथम ने गंगैकोंडचोलपुरम् को चोल राज्य की नवीन राजधानी बनाया।
- उसने दक्षिण-पूर्व एशिया में सैन्य अभियान किया। उसने शैलेंद्र शासक श्री संग्राम विजय तुंग को पराजित करके कटाहा (कडारम) पर अधिकार कर लिया और ‘कडारकोंड’ की उपाधि धारण की। इस राज्य के अंतर्गत मलय, जावा, सुमात्रा आदि द्वीप थे।
- कुलोतुंग-I चोल-चालुक्य रक्त मिश्रित था। इसने भूमि की दो बार माप कराई।
- कुलोतुंग-II ने चिदंबरम मंदिर में स्थित गोविंदराज (विष्णु) की मूर्ति को समुद्र में फिंकवा दिया। कालांतर में रामानुजाचार्य ने उस मूर्ति का पुनरुद्धार किया और उसे तिरुपति के मंदिर में प्रतिष्ठित किया।
- राजेंद्र-III चोल वंश का अंतिम शासक था।
- सी.वी. रमन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वैज्ञानिक संसार में भारत को ख्याति दिलाई। वर्ष 1930 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार पाने वाले वे पहले एशियाई वैज्ञानिक थे। उनको यह पुरस्कार उनकी युगांतरकारी खोज ‘रमन प्रभाव’ के लिये मिला।
- सी.वी. रमन ने एकवर्णी प्रकाश (Monochromatic Light) का अध्ययन करते हुए पाया कि जब इसे किसी गैसीय या पारदर्शी माध्यम से गुज़ारा जाता है तो बहुत कम तीव्रता की कुछ किरणें पैदा हो जाती हैं जिनकी तरंगदैर्ध्य (Wavelength) मूल प्रकाश से थोड़ी अलग होती है, यानी एक छोटा-सा स्पेक्ट्रम प्राप्त हो जाता है। प्रकाश के एक रंग का दूसरे कई रंगों में विभक्त हो जाना ‘प्रकाश का प्रकीर्णन’ (Scattering of Light) कहलाता है।
- इस तरह पहली बार सी.वी. रमन ने प्रकाश के प्रकीर्णन की व्याख्या की। आसमान या समुद्र का नीला दिखना इसी प्रकीर्णन का परिणाम होता है। डॉ. रमन ने इस खोज की घोषणा 28 फरवरी, 1928 को की थी।
- सी.वी. रमन ने वर्ष 1934 में इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज, बंगलुरू की स्थापना की। वर्ष 1948 में बंगलुरू में ही उन्होंने रमन रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना की और इसी संस्थान में शोधरत रहे।
- विज्ञान में उनके योगदान के लिये उन्हें 1929 में ‘नाईटहुड’, 1954 में ‘भारत रत्न’ तथा 1957 में ‘लेनिन शांति पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
- ‘रमन प्रभाव’ की खोज के उपलक्ष्य में 28 फरवरी का दिन ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
विवाह एक ऐसा सामाजिक और कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त संबंध है जो दो व्यक्तियों के बीच अधिकार और कर्त्तव्यों की स्थापना करता है। विवाह के माध्यम से प्रजनन और संपत्ति के उत्तराधिकार की सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है। विभिन्न समाजों में सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताओं के अनुसार विवाह के कई प्रकार विकसित हुए हैं।
- एकपत्नीत्व (Monogamy)
- एकपत्नीत्व सबसे सामान्य और व्यापक रूप से स्वीकार किया जाने वाला विवाह प्रकार है।
- इसमें एक व्यक्ति का एक ही जीवनसाथी होता है।
- यह अधिकतर समाजों में आदर्श माना जाता है और कई देशों में यह कानूनी रूप से अनिवार्य भी होता है।
- बहुपत्नीत्व (Polygamy)
- बहुपत्नीत्व वह व्यवस्था है जिसमें कोई व्यक्ति एक समय में एक से अधिक जीवनसाथियों से विवाह करता है। इसके दो प्रमुख प्रकार हैं:
- बहुपत्नीत्व (Polygyny): एक पुरुष का एक से अधिक स्त्रियों से विवाह।
- बहुपतित्व (Polyandry): एक स्त्री का एक से अधिक पुरुषों से विवाह। यह दुर्लभ है और मुख्यतः हिमालयी क्षेत्रों के कुछ जनजातीय समाजों में पाया जाता है, जहाँ यह जनसंख्या नियंत्रण और संपत्ति संरक्षण में सहायक होता है।
- बहुपत्नीत्व वह व्यवस्था है जिसमें कोई व्यक्ति एक समय में एक से अधिक जीवनसाथियों से विवाह करता है। इसके दो प्रमुख प्रकार हैं:
- स्वजातीय विवाह (Endogamy)
- इसमें व्यक्ति अपनी ही जाति, वर्ग या समुदाय के भीतर विवाह करता है।
- इसका उद्देश्य सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना होता है।
- बहिर्जातीय विवाह (Exogamy)
- इसमें व्यक्ति अपनी जाति, वर्ग या कुल से बाहर विवाह करता है।
- यह विवाह सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है और सामाजिक नेटवर्क को विस्तृत करता है।
- विवाह के ये प्रकार मानव समाज की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाते हैं और इन्हें समझना सामाजिक ढांचे के विश्लेषण में सहायक होता है।
- वायुमंडल में निलंबित कणिकीय पदार्थ तथा तरल बूंदों के सम्मिलित रूप को ‘एयरोसॉल’ कहा जाता है। इसके अंतर्गत धूलकण, राख, कालिख, परागकण, नमक, जैविक पदार्थ (बैक्टीरिया) इत्यादि आते हैं।
- यह एक परिवर्तनशील प्रकृति का तत्त्व है, जिसकी मात्रा विभिन्न कारणों से घटती-बढ़ती रहती है।
- इसकी मात्रा वायुमंडल में नीचे से ऊपर की ओर जाने पर घटती जाती है।
- ऊपरी वायुमंडल में एयरोसॉल की उपस्थिति मुख्यतः उल्काओं के विघटन, ज्वालामुखी उद्भेदन तथा प्रचंड आँधियों इत्यादि के फलस्वरूप होती है।
- इसके कारण ही सूर्य से आने वाले प्रकाश का ‘वर्णात्मक प्रकीर्णन’ होता है, जिससे कई प्रकार के नयनाभिराम (Picturesque) आकाशीय रंगों का आविर्भाव होता है।
- एयरोसॉल अथवा धूलकण आर्द्रताग्राही नाभिक की तरह कार्य करते हैं, जिसके चारों ओर जलवाष्प संघनित होकर बादलों का निर्माण करते हैं। जब वायुमंडल में उपस्थित एयरोसॉल का संपर्क सल्फर डाइऑक्साइड जैसी गैसों से हो जाता है तो ‘धूम कोहरे’ (Smog) का निर्माण होता है।
- यह भारत का सबसे बड़ा साहित्यिक पुरस्कार है। यह साहू शांति प्रसाद (जैन परिवार) द्वारा स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट द्वारा प्रदान किया जाता है।
- यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में दी गई 22 भाषाओं तथा अंग्रेज़ी में लिखी गई रचनाओं के लिये प्रदान किया जाता है।
- ज्ञानपीठ पुरस्कार स्वरूप 11 लाख रुपये, वाग्देवी की प्रतिमा और प्रशस्ति-पत्र दिया जाता है।
- पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार 1965 ई. में जी. शंकर कुरूप को उनकी कृति ओडक्कुषल (Odakkuzhal) को मलयालम भाषा के लिये दिया गया था।
- हिंदी के लिये ज्ञानपीठ पुरस्कार सर्वप्रथम सुमित्रानंद पंत को 1968 में ‘चिदंबरा’ के लिये मिला।
- ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाली पहली महिला आशापूर्णा देवी (बांग्ला लेखिका) हैं, जिन्हें यह पुरस्कार 1976 में दिया गया।
- वर्ष 2018 का 54वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार अंग्रेज़ी के प्रतिष्ठित साहित्यकार अमिताव घोष को दिया गया।
- वर्ष 2021 और 2022 का ज्ञानपीठ पुरस्कार क्रमशः असमिया कवि नीलमणि फूकन को 56वाँ और कोंकणी उपन्यासकार दामोदर माउजो को 57वाँ दिया गया।
- 2023 का ज्ञानपीठ पुरस्कार दो रचनाकारों- जगद्गुरु रामभद्राचार्य (संस्कृत) व संपूर्ण सिंह कालरा ‘गुलज़ार’ (उर्दू) को दिया गया है।
भारत में औषधियों के उपयोग और नियंत्रण का विधिक ढाँचा मुख्यतः तीन प्रमुख अधिनियमों पर आधारित है:
- औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 (Drugs and Cosmetics Act, 1940): यह अधिनियम औषधियों और प्रसाधन सामग्री के आयात, निर्माण, वितरण और बिक्री को विनियमित करता है, जिसमें भांग और अफीम से विकसित औषधियाँ भी शामिल हैं।
- स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1985 - NDPS Act): यह अधिनियम स्वापक औषधियों और मन:प्रभावी पदार्थों के उत्पादन, निर्माण, व्यापार, उपयोग आदि को नियंत्रित करता है। यह अधिनियम 14 नवंबर 1985 से प्रभावी हुआ और इसमें समय-समय पर संशोधन किये गए हैं।
- स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अवैध व्यापार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Illicit Traffic in Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1988): यह अधिनियम अवैध तस्करी को रोकने के लिये निरोधात्मक उपाय प्रदान करता है।
- नियामक संस्थाएँ :
- स्वापक नियंत्रण ब्यूरो (Narcotics Control Bureau - NCB): 1986 में स्थापित, NCB एक केंद्रीय कानून प्रवर्तन और खुफिया एजेंसी है जो मादक पदार्थों की तस्करी और अवैध उपयोग के खिलाफ कार्य करती है। यह विभिन्न राज्य सरकारों और अन्य केंद्रीय विभागों के साथ समन्वय स्थापित करता है और अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने में सहायता करता है।
- वित्त मंत्रालय, राजस्व विभाग: यह विभाग NDPS अधिनियम, 1985 और 1988 के कार्यान्वयन की देखरेख करता है और विभिन्न कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच समन्वय स्थापित करता है।
- इन अधिनियमों और संस्थाओं के माध्यम से, भारत सरकार औषधियों के दुरुपयोग और अवैध व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास करती है, जिससे समाज में मादक पदार्थों के नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सके।
- प्रारंभिक विकास एवं भारतीय पुनर्स्थापना :
- 1882 में सोसाइटी का मुख्यालय मद्रास के निकट अडयार में स्थानांतरित किया गया, जिससे भारतीय आध्यात्मिक विरासत को नई पहचान मिली।
- इस परिवर्तन ने भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के साथ गहरा संबंध स्थापित किया और आध्यात्मिक पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त किया।
- सामाजिक सुधार एवं उदारवादी प्रयास :
- सोसाइटी ने जातिगत भेदभाव, बाल विवाह एवं विधवा की स्थिति सुधार जैसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों पर जोर दिया।
- इसका उद्देश्य समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों का उत्थान करना और सभी के कल्याण के लिये समान अवसर सुनिश्चित करना था।
- शिक्षा एवं राष्ट्रीय चेतना का सृजन :
- एनी बेसेंट के नेतृत्व में बनारस में ‘सेंट्रल हिन्दू स्कूल’ की स्थापना की गई, जिसने पारंपरिक हिंदू ज्ञान के साथ पश्चिमी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समाहित किया।
- यह विद्यालय बाद में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ, जिससे भारतीय शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन आया।
- धार्मिक समृद्धि एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान :
- सोसाइटी ने हिन्दू धर्म की प्राचीन विरासत को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, जिससे लोगों में अपनी सांस्कृतिक जड़ों के प्रति गर्व और आत्म-सम्मान जागृत हुआ।
- इसने भारतीय धार्मिक दर्शन एवं पुरातन ज्ञान की महत्ता को उजागर कर राष्ट्रीय पहचान को मजबूत किया।
- पूर्व-पश्चिमी संवाद एवं वैश्विक प्रभाव :
- सोसाइटी ने विभिन्न धर्मों के बीच संवाद को बढ़ावा दिया, जिससे वैश्विक स्तर पर धार्मिक सहिष्णुता एवं सहयोग की भावना विकसित हुई।
- इसके प्रयासों से भारतीय विचारधारा को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली और विश्वभर में इसका सम्मान बढ़ा।
- आधुनिकता में आध्यात्मिकता के प्रति दृष्टिकोण :
- थियोसोफिकल आंदोलन ने आधुनिक युग में भी आध्यात्मिकता की प्रासंगिकता को उजागर किया, जिससे नई पीढ़ी को पारंपरिक ज्ञान से जोड़ने में सहायता मिली।
- यह आंदोलन आज भी उन लोगों के लिये प्रेरणा का स्रोत है जो गहन आत्म-ज्ञान एवं राष्ट्रीय चेतना की ओर अग्रसर हैं।
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान :
- सोसाइटी द्वारा जागृत हुई राष्ट्रीय चेतना ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- लोगों में आत्म-निर्भरता एवं राष्ट्रीय गर्व की भावना को बढ़ावा देने में इस आंदोलन का निर्णायक योगदान रहा।
बहिर्मंडल वायुमंडल की वह अंतिम परत है, जो पृथ्वी के ऊपरी वातावरण का अंतिम चरण दर्शाती है। यह परत लगभग 640 से 1,000 किलोमीटर की ऊँचाई में स्थित होती है, जहाँ वायुमंडलीय कण अत्यंत विरल हो जाते हैं। सूर्य की अत्यधिक विकिरण शक्ति के कारण इस क्षेत्र में गैसों का आयनीकरण होता है, जिससे विद्युत आवेशित कणों की प्रधानता हो जाती है। बहिर्मंडल न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान के लिये महत्त्वपूर्ण है, बल्कि यह पृथ्वी और अंतरिक्ष के बीच के संक्रमण को भी समझने में सहायक है।
- मुख्य बिंदु :
- गैसीय संरचना और आयनीकरण :
- बहिर्मंडल में प्रमुख गैसें जैसे नाइट्रोजन (N), ऑक्सीजन (O₂), हीलियम (He) और हाइड्रोजन (H) पाई जाती हैं।
- सौर विकिरण के कारण इन गैसों का आयनीकरण होता है, जिससे विद्युत आवेशित कणों की संख्या में वृद्धि होती है।
- तापमान और गतिशीलता :
- ऊँचाई के साथ बहिर्मंडल का तापमान बढ़ता है, जिससे गैस कणों की गति तेज हो जाती है।
- इस तापमान वृद्धि के कारण बहिर्मंडल की संरचना में निरंतर परिवर्तन देखा जाता है।
- वायुमंडल और अंतरिक्ष के बीच संक्रमण :
- 1,000 किलोमीटर की ऊँचाई के बाद वायुमंडल अत्यंत विरल हो जाता है।
- लगभग 10,000 किलोमीटर की ऊँचाई तक पहुँचते-प्रचालित, बहिर्मंडल धीरे-धीरे अंतरिक्ष में विलीन हो जाता है, जहाँ गैसों का घनत्व इतना कम हो जाता है कि वे स्वतंत्र रूप से फैल जाती हैं।
- वैज्ञानिक और तकनीकी महत्त्व :
- बहिर्मंडल का अध्ययन उपग्रह प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष मौसम, और वायुमंडलीय प्रक्रियाओं के विश्लेषण में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
- यह परत दूरसंचार एवं नेविगेशन प्रणालियों के लिये रेडियो तरंगों के परावर्तन में भी सहायक होती है, जिससे संचार नेटवर्क की कार्यक्षमता में सुधार होता है।
बहिर्मंडल पृथ्वी के वायुमंडलीय परतों का वह अंतिम चरण है, जो अंतरिक्ष और वायुमंडल के बीच के संक्रमण का प्रतीक है। इसकी विशिष्ट संरचना और गतिशीलता वैज्ञानिकों के लिये नई खोजों और तकनीकी प्रगति का स्रोत है। बहिर्मंडल का गहन अध्ययन हमें न केवल पृथ्वी के पर्यावरण के बारे में समझ प्रदान करता है, बल्कि अंतरिक्षीय गतिविधियों और भविष्य की तकनीकी चुनौतियों का समाधान भी सुझाता है।
- गैसीय संरचना और आयनीकरण :
अल्बर्ट आइंस्टीन (1879–1955) 20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली और महानतम भौतिकविदों में गिने जाते हैं, जिन्होंने भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में क्रांतिकारी अवधारणाओं को प्रस्तुत कर आधुनिक विज्ञान की नींव को नया स्वरूप दिया।
- प्रकाश क्वांटा और प्रकाशविद्युत प्रभाव (Photoelectric Effect)
1905 में आइंस्टीन ने अपने शोध में यह अभूतपूर्व सिद्धांत प्रस्तुत किया कि प्रकाश ऊर्जा के छोटे-छोटे कणों (जिसे अब "फोटॉन" कहा जाता है) से बना होता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब यह फोटॉन किसी धातु की सतह पर पड़ते हैं, तो वे इलेक्ट्रॉनों को बाहर निकाल सकते हैं, बशर्ते उनकी ऊर्जा एक निश्चित सीमा (Threshold) से अधिक हो।- इस सिद्धांत ने प्रकाश के पारंपरिक तरंग सिद्धांत को चुनौती दी।
- आइंस्टीन के इस शोध ने क्वांटम भौतिकी के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- इस खोज के लिये उन्हें 1921 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
- मिलिकन के प्रयोग (1906–1916)
रॉबर्ट मिलिकन ने 1906 से 1916 तक कई प्रयोग करके आइंस्टीन के प्रकाशविद्युत समीकरण की सत्यता की गहन जाँच की।- प्रारंभ में, मिलिकन आइंस्टीन के सिद्धांत को खंडित करने का प्रयास कर रहे थे।
- लेकिन उनके प्रयोगों ने आइंस्टीन के समीकरण को पूरी तरह से प्रमाणित कर दिया, जिससे क्वांटम सिद्धांत की नींव और भी मजबूत हो गई।
- सापेक्षिकता का सिद्धांत (Theory of Relativity)
आइंस्टीन ने सापेक्षिकता के दो प्रमुख सिद्धांत प्रस्तुत किये, जिन्होंने ब्रह्मांड की हमारी समझ को पूरी तरह से बदल दिया:- विशेष सापेक्षिकता (1905):
- इसमें बताया कि समय, गति, और ऊर्जा सापेक्ष होते हैं और वे एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं।
- प्रसिद्ध समीकरण E = mc² ने यह दर्शाया कि द्रव्यमान और ऊर्जा एक-दूसरे के पर्याय हैं।
- सामान्य सापेक्षिकता (1915):
- गुरुत्वाकर्षण को एक बल के रूप में नहीं, बल्कि अंतरिक्ष-समय के वक्रण (curvature of spacetime) के रूप में समझाया।
- इस सिद्धांत ने ब्रह्मांड की संरचना और उसकी गति को समझने के लिये नया दृष्टिकोण प्रदान किया।
आइंस्टीन के ये अद्वितीय सिद्धांत आधुनिक भौतिकी की मजबूत नींव बने। उनके विचारों ने ब्रह्मांड की हमारी समझ को पुनर्परिभाषित किया और विज्ञान के इतिहास में उन्हें अमर स्थान दिलाया।
- विशेष सापेक्षिकता (1905):
मंदिर प्रवेश आंदोलन भारत के सामाजिक सुधार आंदोलनों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था, जिसने दलितों और पिछड़े वर्गों को मंदिरों और सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश दिलाने के लिये संघर्ष किया। यह आंदोलन केवल धार्मिक समानता की मांग तक सीमित नहीं था, बल्कि व्यापक सामाजिक न्याय और जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में भी एक बड़ा प्रयास था।
- आंदोलन की पृष्ठभूमि
भारत में लंबे समय से जाति-आधारित भेदभाव व्याप्त था, जिसमें निम्न जातियों, विशेष रूप से दलितों, को मंदिरों और सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। सामाजिक असमानता के इस अन्याय के विरुद्ध कई समाज सुधारकों ने आवाज उठाई और विभिन्न आंदोलनों की शुरुआत की। - प्रमुख समाज सुधारकों की भूमिका
- श्री नारायण गुरु, एन. कुमारन असन, और टी.के. माधवन जैसे समाज सुधारकों ने जातिवाद के खिलाफ जागरूकता फैलाने और समानता के अधिकारों की मांग करने में अग्रणी भूमिका निभाई।
- उन्होंने शिक्षा और सामाजिक सुधारों के माध्यम से जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिये कई प्रयास किये।
- वाइकोम सत्याग्रह (1924)
- 1924 में, के.पी. केसव मेनन के नेतृत्व में केरल में वाइकोम सत्याग्रह शुरू हुआ।
- इस सत्याग्रह का मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक मार्गों और मंदिरों में दलितों को प्रवेश दिलाना था।
- केवल केरल ही नहीं, बल्कि पंजाब के जाट समुदाय और तमिलनाडु के मदुरई के निवासियों ने भी समान अधिकारों की मांग के लिये इस सत्याग्रह का समर्थन किया।
- महात्मा गांधी ने इस आंदोलन के समर्थन में केरल की यात्रा की और सरकार से अपील की कि सत्याग्रहियों की मांगों को स्वीकार किया जाए।
- गुरुवायूर सत्याग्रह (1931)
- 1931 में, जब सविनय अवज्ञा आंदोलन अस्थायी रूप से स्थगित हो गया, तब केरल में मंदिर प्रवेश आंदोलन ने और अधिक गति पकड़ ली।
- के. केलप्पन और प्रसिद्ध कवि सुब्रह्मण्यम तिरुमाम्बू ने गुरुवायूर मंदिर में प्रवेश के लिये एक 16 सदस्यीय स्वयंसेवी दल का नेतृत्व किया।
- इस आंदोलन को पी. कृष्णा पिल्लई और ए.के. गोपालन जैसे प्रमुख समाज सुधारकों का भी समर्थन प्राप्त हुआ।
- आंदोलन की ऐतिहासिक सफलता (1936-1938)
- आंदोलन की लगातार बढ़ती ताकत और जनता के समर्थन के कारण, 1936 में त्रावणकोर के महाराजा ने एक राजाज्ञा जारी कर सभी सरकार-नियंत्रित मंदिरों को सभी जातियों के लिये खोल दिया।
- यह आदेश भारतीय समाज में धार्मिक समानता की दिशा में एक ऐतिहासिक उपलब्धि था।
- 1938 में, मद्रास प्रांत में सी. राजगोपालाचारी की सरकार ने भी इसी प्रकार का आदेश जारी कर मंदिरों को सभी वर्गों के लिये खोलने का निर्णय लिया।
- मंदिर प्रवेश आंदोलन का प्रभाव और विरासत
- जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई को मजबूती – इस आंदोलन ने भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव को चुनौती दी और समानता के विचार को व्यापक रूप से स्वीकार्यता दिलाई।
- संवैधानिक प्रावधानों की नींव – इस आंदोलन ने डॉ. भीमराव अंबेडकर और अन्य नेताओं को भारतीय संविधान में समानता और सामाजिक न्याय के अधिकारों को शामिल करने की प्रेरणा दी।
- दलित जागरूकता और सशक्तिकरण – इस आंदोलन के कारण दलित समाज में सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता बढ़ी, जिससे उन्हें आगे चलकर और अधिक अधिकार मिले।
- राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से संबंध – यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से भी जुड़ गया, क्योंकि महात्मा गांधी, डॉ. अंबेडकर, और अन्य नेताओं ने इसे सामाजिक स्वतंत्रता का महत्वपूर्ण हिस्सा माना।
मंदिर प्रवेश आंदोलन केवल धार्मिक स्थलों तक पहुंच प्राप्त करने का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह सामाजिक न्याय, समानता और मानवीय गरिमा की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम था। इस आंदोलन की सफलता ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई को नई दिशा दी और स्वतंत्र भारत में सभी के लिये समान अधिकारों की नींव रखी।
ब्याज़ दरें उधार लेने और देने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जब कोई व्यक्ति, व्यवसाय, या सरकार धन उधार लेती है, तो उधारदाता इसके बदले अतिरिक्त राशि वसूलता है, जिसे ब्याज़ कहा जाता है। उधारदाता अपने पैसे को खुद निवेश करने की बजाय उधार देकर ब्याज़ के रूप में लाभ कमाता है।
- ब्याज़ दर क्या होती है?
ब्याज़ दर उधार ली गई राशि पर देय अतिरिक्त शुल्क होता है, जिसे कुल ऋण राशि के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है। उधारकर्ता को मूल राशि के साथ-साथ इस अतिरिक्त ब्याज़ का भी भुगतान करना होता है। - ब्याज़ दर की प्रमुख विशेषताएँ:
- वार्षिक प्रतिशत दर (APR):
- ब्याज़ दर आमतौर पर वार्षिक आधार पर तय की जाती है, जिसे वार्षिक प्रतिशत दर (Annual Percentage Rate - APR) कहते हैं।
- इसमें ब्याज़ के साथ-साथ उधारदाता द्वारा लगाए गए अन्य शुल्क भी शामिल होते हैं।
- ब्याज़ दर के प्रकार:
- स्थिर ब्याज़ दर (Fixed Interest Rate): पूरी ऋण अवधि में समान रहती है, जिससे भुगतान की योजना बनाना आसान होता है।
- परिवर्तनीय ब्याज़ दर (Variable Interest Rate): बाजार की स्थिति के अनुसार समय-समय पर बदलती रहती है, जिससे उधार की लागत बढ़ या घट सकती है।
- ब्याज़ दर कहाँ लागू होती है?
- गृह ऋण (Home Loans): घर खरीदने के लिये उधार ली गई राशि पर ब्याज़ देना होता है।
- व्यवसायिक ऋण (Business Loans): कंपनियाँ व्यापार शुरू करने या बढ़ाने के लिये ऋण लेती हैं और ब्याज़ चुकाती हैं।
- शिक्षा ऋण (Education Loans): छात्र अपनी पढ़ाई के लिये ऋण लेते हैं और ब्याज़ सहित भुगतान करते हैं।
- क्रेडिट कार्ड (Credit Cards): यदि क्रेडिट कार्ड का पूरा बकाया समय पर नहीं चुकाया जाता, तो बची हुई राशि पर ब्याज़ लगता है।
ब्याज़ दरें हमारे जीवन और अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं। इन्हें समझने से लोग अपने वित्तीय निर्णयों को बेहतर तरीके से प्रबंधित कर सकते हैं और समझदारी से पैसे का उपयोग कर सकते हैं।
- वार्षिक प्रतिशत दर (APR):
86वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 भारत में एक महत्वपूर्ण सुधार था, जिसने 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया। इस संशोधन ने शिक्षा को राष्ट्रीय विकास के लिये आवश्यक माना और यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि कोई भी बच्चा बुनियादी शिक्षा से वंचित न रहे।
- 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के प्रमुख प्रावधान :
- अनुच्छेद 21A – मौलिक अधिकार के रूप में शिक्षा
- इस अनुच्छेद के तहत 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिये नि :शुल्क और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित किया गया।
- यह राज्य को इस आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा उपलब्ध कराने के लिये बाध्य करता है।
- अनुच्छेद 45 में संशोधन (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व - DPSP)
- पहले अनुच्छेद 45 का उद्देश्य 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को नि :शुल्क शिक्षा प्रदान करना था।
- संशोधन के बाद, इसका ध्यान 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा पर केंद्रित कर दिया गया।
- अनुच्छेद 51(क) – मौलिक कर्तव्य
- इसमें माता-पिता और अभिभावकों के लिये यह कर्तव्य जोड़ा गया कि वे 6 से 14 वर्ष की आयु के अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान करें।
- अनुच्छेद 21A – मौलिक अधिकार के रूप में शिक्षा
- शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 के माध्यम से क्रियान्वयन
- अनुच्छेद 21A को प्रभावी बनाने के लिये शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 पारित किया गया, जिसके तहत :
- सरकारी और निजी सहायता प्राप्त स्कूलों में 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिये नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित की गई।
- निजी स्कूलों में अल्पसंख्यक और वंचित वर्गों के लिये 25% सीटों का आरक्षण अनिवार्य किया गया।
- भेदभाव, शारीरिक दंड, और प्रवेश परीक्षा जैसी बाधाओं को समाप्त किया गया।
86वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 और शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 ने शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाकर एक क्रांतिकारी कदम उठाया। इसका उद्देश्य साक्षरता दर में वृद्धि, स्कूल छोड़ने की दर में कमी, और सामाजिक समानता को बढ़ावा देना है, जिससे सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर मिल सके।
न्याय आंदोलन (Justice Movement) 20वीं शताब्दी की शुरुआत में दक्षिण भारत में सामाजिक और राजनीतिक सुधार के उद्देश्य से शुरू किया गया एक महत्त्वपूर्ण आंदोलन था। इसकी स्थापना सी.एन. मुदलियार, टी.एम. नायर और पी. त्यागराज ने मद्रास (वर्तमान चेन्नई) में की। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य गैर-ब्राह्मण जातियों को राजनीतिक और सामाजिक अधिकार दिलाना था, ताकि वे ब्राह्मणों के प्रभुत्व से मुक्त होकर समाज में समान अवसर प्राप्त कर सकें।
- आंदोलन की पृष्ठभूमि
ब्रिटिश शासन के दौरान मद्रास प्रेसीडेंसी में प्रशासन, शिक्षा और विधायिका में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। सरकारी नौकरियों और राजनीतिक पदों पर गैर-ब्राह्मण जातियों को बहुत कम अवसर मिलते थे। इस असमानता को समाप्त करने के लिये न्याय आंदोलन की शुरुआत हुई।
1917 में मद्रास प्रेसीडेंसी एसोसिएशन का गठन किया गया, जिसने गैर-ब्राह्मण समुदायों के लिये विधानसभा में पृथक प्रतिनिधित्व की मांग की। इसका उद्देश्य समाज के सभी वर्गों को राजनीतिक भागीदारी में समान अवसर देना था। - मुख्य मांगें और उपलब्धियाँ
- विधायिका में गैर-ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व – गैर-ब्राह्मण जातियों के लिये पृथक निर्वाचन प्रणाली और आरक्षण की मांग की गई।
- शिक्षा और रोजगार में समान अवसर – सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में गैर-ब्राह्मणों को अधिक प्रतिनिधित्व देने पर जोर दिया गया।
- ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध – समाज में जातिगत भेदभाव और विशेषाधिकारों को समाप्त करने की पहल की गई।
- प्रभाव और विरासत
न्याय आंदोलन ने आगे चलकर द्रविड़ आंदोलन और आत्मसम्मान आंदोलन (Self-Respect Movement) का मार्ग प्रशस्त किया। इसने मद्रास प्रेसीडेंसी में सामाजिक न्याय और आरक्षण नीति को लागू कराने में अहम भूमिका निभाई। बाद में, द्रविड़ कड़गम और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) जैसी पार्टियों ने इस विचारधारा को आगे बढ़ाया।
यह आंदोलन भारत में सामाजिक न्याय और पिछड़े वर्गों के उत्थान की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था, जिसने समानता और प्रतिनिधित्व की नई परिभाषा गढ़ी।
सागरीय तापमान महासागरीय जल का एक महत्वपूर्ण भौतिक गुण है, जो विभिन्न कारकों द्वारा निर्धारित होता है। ये कारक हैं :
- सूर्यातप की मात्रा
- ऊष्मा संतुलन
- सागरीय जल का घनत्व
- लवणता
- वाष्पीकरण और संघनन
- स्थानीय मौसमी दशाएँ
सागरीय तापमान महासागरीय धाराओं, समुद्री जीवों और वनस्पतियों के विकास में अहम भूमिका निभाता है।
- तापमान में परिवर्तन के मुख्य कारण :
- महासागरीय जल की सतह का औसत दैनिक तापांतर बहुत कम होता है, लगभग 1°C।
- अगस्त में सागरीय जल का तापमान अधिकतम और फरवरी में न्यूनतम रहता है।
- महासागरीय जल का तापमान 5°C से 33°C के बीच होता है।
- विषुवत रेखा के समीप सागरीय जल का तापमान सबसे अधिक होता है, और जैसे-जैसे हम ध्रुवों की ओर बढ़ते हैं, तापमान में क्रमिक ह्रास होता है।
- विषुवत रेखा पर वार्षिक तापमान 26°C होता है, जबकि 20°, 40° और 60° अक्षांशों पर यह क्रमशः 23°C, 14°C और 1°C होता है।
- तापमान अंतर :
- 20° उत्तरी और दक्षिणी अक्षांशों के बीच और 50° दक्षिणी-अक्षांश वृत से दक्षिण में तापांतर लगभग 5.5°C होता है।
- उष्णकटिबंधीय महासागर स्थल भाग से घिरे होते हैं, जिससे यहाँ तापमान अधिक होता है।
- व्यापारिक हवाओं के प्रभाव से उष्णकटिबंधीय महासागरों के पश्चिमी भाग अधिक गर्म रहते हैं, जबकि पूर्वी भाग अपेक्षाकृत ठंडा रहता है।
- समशीतोष्ण कटिबंधों में पछुआ पवन के प्रभाव से महासागरों के पूर्वी भाग पश्चिमी भागों की तुलना में अधिक गर्म रहते हैं।
- गहराई के साथ तापमान का परिवर्तन :
- सागरीय जल का तापमान गहराई बढ़ने के साथ घटता है, परंतु यह ह्रास दर समान नहीं होती।
- 100 मीटर की गहराई तक, सागरीय जल का तापमान धरातलीय तापमान के लगभग बराबर होता है।
- 1,800 मीटर की गहराई पर, तापमान 15°C से घटकर 2°C रह जाता है।
- 4,000 मीटर की गहराई पर तापमान 1.6°C तक घट जाता है।
सागरीय तापमान महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह समुद्री जीवन के विकास, महासागरीय धाराओं और वायुमंडलीय स्थितियों से जुड़ा हुआ है, जिससे पृथ्वी के जलवायु तंत्र पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है।
विद्युत सेल एक ऐसी युक्ति (Device) है, जो रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसमें रासायनिक अभिक्रिया के दौरान मुक्त आवेश (इलेक्ट्रॉन) उत्पन्न होते हैं, जो परिपथ में प्रवाहित होकर विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं। विद्युत सेल का उपयोग टॉर्च, रिमोट, मोबाइल फोन, गाड़ियों और इन्वर्टर जैसी कई चीजों में किया जाता है।
- विद्युत सेल के प्रकार
विद्युत सेल मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं :- प्राथमिक सेल (Primary Cell)
- इन्हें दोबारा चार्ज नहीं किया जा सकता, क्योंकि इनमें अनुत्क्रमणीय (Irreversible) रासायनिक अभिक्रिया होती है।
- जब इनका चार्ज समाप्त हो जाता है, तो इन्हें दोबारा उपयोग में नहीं लाया जा सकता।
- उदाहरण :
- ड्राई सेल (Zinc-Carbon Battery) – टॉर्च, रिमोट में प्रयोग होता है।
- अल्कलाइन बैटरी (Alkaline Battery) – घड़ियों और कैमरों में उपयोग की जाती है।
- मर्करी सेल (Mercury Cell) – श्रवण - संबंधी उपकरणों (Hearing Aid) और छोटे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में उपयोग होती है।
- द्वितीयक सेल (Secondary Cell)
- इनमें सेल को रासायनिक अभिक्रिया द्वारा विद्युत ऊर्जा की आपूर्ति करने के पश्चात् पुनः रिचार्ज किया जा सकता है।
- विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदल कर इन सेलों को बार-बार प्रयोग में लाया जा सकता है।
- उदाहरण :
- लीथियम-आयन बैटरी (Lithium-Ion Battery) – मोबाइल फोन, लैपटॉप और इलेक्ट्रिक वाहनों में उपयोग होती है।
- लेड-एसिड बैटरी (Lead-Acid Battery) – कारों और इन्वर्टर में उपयोग की जाती है।
- निकेल-कैडमियम बैटरी (Nickel-Cadmium Battery) – पुराने वायरलेस फोन और पावर टूल्स में प्रयोग होती थी।
- प्राथमिक सेल (Primary Cell)
- बैटरियों की क्षमता और उपयोग
- mAh (Milliampere-hour) : यह बैटरी में संग्रहित ऊर्जा को मापने की इकाई है। अधिक mAh वाली बैटरी अधिक समय तक चलेगी।
- Watt-hour (Wh) : यह दर्शाता है कि बैटरी कुल कितनी ऊर्जा प्रदान कर सकती है।
- मोबाइल बैटरियाँ :
- अधिकतर मोबाइल फोन में लीथियम-आयन (Li-Ion) या लीथियम-पॉलिमर (Li-Po) बैटरियाँ होती हैं।
- ये बैटरियाँ हल्की और उच्च ऊर्जा संग्रहण क्षमता वाली होती हैं।
- कार बैटरियाँ :
- कारों में आमतौर पर 12-वोल्ट की लेड-एसिड बैटरी का उपयोग होता है।
- इलेक्ट्रोलाइट के रूप में 30-35% सल्फ्यूरिक एसिड (H₂SO₄) और 65-70% जल का मिश्रण होता है।
- एनोड – लेड (Pb), कैथोड – लेड डाइऑक्साइड (PbO₂)।
विद्युत सेल हमारे दैनिक जीवन में बहुत उपयोगी हैं। यह छोटे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से लेकर बड़ी मशीनों और वाहनों तक में प्रयोग किये जाते हैं। वैज्ञानिक नई तकनीक वाली बैटरियों (सौर ऊर्जा बैटरी, हाइड्रोजन फ्यूल सेल, सॉलिड-स्टेट बैटरी) पर काम कर रहे हैं, जिससे ऊर्जा संरक्षण और पर्यावरण को सुरक्षित रखने में मदद मिलेगी।
भारत सरकार ने रबी विपणन सीजन (RMS) 2025-26 के लिये सभी अनिवार्य रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में वृद्धि को मंजूरी दी है। यह निर्णय किसानों को उनके उत्पादन लागत पर कम से कम 50% का लाभ सुनिश्चित करने की सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जिससे कृषि आय बढ़ेगी और टिकाऊ खेती को बढ़ावा मिलेगा।
- MSP निर्धारण के प्रमुख कारण
- किसानों को लागत से अधिक लाभ दिलाना और उनकी आय में सुधार करना।
- बाजार में कीमतों के उतार-चढ़ाव से सुरक्षा प्रदान करना।
- रबी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित करना और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना।
- आयात निर्भरता कम करके आत्मनिर्भर भारत को बढ़ावा देना।
- RMS 2025-26 के लिये फसलों के MSP
फसल (मानक गुणवत्ता) |
MSP (₹ प्रति क्विंटल) |
गेहूँ |
2425 |
जौ |
1980 |
चना |
5650 |
मसूर |
6700 |
सरसों |
5950 |
कुसुम |
5940 |
- MSP वृद्धि के संभावित प्रभाव
- कृषि उत्पादन में वृद्धि, जिससे किसानों को अधिक लाभ मिलेगा।
- कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा और उन्नत तकनीकों को अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी।
- कृषि बाजार में स्थिरता आएगी और किसानों की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी।
- खाद्य पदार्थों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित होगी, जिससे महंगाई नियंत्रण में मदद मिलेगी।
सरकार का यह कदम मूल्य आश्वासन, कृषि सुधारों और ग्रामीण आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है, जो न केवल किसानों के लिये लाभकारी है, बल्कि खाद्य सुरक्षा और मूल्य स्थिरता को भी सुनिश्चित करता है।
जब कोई व्यक्ति कोई नया आविष्कार करता है, तो उसे उस आविष्कार के लिये दिये गए विशेष और अनन्य अधिकार को पेटेंट कहा जाता है। पेटेंट एक कानूनी अधिकार है जो किसी नए उत्पाद, उसकी निर्माण प्रक्रिया, या उपयोग की जाने वाली तकनीक के लिये प्रदान किया जाता है।
- पेटेंट की प्रमुख विशेषताएँ
- पेटेंट धारक को अपने आविष्कार पर विशेष स्वामित्व अधिकार मिलता है।
- यह 20 वर्षों के लिये मान्य होता है, जो पेटेंट दर्ज कराने की तारीख से गिना जाता है।
- पेटेंट केवल नए और मौलिक आविष्कारों को ही दिया जाता है।
- भारत में पेटेंट कानून
- भारत में पेटेंट अधिनियम 1970 में बनाया गया और 1972 से लागू किया गया।
- वर्ष 2005 में संशोधन कर इस अधिनियम के तहत दवाओं और औषधीय उत्पादों को भी पेटेंट के दायरे में शामिल किया गया।
पेटेंट प्रणाली का उद्देश्य नवाचार को प्रोत्साहित करना और आविष्कारकों को उनके शोध का कानूनी संरक्षण प्रदान करना है।
गोपाल गणेश अगरकर का जन्म 1856 में हुआ और उनका निधन 1895 में हुआ। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध शिक्षाविद और सामाजिक सुधारक थे। अगरकर तर्कवाद और वैज्ञानिक सोच के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अंधविश्वास और परंपरागत प्रथाओं की कड़ी आलोचना की, जो समाज की प्रगति में बाधक थीं।
- मुख्य शैक्षिक संस्थाएँ :
- अगरकर ने कई प्रमुख शैक्षिक संस्थाओं की सह-स्थापना की :
- न्यू इंग्लिश स्कूल
- दक्कन एजुकेशन सोसायटी
- फर्ग्युसन कॉलेज, जहाँ वे प्रधानाचार्य भी रहे।
- इन संस्थाओं ने महाराष्ट्र में आधुनिक शिक्षा के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- अगरकर ने कई प्रमुख शैक्षिक संस्थाओं की सह-स्थापना की :
- पत्रकारिता और प्रकाशन :
- अगरकर लोकमान्य तिलक द्वारा शुरू की गई पत्रिका 'केसरी' के पहले संपादक थे।
- बाद में, उन्होंने 'सुधारक' नामक अपनी स्वयं की पत्रिका आरंभ की, जो अस्पृश्यता और जातिवाद के खिलाफ थी।
- सामाजिक सुधार :
- अगरकर ने जातिवाद और अस्पृश्यता का जोरदार विरोध किया।
- उनका मानना था कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार और अवसर मिलना चाहिये, चाहे उनका धर्म या जाति कुछ भी हो।
- भारतीय समाज पर प्रभाव :
- अगरकर का भारतीय नवजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलनों में महत्वपूर्ण योगदान था।
- उन्होंने शिक्षा को भारतीय समाज के उत्थान का मुख्य साधन माना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया।
रक्त शरीर का एक अत्यंत महत्वपूर्ण तरल संयोजी ऊतक (connective tissue) है, जो शरीर के विभिन्न अंगों तक ऑक्सीजन, पोषक तत्व, हार्मोन और अपशिष्ट पदार्थों को पहुँचाने का कार्य करता है। यह परिसंचरण प्रणाली (circulatory system) के माध्यम से हृदय द्वारा लगातार पंप किया जाता है, जिससे शरीर के प्रत्येक भाग तक आवश्यक पोषक तत्व पहुँचते हैं। रक्त शरीर में कई महत्वपूर्ण कार्य करता है, जैसे संक्रमण से सुरक्षा प्रदान करना, शरीर के तापमान को नियंत्रित करना और अम्ल-क्षार के संतुलन को बनाए रखना। यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी सशक्त बनाता है और ऊतकों की मरम्मत में सहायता करता है।
रक्त मुख्य रूप से चार प्रमुख घटकों से मिलकर बना होता है:
1. लाल रक्त कोशिकाएँ (RBCs):
लाल रक्त कोशिकाएँ, जिन्हें इरिथ्रोसाइट्स (Erythrocytes) भी कहा जाता है, रक्त का सबसे महत्वपूर्ण घटक हैं। इन कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन नामक प्रोटीन पाया जाता है, जो ऑक्सीजन को फेफड़ों से शरीर के अन्य भागों तक ले जाता है। RBCs शरीर की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करती हैं।
2. श्वेत रक्त कोशिकाएँ (WBCs):
श्वेत रक्त कोशिकाएँ, जिन्हें ल्यूकोसाइट्स (Leukocytes) कहा जाता है, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं। ये शरीर में संक्रमण और हानिकारक सूक्ष्मजीवों से बचाव करती हैं तथा रोगों से लड़ने में सहायक होती हैं।
3. प्लाज्मा (Plasma):
प्लाज्मा रक्त का तरल भाग है, जो लगभग 55% रक्त की मात्रा बनाता है। इसमें पानी, प्रोटीन, लवण, हार्मोन और अपशिष्ट पदार्थ घुले होते हैं, जो शरीर के विभिन्न हिस्सों तक आवश्यक पोषक तत्वों को पहुँचाने और अवांछित पदार्थों को बाहर निकालने में सहायता करते हैं।
4. प्लेटलेट्स (Platelets):
प्लेटलेट्स, जिन्हें थ्रोम्बोसाइट्स (Thrombocytes) कहा जाता है, रक्त का थक्का जमाने में मदद करती हैं। चोट लगने पर प्लेटलेट्स सक्रिय होकर रक्तस्राव को रोकती हैं और घाव को भरने में सहायता करती हैं।
सूझ या अंतर्दृष्टि के सिद्धांत को विकसित करने के क्रम में उन्होंने कई जानवरों, जैसे- वनमानुष, बंदर, मुर्गी तथा कुत्तों पर कई प्रयोग किये। कोहलर द्वारा किये गए प्रयोगों में सबसे महत्त्वपूर्ण सुल्तान वनमानुष पर किया गया प्रयोग था। सुल्तान वनमानुष पर किये गए उनके प्रयोग में छड़ी समस्या एवं बॉक्स समस्या उल्लेखनीय हैं।
- प्रयोग 1: इस प्रयोग में कोहलर ने भूखे वनमानुष (सुल्तान) को एक बड़े पिंजरे में बंद कर दिया। पिंजरे के बाहर केले का गुच्छा लटकाया गया जिसे पिंजरे में रखी लंबी छड़ी द्वारा पाया जा सकता था। आरंभ में सुल्तान ने केले को पाने के लिये काफी उछल-कूद की। काफी समय उपरांत सुल्तान छड़ी के माध्यम से केले के गुच्छे को पिंजरे के पास खींचकर केला प्राप्त करने में सफल रहा।
- प्रयोग 2: इस प्रयोग में कोहलर ने भूखे वनमानुष (सुल्तान) को एक बड़े पिंजरें में बंद कर दिया जिसके ऊपरी भाग में काफी ऊँचाई पर केले का गुच्छा लटका हुआ था। पिंजरे में एक छोटी छड़ी और एक लंबी छड़ी थी जिन्हें आपस में जोड़कर केले तक पहुँचा जा सकता था। आरंभ में सुल्तान ने दोनों छड़ियों से खेलना शुरू किया फिर बाद में उसने लंबी छड़ियों से केले पाने का काफी प्रयास किया लेकिन वह असफल रहा। काफी समय उपरांत सुल्तान ने सूझ से काम लेते हुए दोनों छड़ियों को आपस में जोड़ दिया और केला पाने में सफल रहा।
- प्रयोग 3: इस प्रयोग में सुल्तान को एक ऐसे कमरे में बंद कर दिया गया था जिसकी दीवारों पर चढ़ा नहीं जा सकता था। कमरे की छत पर केले का गुच्छा लटका हुआ था और कमरे में कुछ बॉक्स रखे थे जिन्हें आपस में जोड़कर केले तक पहुँचा जा सकता है। आरंभ में सुल्तान ने केला पाने के लिये काफी उछल-कूद की किंतु सफलता नहीं मिलने पर वह थककर डिब्बों से खेलने लगा। खेलते-खेलते उसके दिमाग में विचार आया और वह बॉक्स को धक्का देते हुए केलों के गुच्छों के नीचे ले आया तथा बॉक्स पर चढ़कर एक छलांग लगाते हुए केले के गुच्छे को प्राप्त कर लिया।
असंगठित श्रमिक वे श्रमिक होते हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जैसे कि घर-आधारित श्रमिक, स्व-नियोजित श्रमिक या मजदूरी करने वाले श्रमिक। 2008 के सामाजिक सुरक्षा अधिनियम के तहत, ऐसे श्रमिकों को असंगठित श्रमिक माना जाता है। इसके अलावा, संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को भी असंगठित श्रमिक माना जा सकता है यदि वे प्रमुख श्रम कानूनों के अंतर्गत कवर नहीं होते, जैसे कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम (1923), औद्योगिक विवाद अधिनियम (1947), कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (1948), भविष्य निधि अधिनियम (1952), मातृत्व लाभ अधिनियम (1961), या ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम (1972)।
- असंगठित श्रमिकों के लिये पहल :
भारत सरकार ने असंगठित श्रमिकों के कल्याण के लिये कई योजनाओं और पहलों की शुरुआत की है :- ई-श्रम पोर्टल यह पोर्टल असंगठित श्रमिकों को ऑनलाइन पंजीकरण की सुविधा प्रदान करता है।
- अटल पेंशन योजना : इस योजना के तहत असंगठित श्रमिकों को पेंशन की सुरक्षा मिलती है।
- प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (PMJJBY) : इस योजना में असंगठित श्रमिकों को दुर्घटना बीमा प्रदान किया जाता है।
- प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन (PM-SYM) : यह योजना असंगठित श्रमिकों के लिये न्यूनतम पेंशन की गारंटी देती है।
- महात्मा गांधी बुनकर बीमा योजना : बुनकरों की सहायता के लिये एक विशेष बीमा योजना है।
- प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना : इस योजना के तहत असंगठित श्रमिकों को कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है।
- आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB-PMJAY) : यह योजना स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करती है, जिससे असंगठित श्रमिकों को सस्ती चिकित्सा सेवाएँ मिलती हैं।
इन पहलों का उद्देश्य असंगठित श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ, और अन्य कल्याणकारी सुविधाएँ प्रदान करना है।
केरल और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों ने हाल ही में केरल के वायकोम में पुनर्निर्मित थांथाई पेरियार स्मारक का उद्घाटन किया। यह स्मारक प्रसिद्ध तमिल समाज सुधारक और तर्कवादी नेता ई.वी. रामासामी नायकर, जिन्हें थांथाई पेरियार के नाम से जाना जाता है, के अभूतपूर्व योगदान का प्रतीक है।
- स्मारक का महत्त्व
- यह स्थल 'अछूत' समुदायों के अधिकारों के लिये पेरियार द्वारा किये गए संघर्ष को श्रद्धांजलि देता है।
- पेरियार ने वायकोम सत्याग्रह (अप्रैल 1924) में अहम भूमिका निभाई, जिसे भारत में शोषित वर्गों के अधिकारों के लिये पहला संगठित आंदोलन माना जाता है।
- सत्याग्रह के दौरान उन्हें दो बार जेल जाना पड़ा, जिसके चलते उन्हें 'वायकोम वीरन' (वायकोम का नायक) की उपाधि मिली।
- पुनर्निर्मित स्मारक में एक आधुनिक पुस्तकालय और प्रदर्शनी शामिल है, जो पेरियार की जीवनी, द्रविड़ आंदोलन के इतिहास और समकालीन नेताओं के साथ उनके संबंधों को दर्शाती है।
- पेरियार का योगदान
- वायकोम सत्याग्रह (1924-1925): यह आंदोलन 30 मार्च 1924 से 23 नवंबर 1925 तक केरल के वायकोम में चला। इसका उद्देश्य मंदिरों में प्रवेश पर जातिगत प्रतिबंधों को समाप्त करना था। इस आंदोलन का नेतृत्व टी.के. माधवन, के.पी. केशव मेनन, और के. केलप्पन जैसे महान नेताओं ने किया।
- द्रविड़ आंदोलन के संस्थापक: पेरियार ने आत्म-सम्मान आंदोलन और द्रविड़ कझगम की नींव रखी। उन्होंने सामाजिक समानता, तर्कवाद और शोषित वर्गों के आत्म-सम्मान के लिये संघर्ष किया।
यह स्मारक थांथाई पेरियार के सामाजिक न्याय और समानता के लिये किये गए प्रयासों का जीवंत प्रतीक है। यह नई पीढ़ी के लिये प्रेरणा और शिक्षा का स्रोत बनेगा।
इवान पॉवलॉव (1849-1936) एक महान रूसी मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने सीखने के क्लासिकल अनुबंधन सिद्धांत का प्रतिपादन किया। पाचन प्रक्रिया पर उनके शोध के लिये 1904 में उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था।
उन्होने कुत्तों में आमाशय या जठर रस (Gastric Juice) के स्राव की प्रक्रिया का अध्ययन किया तथा उनके निष्कर्षों ने सीखने के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया।
- पॉवलॉव का प्रयोग
- उन्होंने अपने प्रयोग में एक कुत्ते को स्वचालित उपकरणों से सुसज्जित प्रायोगिक मेज़ पर बाँधते हुए उसे भूखा रखा। कुत्ते को सहज रखते हुए उसका ध्यान हटाने वाले सभी विकर्षणों को बाहर रखने का प्रबंध किया गया। अपने प्रयोग में कुत्ते को स्वचालित उपकरणों के माध्यम से भोजन देने के दौरान एक घंटी भी बजाई जाती थी।
- भोजन को देखते ही कुत्ते की लार स्रावित होना स्वाभाविक था। एक दिन घंटी बजाई गई लेकिन खाना नहीं दिया गया। कुत्ते ने तब भी लार का स्राव किया। कुछ दिनों तक बिना भोजन दिये केवल घंटी बजाई गई, फिर भी यह देखा गया कि भोजन नहीं देने पर भी कुत्ते की स्रावित लार की मात्रा समान थी।
- कुत्ते की प्रतिक्रिया (लार का स्राव) को सामने लाने के लिये वास्तविक उद्दीपन भोजन था, लेकिन इसे इस तरह से अनुकूलित किया गया था कि एक अस्वाभाविक उद्दीपन, जिसका आमतौर पर लार के स्राव से कोई लेना-देना नहीं था, ने एक स्वाभाविक उद्दीपन की तरह कार्य करना प्रारंभ कर दिया था।
- इस प्रयोग में कुत्तें की लार निकलने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का संबंध अस्वाभाविक उद्दीपन (घंटी की आवाज़) में स्थापित हो गया था। इस प्रक्रिया को ही सीखने का क्लासिकल अनुबंधन सिद्धांत के रूप में वर्णित किया जाता है।
- अनुबंधन के सिद्धांत
अपने सिद्धांत की व्याख्या के लिये पॉवलॉव ने अनुबंधन के कुछ सिद्धांत दिये हैं जो कि निम्नलिखित हैं-- पुनर्बलन का सिद्धांत (Principle of Reinforcement) : यहाँ पुनर्बलन से आशय अवास्तविक उद्दीपन का वास्तविक उद्दीपन के अनुगामी होने से है; जैसे भोजन के लिये घंटी। पॉवलॉव के प्रयोग में भोजन एक पुनर्बलन है। भोजन के साथ घंटी को संबद्ध किये बिना कोई अनुबंधन विकसित नहीं की जा सकता था, यही पुनर्बलन है।
- अनुक्रम और समय अंतराल का सिद्धांत: अस्वाभाविक उद्दीपन और स्वाभाविक उद्दीपन की क्रिया के बीच एक इष्टतम समय होता है एवं इसमें यदि कोई भिन्नता (इष्टतम समय में वृद्धि या कमी) होती है तो कोई संबंध नहीं बन सकता है और कोई अनुबंधन नहीं होगा।
- उद्दीपन सामान्यीकरण का सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार, अगर हम एक चीज़, यानी घंटी के लिये अनुबंधित हैं, तो हम कमोबेश सभी प्रकार की घंटियों के लिये अनुबंधित होंगे। अनुबंधन द्वारा सीखने के शुरुआती चरणों में, जानवर ने सटीक अनुबंधन उद्दीपन के साथ संबंधित कई उद्दीपनों पर अपनी प्रतिकिया दी, किंतु उनकी प्रतिक्रिया अनुबंध उद्दीपन के लिये सबसे तीव्र थी और मूल उद्दीपन के समान अन्य उद्दीपनों के लिये क्रमश: घटती चली गई।
- विभेदन का सिद्धांत: जब दो उद्दीपन पर्याप्त रूप से अलग-अलग होते हैं, तो एक जीवित प्राणी को उनमें से किसी एक के प्रति प्रतिक्रिया करने के लिये अनुबंधित किया जा सकता है।
- सहज पुनर्प्राप्ति का सिद्धांत: यह सिद्धांत यह बताता है कि समय- अंतराल के कारण अनुबंधन का पूर्ण विलोपन नहीं होता है, लेकिन अनुबंधित प्रतिक्रिया में अवरोध आ जाता है। उदाहरण के लिये कुत्ते को प्रयोग के काफी समय के बाद पुन: उसी तरह के प्रयोग से गुज़ारा जाएगा तो कुत्ता पुन: अनुबंधित उद्दीपन पर प्रतिक्रिया देगा।
- निषेध का सिद्धांत: निषेध को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें एक उद्दीपन के द्वारा घटित होने वाली प्रक्रिया रुक जाती है। इसके दो प्रकार होते हैं- बाह्य निषेध (कुत्ते द्वारा अजनबी की उपस्थिति में अनुबंधित उद्दीपन के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करना) एवं आंतरिक निषेध (सहज पुनर्प्राप्ति अनुबंधन को कभी समाप्त नहीं होने देता)।
- अनुबंधन के उच्च क्रम का सिद्धांत: जब किसी पुराने उद्दीपन के आधार पर किसी नए उद्दीपन के लिये अनुबंधन किया जाता है तो इसे उच्च क्रम का अनुबंधन कहा जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा एक उद्दीपन को दूसरे उद्दीपन से जोड़कर अनुबंधन किया जा सकता है।
- द्वितीयक सुदृढ़ीकरण का सिद्धांत: अनुबंधित प्रतिक्रिया (CR) प्राथमिक उद्दीपन के अलावा कुछ उद्दीपनों के लिये स्थापित होती है, उदाहरण के लिये, भोजन को देखकर लार निकलना।
- उम्र और अनुबंधन का सिद्धांत: अनुबंधन की प्रक्रिया हर उम्र में महत्त्वपूर्ण होती है, विशेष रूप से बचपन में।अनुबंधन अनुक्रिया सिद्धांत शिक्षण-अधिगम की अनुदेशात्मक प्रविधियों के उपयोग पर अत्यधिक केंद्रित होता है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में श्रव्य-दृश्य साधनों के उपयोग में अनुबंधन सिद्धांत शामिल होता है।
- विश्व की प्रमुख झीलें :
- बैकाल झील (रूस) : विश्व की सबसे गहरी झील।
- ओनेगा और लाडोगा झीलें (रूस) : रूस की अन्य महत्वपूर्ण झीलें।
- कैस्पियन सागर : विश्व की सबसे बड़ी खारे पानी की झील। इसके उत्तरी भाग में कम लवणता है, जबकि दक्षिणी भाग में काराबुगास की खाड़ी में 140% लवणता पाई जाती है।
- मृत सागर (Dead Sea) : संसार की सबसे नीची झील, जिसकी तली सागर तल से 2500 फीट नीचे है।
- महत्वपूर्ण ऊँचाई पर स्थित झीलें :
- ठिसो सिकरू (तिब्बत) : विश्व की सबसे ऊँची झील।
- टिटिकाका झील (पेरू-बोलीविया) : विश्व की सबसे ऊँची नौकागम्य झील।
- देवताल (भारत) : गढ़वाल हिमालय में 17,745 फीट की ऊँचाई पर स्थित भारत की सबसे ऊँची झील।
- प्रमुख लवणीय झीलें :
- वॉन झील (तुर्की) : सर्वाधिक लवणता (330%)।
- मृत सागर (जॉर्डन) : लवणता 238%।
- ग्रेट साल्ट लेक (अमेरिका) : लवणता 220%।
- सीमा पर स्थित झीलें :
- अरल सागर : कजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान की सीमा पर, जिसमें अमूदरिया और सर दरिया नदियाँ गिरती हैं।
- विक्टोरिया झील : युगांडा, तंजानिया और केन्या की सीमा पर।
- न्यासा या मलावी झील : तंजानिया, मलावी और मोजाम्बिक की सीमा पर।
- टांगानिका झील : जायरे, तंजानिया और जांबिया की सीमा पर।
- उत्तरी अमेरिका की झीलें :
- ग्रेट लेक : सुपीरियर, ह्यूरन, मिशीगन, ओंटारियो और इरी।
- संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा की सीमा बनाती हैं (सुपीरियर, ह्यूरन, इरी और ओंटारियो)।
- मिशीगन झील केवल अमेरिका में स्थित है।
- सुपीरियर झील : मीठे पानी की विश्व की सबसे बड़ी झील।
- ग्रेट स्लैव, ग्रेट बीयर, रेडियर, विनिपेग और अथावास्का झीलें (कनाडा) :
- अथावास्का झील : यूरेनियम सिटी के निकट।
- ग्रेट बीयर झील : पोर्ट रेडियम के निकट।
- ग्रेट स्लैव झील : येलोनाइफ सिटी के तट पर।
- ग्रेट लेक : सुपीरियर, ह्यूरन, मिशीगन, ओंटारियो और इरी।
- अन्य प्रमुख झीलें :
- लेक आयर (ऑस्ट्रेलिया) : महत्वपूर्ण झील।
- लेक चाड (अफ्रीका) : चाड, कैमरून, नाइजीरिया और नाइजर की सीमा पर।
- लोपनोर झील (चीन) : यहाँ चीन का परमाणु परीक्षण संस्थान स्थित है।
- मानव निर्मित झीलें :
- ओनकाल (युगांडा) : मानव निर्मित विशाल झील।
- हाई स्वान (मिस्र) : एक और विशाल मानव निर्मित झील।
- परिवहन और औद्योगिक महत्व :
- उत्तरी अमेरिका की महान झीलें (सुपीरियर, ह्यूरन, मिशीगन, ओंटारियो, इरी) परिवहन और औद्योगिक महत्व के लिये प्रसिद्ध हैं।
शिक्षा मनुष्य के विकास की प्रक्रिया है। चिंतन क्षमता में सुधार करके बौद्धिक या मानसिक विकास को गति प्रदान की जा सकती है। चिंतन प्रक्रिया में सुधार के संदर्भ में शिक्षक को अपने विद्यार्थियों को बेहतर चिंतन उपकरणों को समझाने का प्रयास करना चाहिये।
- विद्यालय की भूमिका : चिंतन क्षमता में सुधार के लिये शिक्षण और निर्देशन की योजना बनाई और व्यवस्थित की जाती है। चिंतन क्षमता में सुधार के लिये उपयोग किये जाने वाले शिक्षण और निर्देशन उपकरण निम्नलिखित हैं-
- शिक्षण और निर्देशन के उद्देश्य
- पाठ्यक्रम परिवर्द्धन
- पाठ्यपुस्तकें और निर्देशात्मक सामग्री तैयार करना
- शिक्षण के तरीके और शिक्षण की तकनीक
- शिक्षण के मॉडल
- मूल्यांकन और निदान
- उपचारात्मक शिक्षण और निर्देशन
- शिक्षक की भूमिका : विद्यार्थियों में चिंतन के विकास में शिक्षक की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है। शिक्षक द्वारा निम्नलिखित उपागमों को अपनाकर विद्यार्थियों में चिंतन को प्रोत्साहित किया जा सकता है-
- विचारणीय कौशलों के विकास और विचाराधीन विषयवस्तु की निपुणता को बढ़ावा देने वाली शिक्षण तकनीक का प्रयोग।
- विद्यार्थियों को प्रभावी क्रियाकलापों पर चिंतन करने के लिये प्रोत्साहित करना।
- विद्यार्थियों को चिंतन के संदर्भ में स्वयं से वार्तालाप को प्रोत्साहित करना।
- विद्यार्थियों को बुनियादी कौशल सीखने में मदद करना जिससे वे चिंतन में पर्याप्त समय दे सकें।
- चिंतन कौशलों की सशर्त प्रकृति को पहचानने एवं उनके उपयोग के संदर्भ में विद्यार्थियों की मदद करना।
- पाठ्य-विषय के आंतरिक एवं बाह्य संबंधों और अर्जित ज्ञान के एकीकरण को प्रोत्साहन देना।
- विद्यार्थियों द्वारा अपनी समझ के सही मूल्यांकन के संदर्भ में फीडबैक प्रदान करना।
- रणनीतियों के ज्ञान के साथ-साथ रणनीतियों के महत्त्व और उनके उपयोग को बढ़ावा देना।
- सूचना संसाधित करने के तरीकों और गहन चिंतन को पाड़ (Scaffolding) उपलब्ध करवाना।
- बाहरी उद्दीपनों पर अत्यधिक निर्भरता को न्यूनतम करते हुए स्व-नियमन को प्रोत्साहित करना।
- भावात्मक या व्यक्तित्त्व पहलुओं के साथ-साथ चिंतन कौशल के संज्ञानात्मक घटकों पर ध्यान देना।
जटिल कार्बोहाइड्रेट्स शर्करा अणुओं की लंबी श्रृंखलाओं से बने होते हैं, जिन्हें पॉलीसैकराइड्स कहा जाता है। साधारण कार्बोहाइड्रेट्स के विपरीत इनका पाचन धीरे-धीरे होता है, जिससे ऊर्जा का निरंतर प्रवाह बना रहता है। इनमें मुख्य रूप से स्टार्च और फाइबर होते हैं, जो शरीर के विभिन्न कार्यों के लिये आवश्यक होते हैं।
जटिल कार्बोहाइड्रेट्स की प्रमुख विशेषताएँ :
- संरचना और प्रकार :
- लंबी शर्करा चेन : जटिल कार्बोहाइड्रेट्स में कई शर्करा इकाइयाँ आपस में जुड़ी होती हैं। ये मुख्य रूप से स्टार्च (जो पचने योग्य है) और फाइबर (जो पचने योग्य नहीं है) से बने होते हैं।
- प्रकार :
- स्टार्च : ऊर्जा प्रदान करते हैं और अनाज और सब्जियों में पाए जाते हैं।
- फाइबर : पाचन में मदद करता है और आंतों की सेहत को बेहतर बनाता है।
- जटिल कार्बोहाइड्रेट्स के स्रोत :
- अनाज : ब्राउन राइस, ओट्स, क्विनोआ, जौ, गेहूँ की रोटी।
- दालें : बीन्स, मसूर, चना, मटर।
- सब्जियाँ : शकरकंद, गाजर, मक्का।
- फल : सेब, केले, और बेरीज।
- नट्स और बीज : बादाम, अखरोट, फ्लैक्ससीड्स, चिया सीड्स।
- स्वास्थ्य लाभ :
- धीमा ऊर्जा प्रवाह : पाचन में समय लगता है, जिससे पूरे दिन ऊर्जा मिलती है।
- बेहतर पाचन : फाइबर की उच्च मात्रा पाचन में मदद करती है और आंतों की कार्यप्रणाली को स्वस्थ्य बनाये रखती है।
- वजन नियंत्रण : फाइबर भूख को नियंत्रित करता है जिससे लंबे समय तक भूख नहीं लगती है तथा वजन नियंत्रण में मदद मिलती है।
- रक्त शर्करा नियंत्रण : जटिल कार्बोहाइड्रेट्स का धीरे-धीरे पाचन ब्लड शुगर के स्तर में तेजी से वृद्धि और गिरावट से बचाता है।
- उच्च पोषक मूल्य :
- पोषक तत्वों से भरपूर : जटिल कार्बोहाइड्रेट्स से भरपूर खाद्य पदार्थों में विटामिन (B विटामिन) और खनिज (जैसे लौह, मैग्नीशियम) होते हैं, जो शरीर के विभिन्न कार्यों के लिये आवश्यक हैं।
- लो ग्लाइसेमिक इंडेक्स : अधिकांश जटिल कार्बोहाइड्रेट्स का ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होता है, यानी ये ब्लड शुगर में तेजी से वृद्धि नहीं करते हैं, जैसे कि साधारण कार्बोहाइड्रेट्स करते हैं।
जटिल कार्बोहाइड्रेट्स एक स्वस्थ आहार का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये न केवल ऊर्जा प्रदान करते हैं, बल्कि पाचन में मदद करते हैं, वजन को नियंत्रित करते हैं और ब्लड शुगर के स्तर को स्थिर रखते हैं। संपूर्ण खाद्य पदार्थों से भरपूर जटिल कार्बोहाइड्रेट्स को अपने आहार में शामिल करके आप दीर्घकालिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
बच्चों में चिंतन प्रक्रिया की निम्नलिखित तरीके से व्याख्या की जा सकती है-
- प्रत्यक्षीकरण और अभिव्यक्ति (Manifestation and Expression): बच्चे किसी वस्तु और स्थिति का अवलोकन भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से करते हुए इन वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से अपने ज्ञान और चिंतन को विकसित करते हैं।
- संप्रत्ययीकरण या संकल्पना निर्धारण (Conceptualisation): एक बच्चा वज़न, समय, दूरी, संख्या आदि जैसी विभिन्न अवधारणाओं के संदर्भ में अपने संप्रत्ययीकरण को विकसित करता है।
- अनुभव (Experience): एक बच्चा अपने स्वयं के अच्छे या बुरे अनुभवों से सीखते हुए किसी विषयवस्तु के संदर्भ में स्वयं की अवधारणा को विकसित करता है।
- रुचि एवं जिज्ञासा (Interests and Curiosity): बच्चे जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं जिससे वे अपनी रुचियों और इच्छाओं के संदर्भ में सोचने के नए तरीके विकसित करते हैं।
- अनुकरण (Copying): कार्यों को संपादित करने एवं समाज में विभिन्न भूमिकाओं के संदर्भ में बालक अनुकरण करते हुए कार्यों को संपादित करता है एवं कार्यों और भूमिकाओं के संदर्भ में अपनी सोच को विकसित और परिमार्जित करता है।
- तर्क और विचार (Logic and Reasoning): बच्चे विभिन्न समस्या समाधान या विभिन्न परिस्थितियों में कई प्रकार के तर्क और विचारों के माध्यम से चिंतन करते हैं। तर्क और विचार बच्चे की भाषा के ज्ञान के अनुसार विकसित होते हैं।
खोंड विद्रोह भारत में जनजातीय प्रतिरोध के शुरुआती और संगठित प्रयासों में से एक था। यह विद्रोह ओडिशा से लेकर आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम और विशाखापट्टनम जिलों तक के पहाड़ी क्षेत्रों में हुआ।
विद्रोह के कारण :
- जनजातीय परंपराओं में हस्तक्षेप : ब्रिटिश प्रशासन ने खोंड जनजाति की धार्मिक और सामाजिक परंपराओं में हस्तक्षेप किया।
- करों का थोपना : ब्रिटिश सरकार द्वारा नए कर लगाए गए, जिससे जनजातियों पर आर्थिक दबाव बढ़ा।
- जमींदारों का हस्तक्षेप : जमींदारों को जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश की अनुमति दी गई, जिससे उनकी स्वायत्तता पर चोट पहुंची।
नेतृत्व और विद्रोह :
- चक्र बिसोई का नेतृत्व : चक्र बिसोई ने चुमसर, कालाहांडी और अन्य जनजातियों को संगठित कर विद्रोह का नेतृत्व किया।
- गुरिल्ला रणनीति : खोंड जनजातियों ने पहाड़ी क्षेत्रों का उपयोग कर ब्रिटिश प्रशासन को चुनौती दी।
परिणाम :
- चक्र बिसोई के नेतृत्व के अंत के साथ यह विद्रोह समाप्त हो गया।
1914 का पुनरुत्थान :
- 1914 में खोंड जनजाति ने विदेशी शासन को समाप्त करने और स्वायत्त सरकार प्राप्त करने की आशा में ओडिशा क्षेत्र में फिर से विद्रोह किया।
दो पृष्ठों से घिरा हुआ कोई पारदर्शी माध्यम, जिसके एक या दोनों पृष्ठ गोलीय हैं, ‘लेंस’ कहलाता है। इसका अर्थ यह है लेंस का कम से कम एक पृष्ठ गोलीय होता है। लेंस के पृष्ठों की संरचना के आधार पर विभिन्न प्रकार के लेंस बनते हैं। लेंस के उभरे हुए गोलीय पृष्ठ को उत्तल (Convex) और धँसे हुए गोलीय पृष्ठ को अवतल (Concave) कहा जाता है।
- विभिन्न संयोजनों से बने लेंसों के प्रकार निम्नलिखित हैं:
- द्वि-उत्तल लेंस (Biconvex Lens): इसमें दोनों पृष्ठ उत्तल होते हैं। यह लेंस आमतौर पर प्रकाश को एक बिंदु पर एकत्रित करता है।
- समतलोत्तल लेंस (Plano-convex Lens): इस लेंस का एक पृष्ठ उत्तल होता है, जबकि दूसरा समतल होता है। यह लेंस प्रकाश की किरणों को एकत्रित करने का कार्य करता है।
- अवतलोत्तल लेंस (Concavo-convex Lens): इसमें एक पृष्ठ उत्तल और दूसरा पृष्ठ अवतल होता है। यह लेंस वस्तु की छाया का आकार छोटा करने के लिए उपयोग में लाया जाता है।
- उभयावतल लेंस (Biconcave Lens): दोनों पृष्ठ अवतल होते हैं। यह लेंस प्रकाश किरणों को फैलाने का काम करता है।
- समतलावतल लेंस (Plano-concave Lens): इसमें एक पृष्ठ अवतल और दूसरा पृष्ठ समतल होता है। यह लेंस प्रकाश को फैलाने में सहायक होता है।
- उत्तलावतल लेंस (Convex-concave Lens): एक पृष्ठ उत्तल और दूसरा पृष्ठ अवतल होता है। यह लेंस प्रकाश की किरणों को फैलाने और एकत्रित करने दोनों कार्यों को करता है।
लेंसों का उपयोग प्रकाश की दिशा को नियंत्रित करने, छायांकन, और इमेज निर्माण में व्यापक रूप से किया जाता है, जैसे कि कैमरा, चश्मे, माइक्रोस्कोप और टेलीस्कोप में।
पर्वत पृथ्वी की सतह पर प्रमुख द्वितीयक स्थलरूप हैं, जो तीव्र ढलान और संकीर्ण शिखरों के लिये जाने जाते हैं। ये सामान्यतः अपने आसपास के क्षेत्रों से 1,000 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं, जबकि इससे कम ऊँचाई वाले स्थलरूप पहाड़ियाँ कहलाते हैं। पर्वत पृथ्वी की भौगोलिक संरचना और पारिस्थितिकी तंत्र को गहराई से प्रभावित करते हैं।
- मुख्य शब्दावली
- पर्वत शिखर: किसी पर्वत का सर्वोच्च बिंदु या चोटी, जो इसे सबसे अलग पहचान देती है।
- पर्वत श्रेणी: एक ही भूवैज्ञानिक काल में बनी पर्वतों की श्रृंखला, जो संकरी पट्टी के रूप में विस्तारित होती है। इसमें कई शिखर और घाटियाँ होती हैं।
- पर्वत श्रृंखला: यह विभिन्न समानांतर पर्वत श्रेणियों और अलग-थलग पर्वतों का समूह है, जो विभिन्न भूवैज्ञानिक कालों में बने होते हैं।
- पर्वत समूह: यह पर्वत तंत्रों का संग्रह है, जो कई भूवैज्ञानिक युगों में बने पर्वतों और पहाड़ियों से मिलकर बनता है।
- कार्डिलेरा: यह एक विशाल पर्वतीय प्रणाली है, जिसमें कई पर्वत समूह और श्रेणियाँ शामिल होती हैं। उत्तरी अमेरिका का प्रशांत तटीय कार्डिलेरा इसका प्रमुख उदाहरण है।
पर्वत पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र और मानव जीवन के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। वे संसाधन प्रदान करने, जलवायु को नियंत्रित करने और विविध प्रजातियों का निवास स्थान बनने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। उनका अध्ययन पृथ्वी की भूवैज्ञानिक और पारिस्थितिकीय प्रक्रियाओं को समझने में मदद करता है।
भारत के औद्योगिक परिदृश्य, विशेष रूप से इस्पात निर्माण के क्षेत्र में विश्व के विभिन्न मित्र राष्ट्रों का सहयोग रहा है। देशभर में इस्पात संयंत्रों की स्थापना अन्य राष्ट्रों द्वारा प्रदान की गई तकनीकी मदद, विशेषज्ञता और संसाधनों के कारण संभव हुई। यहाँ प्रमुख इस्पात संयंत्रों और उनके सहयोगी देशों का विवरण दिया गया है, जिन्होंने इन संयंत्रों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- भिलाई इस्पात संयंत्र (छत्तीसगढ़)
- सहयोगी देश: सोवियत संघ (रूस)
- भिलाई इस्पात संयंत्र, जो छत्तीसगढ़ में स्थित है, भारत के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण इस्पात उत्पादन संयंत्रों में से एक है। इसे 1950 के दशक में सोवियत संघ के सहयोग से स्थापित किया गया था। सोवियत संघ ने इस संयंत्र की स्थापना में तकनीकी सहायता, प्रशिक्षित श्रमिक और उपकरण प्रदान किये थे।
- राउरकेला इस्पात संयंत्र (ओडिशा)
- सहयोगी देश: जर्मनी
- राउरकेला इस्पात संयंत्र, ओडिशा में स्थित, भारत का पहला एकीकृत इस्पात संयंत्र है, जिसे विदेशी सहयोग से स्थापित किया गया था। जर्मनी ने इस संयंत्र की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, विशेष रूप से तकनीकी और मशीनरी प्रदान करने में। यह संयंत्र 1959 से परिचालन में आया और भारत के इस्पात उद्योग का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।
- बोकारो इस्पात संयंत्र (झारखंड)
- सहयोगी देश: सोवियत संघ (रूस)
- बोकारो इस्पात संयंत्र, जो झारखंड में स्थित है, सोवियत संघ के सहयोग से स्थापित किया गया था। इस संयंत्र को सोवियत संघ ने तकनीकी सहायता और मार्गदर्शन प्रदान किया। इस संयंत्र में 1970 के दशक में उत्पादन शुरू हुआ जिसका भारत के इस्पात उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान है।
- दुर्गापुर इस्पात संयंत्र (पश्चिम बंगाल)
- सहयोगी देश: यूनाइटेड किंगडम (यू.के.)
- दुर्गापुर इस्पात संयंत्र, जो पश्चिम बंगाल में स्थित है, ब्रिटेन के सहयोग से स्थापित हुआ था। ब्रिटेन ने इस संयंत्र की स्थापना में तकनीकी विशेषज्ञता और मशीनरी का समर्थन किया। यह संयंत्र 1959 से परिचालन में है और भारत की बढ़ती इस्पात मांग को पूरा करने में अहम भूमिका निभा रहा है।
इन प्रमुख इस्पात संयंत्रों की स्थापना भारत के औद्योगिक विकास के लिये महत्वपूर्ण रही है। सोवियत संघ, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों के सहयोग ने भारत के इस्पात उद्योग को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे देश को आवश्यक तकनीकी संसाधन, बुनियादी ढाँचा और विशेषज्ञता प्राप्त हुई।
गठन, संरचना और आरक्षण
पंचायती राज व्यवस्था भारत के विकेंद्रीकृत शासन संरचना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जो जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक भागीदारी सुनिश्चित करती है। भारतीय संविधान ने पंचायती राज की स्थापना, संरचना और कार्यवाही के लिये अनुच्छेद 243B से 243E के तहत स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं। ये प्रावधान पंचायतों के गठन, संरचना और कार्य संचालन पर केंद्रित हैं, जिसमें ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर शामिल हैं।
मुख्य अनुच्छेद :
- पंचायतों का गठन (अनुच्छेद 243B) : प्रत्येक राज्य को ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर पर पंचायतों का गठन करना अनिवार्य है। जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख या उससे अधिक है, वहाँ मध्यवर्ती पंचायतों का गठन करना आवश्यक है, ताकि हर स्तर पर उचित प्रतिनिधित्व और शासन सुनिश्चित किया जा सके।
- पंचायतों की संरचना (अनुच्छेद 243C) : राज्य विधानमंडल पंचायतों की संरचना और गठन के संदर्भ में विधिक प्रावधान बना सकता है। संरचना इस प्रकार होती है :
- ग्राम स्तर : ग्राम पंचायत – जो प्रधान/मुखिया/सरपंच द्वारा संचालित होती है और इसमें प्रत्यक्ष चुनाव होते हैं।
- खंड स्तर : क्षेत्र पंचायत – जो प्रमुख द्वारा संचालित होती है और इसमें अप्रत्यक्ष चुनाव होते हैं।
- जिला स्तर : जिला पंचायत – जो अध्यक्ष/चेयरमैन द्वारा संचालित होती है और इसमें अप्रत्यक्ष चुनाव होते हैं।
- स्थानों का आरक्षण (अनुच्छेद 243D) :
- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और महिलाओं के लिये आरक्षण अनिवार्य है।
- प्रत्येक पंचायत में महिलाओं के लिये कम से कम एक तिहाई स्थान आरक्षित किये गए हैं, जिसे राज्य विधानमंडल बढ़ा सकता है, लेकिन घटा नहीं सकता।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये प्रत्येक पंचायत क्षेत्र में उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आरक्षित की जाएंगी ।
- आरक्षित सीटों में से कम से कम एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिये आरक्षित होंगे।
उपर्युक्त प्रावधान सुनिश्चित करते हैं कि पंचायती राज प्रणाली में हर वर्ग और महिला को उचित प्रतिनिधित्व मिले, जिससे स्थानीय शासन अधिक समावेशी और प्रभावी हो सके।
12वीं से 18वीं शताब्दी तक के प्रमुख शासकों और साम्राज्यों का विश्लेषण
मध्यकालीन भारतीय इतिहास का कालखंड 8वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी तक का है, जिसमें कई महत्वपूर्ण राजवंशों का उदय और पतन हुआ। इन राजवंशों ने भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिदृश्य को आकार दिया और इस समय की शासकीय संरचनाओं, सांस्कृतिक धरोहरों और साम्राज्य निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- दिल्ली सल्तनत (1206 - 1526 ई.)
- गुलाम वंश (1206 - 1290 ई.)
गुलाम वंश की स्थापना कुतुब-उद-दीन ऐबक ने की थी, जो मुहम्मद गौरी का पूर्व गुलाम था। यह वंश दिल्ली सल्तनत की शुरुआत का प्रतीक था। इसके प्रमुख शासक थे:- इल्तुतमिश (1211-1236 ई.): दिल्ली सल्तनत को संगठित किया और राज्य के प्रशासनिक ढाँचे को मजबूत किया।
- रजिया सुल्तान (1236-1240 ई.): पहली महिला सुल्तान, जिन्होंने दिल्ली में शासन किया।
- खिलजी वंश (1290 - 1320 ई.)
खिलजी वंश अपने महत्त्वपूर्ण सैन्य अभियानों और राज्य विस्तार के लिये जाना जाता है।- अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई.): इस वंश का प्रमुख सशक जिसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया और मंगोल आक्रमणों से साम्राज्य की रक्षा की।
- तुगलक वंश (1320 - 1414 ई.)
तुगलकों ने दिल्ली सल्तनत के विस्तार को जारी रखा, लेकिन उनके कुछ प्रयोग विफल रहे।- मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ई.): राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरित करने का विफल प्रयास और अन्य कई प्रयोगों के लिये प्रसिद्ध।
- सैय्यद वंश (1414 - 1451 ई.)
यह वंश तुगलकों के पतन के बाद आया था। इसका शासनकाल छोटा और सीमित क्षेत्रीय नियंत्रण वाला था, मुख्य रूप से दिल्ली के आसपास। - लोदी वंश (1451 - 1526 ई.)
- दिल्ली सल्तनत का अंतिम वंश, जिसे बहलोल लोदी ने स्थापित किया था।
- इब्राहीम लोदी (1517–1526 ई.): इसका शासन पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर के हाथों हारकर समाप्त हो गया, जिससे मुगल साम्राज्य की नींव पड़ी।
- गुलाम वंश (1206 - 1290 ई.)
- विजयनगर साम्राज्य (14वीं - 17वीं शताब्दी)
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में हरिहर और बुक्का राय नामक दो भाईयों ने की थी। यह दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली हिंदू राज्य था।- कृष्णदेव राय (1509–1529 ई.): यह इस साम्राज्य के प्रमुख शासक थे, जिसके शासनकाल को विजयनगर साम्राज्य का स्वर्णिम युग माना जाता है। उन्होंने सांस्कृतिक और सैन्य दोनों दृष्टियों से साम्राज्य की उन्नति को दिशा दी।
- मुगल साम्राज्य (1526 - 1857 ई.)
मुगल साम्राज्य की नींव बाबर ने 1526 में इब्राहीम लोदी को हराकर रखी। मुगलों ने भारतीय उपमहाद्वीप में एक केंद्रीकृत शासन प्रणाली विकसित की, और उनकी स्थापत्य कला, संस्कृति और प्रशासन के तरीके ने भारतीय इतिहास पर गहरा प्रभाव डाला। - मुगल साम्राज्य के प्रमुख शासक:
- बाबर (1526–1530 ई.): मुगल वंश का संस्थापक, जिसने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराया।
- हुमायूँ (1530–1540 और 1555–1556 ई.): कुछ समय के लिये सत्ता से बाहर रहे, लेकिन बाद में उन्होंने इसे पुनः प्राप्त किया।
- अकबर (1556–1605 ई.): सम्राट अकबर का शासनकाल सबसे महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने साम्राज्य का विशाल विस्तार किया और एक धार्मिक रूप से सहिष्णु प्रशासन की नींव रखी।
- जहाँगीर (1605–1627 ई.): कला और संस्कृति के प्रति अपनी निष्ठा के लिये प्रसिद्ध।
- शाहजहाँ (1628–1658 ई.): ताज महल जैसे भव्य स्थापत्य की रचना के लिये प्रसिद्ध।
- औरंगजेब (1658–1707 ई.): मुगलों का अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक, जिसने साम्राज्य के विस्तार के बावजूद धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा दिया। उनके शासन के बाद साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया।
- मराठा संघ (17वीं - 18वीं शताब्दी)
शिवाजी महाराज (1630-1680 ई.) के नेतृत्व में मराठों ने मुगलों के पतन के समय एक शक्तिशाली संघ की स्थापना की। मराठों ने पश्चिमी और मध्य भारत में अपनी सत्ता स्थापित की और मुगलों के खिलाफ संघर्ष किया, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में एक नया राजनीतिक परिदृश्य उत्पन्न हुआ।
संक्षेप में, मध्यकालीन भारत के राजवंशों ने न केवल भारत के राजनीतिक ढाँचे को आकार दिया, बल्कि सांस्कृतिक, प्रशासनिक और स्थापत्य की दृष्टि से भी भारतीय समाज को एक नई दिशा दी। इन शासकों और साम्राज्यों की विरासत आज भी भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
जब ध्वनि तरंगें किसी अवरोध, जैसे दीवार या वस्तु, से टकराती हैं, तो वे अवरोध के किनारों से मुड़कर आगे बढ़ती हैं। इसे ध्वनि का विवर्तन कहा जाता है। यह एक सामान्य परिघटना है, जो तरंगों के फैलने और उनके व्यवहार को समझने में मदद करती है। यह ध्वनि की तरंगदैर्ध्य और अवरोध के आकार पर निर्भर करता है। लंबे तरंगदैर्ध्य वाली ध्वनि तरंगें, जो निम्न आवृत्ति की होती हैं, अधिक प्रभावी ढंग से विवर्तन करती हैं। इसके विपरीत, उच्च आवृत्ति वाली तरंगें (छोटी तरंगदैर्ध्य) विवर्तन में कम सक्षम होती है।
उदाहरण:
बंद कमरे के बाहर से आने वाली आवाज़ का अंदर सुनाई देना।
- मुख्य बिंदु:
- तरंगदैर्ध्य का प्रभाव:
- निम्न आवृत्ति (लंबी तरंगदैर्ध्य): अधिक प्रभावी विवर्तन।
- उच्च आवृत्ति (छोटी तरंगदैर्ध्य): विवर्तन की क्षमता कम।
- तरंगदैर्ध्य का प्रभाव:
- महत्व:
- अवरोधों के पीछे ध्वनि का पहुँचना।
- दैनिक जीवन में ध्वनि के फैलने को समझने में सहायक।
विवर्तन केवल ध्वनि तक सीमित नहीं है; यह अन्य प्रकार की तरंगों, जैसे प्रकाश और जल तरंगों, के लिये भी लागू होता है। ध्वनि के विवर्तन का प्रभाव हमारे रोजमर्रा के जीवन में स्पष्ट रूप से अनुभव होता है, जैसे दूर से आती आवाज़ का सुनाई देना। यह परिघटना ध्वनि की पहुँच और प्रसार को समझने में सहायक है।
नदी द्वारा घाटी में ऊर्ध्वाकार काट (vertical erosion) करने के कारण घाटी पतली, गहरी और 'V' आकार की हो जाती है। इसमें दीवारों का ढाल तीव्र और उत्तल होता है। घाटी में थोड़ा क्षैतिज अपरदन (horizontal erosion) भी होता है, लेकिन घाटी को गहरा करने की प्रक्रिया सबसे महत्वपूर्ण होती है।
V आकार की घाटी के प्रकार
- गॉर्ज (Gorge):
बहुत गहरी और संकीर्ण घाटी को गॉर्ज या कंदरा कहते हैं। कभी-कभी प्रपातों के तेज गति से पीछे हटने के कारण भी गॉर्ज का निर्माण होता है। भारत में सिन्धु गॉर्ज, शिपकीला गॉर्ज, और दिहांग गॉर्ज प्रसिद्ध हैं, जो क्रमशः सिन्धु, सतलज और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा निर्मित हैं। - कैनियन (Canyon):
गॉर्ज का विस्तृत रूप कैनियन कहलाता है। यह घाटी अपेक्षाकृत खड़ी ढाल वाली होती है, और इसे संकीर्ण नदी कंदरा भी कहा जाता है।- उदाहरण : विश्व में कैनियन का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण ग्रैंड कैनियन है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलोरेडो नदी पर स्थित है। यह अपनी विशालता और अद्वितीय भौगोलिक संरचना के लिये प्रसिद्ध है।
नदी द्वारा निर्मित घाटियाँ 'V' आकार की होती हैं, जो गॉर्ज और कैनियन के रूप में विभिन्न आकारों में विकसित होती हैं। ये स्थलरूप नदी के अपरदन की प्रक्रिया का परिणाम हैं, और विश्वभर में ये अपनी प्राकृतिक सुंदरता और विविधता के लिये प्रसिद्ध हैं।
- उदाहरण : विश्व में कैनियन का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण ग्रैंड कैनियन है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलोरेडो नदी पर स्थित है। यह अपनी विशालता और अद्वितीय भौगोलिक संरचना के लिये प्रसिद्ध है।
शिक्षाविदों एवं मनोवैज्ञानिकों के द्वारा कई ऐसे सुझाव प्रस्तुत किये गए हैं जिनके माध्यम से शिक्षक बच्चों में सृजनात्मकता का विकास कर सकते हैं। इन सुझावों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
- शिक्षक को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में बच्चों को सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये प्रेरित करना चाहिये।
- शिक्षक को बच्चों की अधूरी जानकारी एवं भ्रांतियों का पता लगाते हुए उन्हें दूर करने के लिये बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिये।
- बच्चों के कल्पनात्मक विचारों का सम्मान करते हुए उन्हें अपने विचारों का अन्वेषण करने और नवीन तथ्यों की खोज के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।
- किसी विषय पर चर्चा में बच्चों को चित्रकारी, काल्पनिक कथाओं आदि के प्रयोग के माध्यम से विस्तारपूर्वक वर्णन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- बच्चों को दूसरों के विचारों, किसी कहानी या अवधारणा को नए तरीकों से पुनर्गठित करने और पुन: प्रस्तुति हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- शिक्षक के द्वारा कक्षा में समस्या प्रस्तुत करते हुए बच्चों को समस्या-समाधान में शामिल करके उनसे समाधान हेतु सुझाव मांगने चाहिये।
- कक्षा में विभिन्न शैक्षणिक गतिविधियों जैसे शब्द निर्माण, वाक्य को पूरा करना, पर्यायवाची और विलोम आदि का प्रयोग करना चाहिये।
- बच्चों को पाठ्यक्रम से संबंधित जटिल प्रश्नों और स्थितियों के समाधान ढूँढ़ने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।
- विद्यार्थियों को उद्दीपन प्रदान करने वाले प्रश्न पूछना चाहिये जिससे वे किसी विषयवस्तु के बारे में विभिन्न और नए तरीकों से जाँच करने के लिये प्रोत्साहित हों।
- बच्चों के कठिन, जटिल और असामान्य प्रश्नों का सम्मान करना चाहिये और ऐसे बच्चों पर ध्यान देना चाहिये।
- कलात्मक विचारों, बच्चों की कल्पना और उनकी जिज्ञासा का सम्मान करते हुए बच्चों में जिज्ञासा, पूछताछ और प्रयोग जैसे उपागमों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- ऐसे विद्यार्थियों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये जो समस्या-समाधान, जटिल प्रश्नों और चुनौतियों का सामना करने में रुचि दिखाते हैं।
तरंग वह विक्षोभ है, जो ऊर्जा को किसी माध्यम या निर्वात में एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरित करता है। तरंगों के माध्यम से ऊर्जा और विक्षोभ के पैटर्न का संचरण होता है। तरंगों को मुख्य रूप से दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है:
1. यांत्रिक तरंगें
2. विद्युत चुंबकीय तरंगें
- यांत्रिक तरंगें
यांत्रिक तरंगें वे तरंगें होती हैं, जिन्हें संचरण के लिए किसी भौतिक माध्यम की आवश्यकता होती है। ये माध्यम के कणों के स्थानांतरण के बिना ही ऊर्जा का एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरण करती हैं। - उदाहरण:
- ध्वनि तरंगें
- भूकंपीय तरंगें
- जल तरंगें
- यांत्रिक तरंगों का संचरण
यांत्रिक तरंगों का संचरण ठोस, द्रव, या गैस किसी भी माध्यम में हो सकता है। इनका संचरण माध्यम के दो गुणों पर निर्भर करता है:- माध्यम की प्रत्यास्थता (Elasticity)
- माध्यम का जड़त्व (Inertia)
- यांत्रिक तरंगों के प्रकार
- अनुप्रस्थ तरंगें (Transverse Waves)
यदि माध्यम के कण तरंग संचरण की दिशा के लंबवत् (Perpendicular) कंपन करते हैं, तो इसे अनुप्रस्थ तरंग कहते हैं।- माध्यम के कणों का अधिकतम विस्थापन ऊपर की ओर शृंग (Crest) कहलाता है।
- अधिकतम विस्थापन नीचे की ओर गर्त (Trough) कहलाता है।
- शृंग और गर्त तरंग संचरण की दिशा में आगे बढ़ते रहते हैं।
अनुप्रस्थ तरंगों का संचरण केवल उन माध्यमों में होता है, जिनमें दृढ़ता (Rigidity) हो। इसलिये ये तरंगें ठोसों में या द्रव की सतह पर तो संचरित हो सकती हैं, लेकिन तरल और गैस में नहीं।
- उदाहरण:
- जल तरंगें
- भूकंपीय S-तरंगें
- अनुदैर्ध्य तरंगें (Longitudinal Waves)
यदि माध्यम के कण तरंग संचरण की दिशा में ही कंपन करते हैं, तो इसे अनुदैर्ध्य तरंग कहते हैं।- संपीड़न (Compression): जहाँ माध्यम के कण सामान्य से अधिक पास-पास होते हैं।
- विरलन (Rarefaction): जहाँ माध्यम के कण सामान्य से अधिक दूर-दूर होते हैं।
- संपीड़न के स्थान पर दाब और घनत्व सामान्य से अधिक होता है, जबकि विरलन के स्थान पर ये सामान्य से कम होते हैं।
चूँकि अनुदैर्ध्य तरंगें दाब विकृति से संबंधित होती हैं, ये ठोस, द्रव, और गैस तीनों में संचरण कर सकती हैं।
- उदाहरण:
- ध्वनि तरंगें
- भूकंपीय P-तरंगें
इन तरंगों का वर्गीकरण भौतिकी के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है और प्राकृतिक घटनाओं जैसे ध्वनि, भूकंपीय गतिविधियों, और विद्युत चुंबकीय विकिरण को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- अनुप्रस्थ तरंगें (Transverse Waves)
एक प्रतिभाशाली बच्चा माता-पिता और शिक्षक के लिये एक समस्या बन सकता है यदि उसे ठीक से संभाला नहीं गया है। प्रतिभाशाली बच्चों के समायोजन के संदर्भ में निम्नलिखित समस्याएँ आती हैं-
- जब ऐसे बच्चों को माता-पिता और शिक्षकों से मान्यता नहीं मिलती तो वे उनके खिलाफ विद्रोह कर देते हैं।
- अपनी मांग की पूर्ति नहीं होने पर ये परिवार के लोगों के खिलाफ विद्रोह करते हैं। कभी-कभी अपनी मांग को पूरा करने वाले ऐसे बच्चे अवांछित सामजिक तत्त्वों के समूह से जुड़ जाते हैं।
- कभी-कभी ऐसे बच्चे माता-पिता और शिक्षकों का ध्यान आकर्षित करने या अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिये शरारतें करते हैं।
- प्रतिभाशाली बच्चों के सीखने एवं अध्ययन की गति एवं रुचिगत विभिन्नताएँ अत्यधिक होती हैं। इस कारण से वे विद्यालय में अन्य बच्चों के साथ समायोजन नहीं कर पाते हैं। इसके साथ ही उन्हें अकादमिक विषयों और व्यवसायों के चयन में अधिक कठिनाई होती है।
- ऐसे बच्चों को समाज में उचित समायोजन के संदर्भ में समस्या आती है क्योंकि इन्हें अपनी रुचि और मानसिक स्तर के समतुल्य मित्र नहीं मिल पाते हैं।
- इन बच्चों को अपनी रुचि वाले विषयों में उद्दीपन या उत्तेजना कम हो जाती है जब इनको अपनी गति के अनुसार इनमें प्रगति का अवसर नहीं मिलता।
- अवसरों की कमी और मान्यता नहीं मिलने पर इनमें कभी-कभी हीन भावना भर जाती है।
- माता-पिता या शिक्षकों द्वारा बहुत अधिक मान्यता या प्रशंसा पाने से ऐसे बच्चों में गर्व और अहंकार की भावना का विकास होता है।
- प्रतिभाशाली बच्चे प्रत्येक कार्य को आवश्यकता से अधिक सरल मानते हुए उन कार्यों के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। इससे वे बिना समुचित ध्यान के कार्य करते हैं। लापरवाह और समुचित ध्यान नहीं देने की यह प्रवृत्ति उन्हें आलसी बना देती है।
- उचित मार्गदर्शन नहीं प्रदान किये जाने पर ऐसे बच्चे अपनी श्रेष्ठ बुद्धि का उपयोग शरारतों, अनुशासन हीनता, गिरोह बनाने और अपने से बड़ों के खिलाफ विद्रोह में करते हैं। ऐसे बच्चे आगे चलकर शरारती बच्चे बन जाते हैं।
अवस्थिति और वैश्विक महत्त्व
ज्वालामुखी पृथ्वी के भू-आकृतिक स्वरूप और पारिस्थितिकी तंत्र को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये न केवल भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते हैं, बल्कि विभिन्न संस्कृतियों में भी विशेष स्थान रखते हैं। प्रत्येक क्षेत्र के विशिष्ट ज्वालामुखीय गुण धरती के विज्ञान से संबंधित विशिष्ट जानकारियाँ प्रदान करते हैं, जो शोधकर्ताओं, छात्रों और पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। यहाँ विश्व के कुछ प्रमुख ज्वालामुखियों की सूची दी गई है-
विश्व के प्रमुख ज्वालामुखियों की सूची
ज्वालामुखी का नाम |
स्थान |
ओजोस डेल सालाडो |
अर्जेंटीना-चिली |
कोटोपैक्सी |
इक्वेडोर |
पोपोकेटेपटल |
मैक्सिको |
माउना लोआ |
हवाई द्वीपसमूह (अमरीका) |
माउंट कैमरून |
कैमरून (अफ्रीका) |
माउंट इरेबस |
रॉस द्वीप (अंटार्कटिका) |
माउंट एटना |
सिसली (इटली) |
माउंट पीली |
मार्टीनिक द्वीप |
हेक्ला और लाकी |
आइसलैंड |
विसुवियस |
नेपल्स की खाड़ी (इटली) |
स्ट्रॉम्बोली |
लिपारी द्वीप (भूमध्यसागर) |
क्राकाटोआ |
इंडोनेशिया |
कटमई |
अलास्का (अमरीका) |
माउंट रेनियर |
अमरीका |
माउंट शास्ता |
अमरीका |
चिम्बोरोसो |
इक्वेडोर |
माउंट फूजी |
जापान |
माउंट ताल |
फिलीपींस |
माउंट पिनातुबो |
फिलीपींस |
दमावंद |
ईरान |
कोह-ए-सुलतान |
ईरान |
माउंट पोपा |
म्यांमार (बर्मा) |
किलिमंजारो |
तंजानिया |
मेयोन |
फिलीपींस |
एजाफजल्लाजोकुल |
आइसलैंड |
विश्व के प्रमुख ज्वालामुखियों का अध्ययन भू-वैज्ञानिकों, पर्यावरण वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन ज्वालामुखियों का अध्ययन करके हम ज्वालामुखीय गतिविधियों, टेक्टॉनिक प्रक्रियाओं और इनका मानव समाज एवं पारिस्थितिकीय तंत्र पर दीर्घकालिक प्रभाव समझ सकते हैं, जो भविष्य में सुरक्षा और संसाधनों की योजना बनाने में सहायक होगा।
मुद्राएँ प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा होती हैं, जो व्यापार, निवेश और वित्तीय स्थिरता को सुविधाजनक बनाती हैं। प्रत्येक देश या क्षेत्र की अपनी अलग मुद्रा होती है, जो न केवल आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण होती है, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी उस देश की पहचान को दर्शाती है। इस सूची में 2024 में दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों की मुद्राओं का वर्णन किया गया है, जो उनके वैश्विक आर्थिक योगदान को दर्शाता है।
विभिन्न देश और उनकी मुद्राएँ
- भारत - भारतीय रुपया (INR): ₹ प्रतीक के साथ भारतीय रुपया, भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी किया जाता है।
- चीन - चीनी युआन (CNY): ¥ प्रतीक के साथ रेनमिनबी (RMB), जिसे पीपल्स बैंक ऑफ चाइना द्वारा जारी किया गया है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका - यूएस डॉलर (USD): $ प्रतीक के साथ, यह मुद्रा वैश्विक रिज़र्व मुद्रा के रूप में सबसे महत्वपूर्ण है और इसे फेडरल रिज़र्व द्वारा जारी किया जाता है।
- इंडोनेशिया - इंडोनेशियाई रुपिया (IDR): Rp प्रतीक के साथ, इंडोनेशिया की मुद्रा उच्च मूल्यवर्ग की होती है।
- पाकिस्तान - पाकिस्तानी रुपया (PKR): ₨ प्रतीक के साथ, पाकिस्तान का रुपया, पाकिस्तान स्टेट बैंक द्वारा जारी किया जाता है।
- नाइजीरिया - नाइजीरियाई नायरा (NGN): ₦ प्रतीक के साथ नायरा, केंद्रीय बैंक ऑफ नाइजीरिया द्वारा जारी किया जाता है।
- ब्राजील - ब्राज़ीली रियल (BRL): R$ प्रतीक के साथ, रियल ब्राजील की अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए पेश किया गया था।
- बांगलादेश - बांगलादेशी टाका (BDT): ৳ प्रतीक के साथ, टाका बांगलादेश बैंक द्वारा जारी की जाती है।
- रूस - रूसी रूबल (RUB): ₽ प्रतीक के साथ, रूबल एक ऐतिहासिक मुद्रा है जो केंद्रीय बैंक ऑफ रूस द्वारा जारी होती है।
- इथियोपिया - इथियोपियाई बिर्र (ETB): Br प्रतीक के साथ, बिर्र, इथियोपिया के केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की जाती है।
- मेक्सिको - मैक्सिकन पेसो (MXN): $ या Mex$ प्रतीक के साथ, पेसो लैटिन अमेरिका में व्यापक रूप से व्यापार में उपयोग होता है।
- जापान - जापानी येन (JPY): ¥ प्रतीक के साथ येन, दुनिया की सबसे व्यापारित मुद्राओं में से एक है, जिसे बैंक ऑफ जापान जारी करता है।
- मिस्र - मिस्र पाउंड (EGP): £ या E£ प्रतीक के साथ, मिस्र का पाउंड व्यापक रूप से उपयोग में आता है।
- फिलीपीन्स - फिलीपीन पेसो (PHP): ₱ प्रतीक के साथ, यह मुद्रा फिलिपींस के केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की जाती है।
- डीआर कांगो - कांगोफ्रैंक (CDF): FC प्रतीक के साथ, यह मुद्रा जायरियन मुद्रा को प्रतिस्थापित करने के बाद आई।
- वियतनाम - वियतनामी डोंग (VND): ₫ प्रतीक के साथ, डोंग एक उच्च मूल्यवर्ग की मुद्रा है।
- ईरान - ईरानी रियाल (IRR): ﷼ प्रतीक के साथ रियाल, ईरान के केंद्रीय बैंक द्वारा जारी किया जाता है।
- तुर्की - तुर्की लीरा (TRY): ₺ प्रतीक के साथ लीरा, मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए सुधार की गई थी।
- जर्मनी - यूरो (EUR): जर्मनी यूरो (€) का उपयोग करता है, जो यूरोज़ोन के साझा मुद्रा का हिस्सा है।
- थाईलैंड - थाई बाथ (THB): ฿ प्रतीक के साथ, बाथ दक्षिण-पूर्व एशिया में व्यापक रूप से सम्मानित मुद्रा है।
इन विभिन्न मुद्राओं से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक देश की मुद्रा न केवल उस देश की वित्तीय प्रणाली और आर्थिक संरचना को दर्शाती है, बल्कि वैश्विक व्यापार और मुद्रा विनिमय बाजारों पर भी इनका महत्वपूर्ण प्रभाव होता है। ये मुद्राएँ प्रत्येक देश के आर्थिक पहचान का प्रतीक हैं और वैश्विक व्यापार में उनके योगदान को प्रदर्शित करती हैं।
विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण खोजें और नवाचार
- सर आइज़क न्यूटन : गति के तीन नियमों का प्रतिपादन (1643-1727)।
- अल्फ्रेड नोबेल : डायनामाइट का आविष्कार किया (1867) और नोबेल पुरस्कार की स्थापना की (1896)।
- आर्मेडियो अवोगाद्रो : अवोगाद्रो का नियम प्रस्तुत किया (1776-1856)।
- एंटोइन लावोइसीयर : ज्वलनशीलता को रासायनिक प्रतिक्रिया के रूप में समझाया (1743-1794)।
- अरस्तू : बताया कि भारी वस्तुएँ हल्की वस्तुओं की तुलना में तेजी से गिरती हैं (384-322 ई.पू.)।
- अगस्तिन फ्रेसनेल : सिद्ध किया कि प्रकाश तरंगों के रूप में चलता है; फ्रेसनेल लेंस का आविष्कार किया (1788-1827)।
- क्रिश्चियन डॉप्लर : ध्वनि के डॉप्लर प्रभाव का वर्णन किया (1842)।
- एडमंड हैली : धूमकेतुओं की आवृत्ति की पहचान की (1656-1742)।
- एडविन हबल : मंदाकिनी के अलावा अन्य आकाशगंगाओं का अस्तित्व प्रमाणित किया और ब्रह्माण्ड के फैलने का सिद्धांत प्रस्तुत किया (1923)।
- एमिल बेर्लिनर : ग्रामोफोन का आविष्कार किया (1851-1929)।
- एन्रीको फर्मी : पहला नाभकीय रिएक्टर बनाया और नाभकीय श्रृंखला अभिक्रिया प्राप्त की (1938)।
- फ्रेड हॉयल : तारे के भीतर न्यूक्लियोसिंथेसिस को समझने में योगदान दिया (1915-2001)।
- फ्रिट्ज़ हैबर : अमोनिया के संश्लेषण की हैबर प्रक्रिया का विकास किया (1908)।
- गैलीलियो गैलिली : शक्तिशाली टेलीस्कोप बनाया और आकाशीय पिंडों की खोज की (1564-1642)।
- गिओवानी केसीनी : शनि के छल्लों में रिक्त स्थानों की खोज की और इसके चंद्रमाओं की खोज की (1625-1712)।
- मार्कोनी : रेडियो के माध्यम से संकेत भेजने का सिद्धांत पेटेंट कराया (1874-1937)।
- अलेक्ज़ेंडर ग्राहम बेल : विद्युत तारों के माध्यम से मानव आवाज को सफलतापूर्वक प्रसारित किया (1875)।
- जेम्स क्लार्क मैक्सवेल : विद्युत चुम्बकीय विकिरण के सिद्धांत की स्थापना की (1864)।
- जान इंगेनहाउज : प्रकाश संश्लेषण का अध्ययन किया (1730-1799)।
- जॉन नेपियर : लघुगणक का आविष्कार किया, जिससे जटिल गणनाएँ सरल हो गईं (1550-1617)।
- जोसेफ प्रिस्टले : ऑक्सीजन और अन्य गैसों की खोज की (1733-1804)।
- जोसेफ वॉन फ्रॉनहॉफर : स्पेक्ट्रोस्कोप का आविष्कार किया (1787-1826)।
- लीनस पाउलिंग : रासायनिक बंध और आणविक संरचना पर किए गए कार्य के लिये नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया (1901-1994)।
- लाइस मिट्नर : नाभकीय भौतिकी में महत्वपूर्ण खोजें कीं (1868-1978)।
- निकोलस कॉपरनिकस : सूर्य को ब्रह्माण्ड का केंद्र बताया (1473-1543)।
- मेरी क्युरी : पोलोनियम और रेडियम की खोज की और भौतिकी तथा रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया (1867-1934)।
- मैक्स प्लांक : क्वांटम सिद्धांत की नींव रखी (1858-1947)।
- मोर्टिमर ह्वीलर : पुरातत्व संस्थान की स्थापना की और सिंधु घाटी सभ्यता का अध्ययन किया (1890-1976)।
- रॉबर्ट वाटसन-वाट : पहला प्रायोगिक राडार विकसित किया (1892-1973)।
- सत्येन्द्र नाथ बोस : क्वांटम यांत्रिकी में कार्य के लिये जाने जाते हैं; "बोसॉन" उनके नाम पर रखा गया है (1894-1974)।
- स्वान्ते अर्हिनियस : घटकों के विलयन में आयन बनाने के अध्ययन के लिये प्रसिद्ध (1859-1927)।
- थॉमस यंग : प्रकाश के तरंग व्यवहार को सिद्ध करने के लिये कई प्रयोग किए (1773-1829)।
- विलियम हेनरी ब्रैग : X-किरण क्रिस्टलोग्राफी की खोज की (1862-1942)।
- बाल-अपराध की रोकथाम के लिये आवश्यक है कि विद्यालय का वातावरण एवं शिक्षक योग्य, प्रशिक्षित तथा मानवीय समस्याओं को समझने वाले हों।
- विद्यालय में विद्यार्थी की अभिरुचि तथा अभिक्षमता के हिसाब से शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।
- विद्यालय में एक अच्छा पुस्तकालय और उसमें नैतिक शिक्षा से संबंधित किताबें होनी चाहिये।
- विद्यालय में मनोरंजन के साधन होने चाहिये तथा विद्यालय प्रबंधन द्वारा समय-समय पर विद्यार्थियों को पिकनिक पर ले जाना चाहिये।
- प्रत्येक विद्यालय में एक ऐसी समिति होनी चाहिये जिसमें योग्य शिक्षक तथा अभिभावक मनोवैज्ञानिक सदस्य के रूप में कार्यरत हों जो बच्चों के मनोविज्ञान के बारे में अच्छी जानकारी रखते हों।
- शिक्षकों को बच्चों के प्रति सकारात्मक, सहयोगात्मक तथा सहानुभूति वाला व्यवहार रखना चाहिये।
- बाल-अपराध को रोकने के लिये विद्यालय में बच्चों के व्यवहार पर नियमित ध्यान रखना चाहिये तथा समय-समय पर शिक्षक-अभिभावक को एक-दूसरे से बच्चों के व्यवहार के बारे में बात करते रहना चाहिये।
भारत की एकता और विविधता के प्रतीक
- राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा)
- तीन क्षैतिज पट्टियाँ :
- केसरिया (ऊपर) : शक्ति और साहस का प्रतीक
- सफेद (बीच में) : शांति और सत्य का प्रतीक
- हरा (नीचे) : उर्वरता, विकास और भूमि की पवित्रता का प्रतीक
- अशोक चक्र :
- नीले रंग का चक्र, जो जीवन की निरंतर गति का प्रतीक है
- संदेश : जीवन गतिशील है, ठहराव मृत्यु का संकेत है
- अनुपात : ध्वज की लंबाई-चौड़ाई का अनुपात 3 :2 है
- तीन क्षैतिज पट्टियाँ :
- राष्ट्रीय चिह्न
- सारनाथ स्थित अशोक स्तंभ की प्रतिकृति
- शीर्ष पर चार सिंह, जो एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं
- नीचे घंटाकार पद्म, जिसमें हाथी, घोड़ा, सांड और सिंह की आकृतियाँ हैं
- बीच-बीच में बने चक्र
- "सत्यमेव जयते" देवनागरी लिपि में अंकित
- राष्ट्रगान और राष्ट्रीय गीत
- राष्ट्रगान : "जन गण मन"
- लेखक : रवींद्रनाथ टैगोर
- विविधता में एकता का प्रतीक
- राष्ट्रीय गीत : "वंदे मातरम्"
- लेखक : बंकिम चंद्र चटर्जी
- मातृभूमि के प्रति सम्मान और समर्पण का भाव
- राष्ट्रगान : "जन गण मन"
- राष्ट्रीय पशु
- बाघ (Panthera tigris tigris)
- गरिमा, शक्ति और चपलता का प्रतीक
- राष्ट्रीय पक्षी
- भारतीय मोर (Pavo cristatus)
- रंगीन पंख और सुंदरता का प्रतीक
- राष्ट्रीय फूल
- कमल (Nelumbo nucifera)
- पवित्रता और निर्लिप्तता का प्रतीक
- राष्ट्रीय नदी
- गंगा
- पवित्रता और जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक
ये सभी राष्ट्रीय प्रतीक भारत की सांस्कृतिक धरोहर, एकता और आदर्शों को व्यक्त करते हैं। ये भारतीय नागरिकों के लिये गर्व और प्रेरणा का स्रोत हैं और देश की ऐतिहासिक यात्रा और भविष्य की आकांक्षाओं का प्रतीक हैं।
प्रक्रिया और परागण के प्रकार
पादपों में लैंगिक जनन द्वारा बीजों से नए पौधे उत्पन्न होते हैं। इस प्रक्रिया में दो महत्वपूर्ण चरण होते हैं: परागण और निषेचन। अधिकांश पौधे उभयलिंगी होते हैं और उनका जनन अंग पुष्प होता है, जो कई भागों में विभाजित होता है। पुष्प के मुख्य भाग होते हैं: बाह्य दल (Sepals), दल (Petals), पुंकेसर (Stamen) और अंडप (Carpel)।
पुंकेसर में एक तंतु (Filament) और परागकोष (Anther) पाया जाता है, जहाँ परागकण बनते हैं। ये परागकण नर युग्मक के रूप में कार्य करते हैं। अंडप में तीन प्रमुख भाग होते हैं: अंडाशय (Ovary), वर्तिका (Style) और वर्तिकाग्र (Stigma)। अंडाशय में बीजांड होते हैं, जिनमें मादा युग्मक (अंड) पाया जाता है।
- परागण (Pollination):
परागण वह प्रक्रिया है, जिसमें परागकण परागकोष से वर्तिकाग्र तक पहुँचते हैं। परागकणों का स्थानांतरण विभिन्न माध्यमों से होता है, जैसे वायु, जल, कीट और अन्य कारक। परागण दो प्रकार के होते हैं:- स्व-परागण (Self-Pollination): जब परागकण उसी पुष्प या उसी पौधे के अन्य पुष्प पर स्थानांतरित होते हैं।
- पर-परागण (Cross-Pollination): जब परागकण एक पुष्प से किसी अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र तक पहुँचते हैं।
- परागण के कारक (Agents of Pollination):
- परागण के कारकों को दो भागों में बाँटा जा सकता है: अजैविक कारक और जैविक कारक।
- अजैविक कारक: इसमें वायु और जल प्रमुख होते हैं। उदाहरण के लिये, मक्का और घास में वायु परागण देखा जाता है, जबकि वैलिसनेरिया और हाइड्रिला जैसे जल पादपों में जल परागण होता है।
- जैविक कारक: अधिकांश पुष्पीय पौधे परागण के लिये जंतुओं पर निर्भर होते हैं। मधुमक्खियाँ, तितलियाँ, मक्खियाँ, चिड़ियाँ, और चमगादड़ जैसे जीव प्रमुख जैविक परागणकर्ता होते हैं। इनमें मधुमक्खियाँ सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- निषेचन (Fertilization):
परागकण वर्तिकाग्र तक पहुँचने के बाद, निषेचन की प्रक्रिया शुरू होती है, जिसमें नर और मादा युग्मकों का संयोग होता है। इसके परिणामस्वरूप बीज का निर्माण होता है, जिससे नए पौधे उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार, पादपों में लैंगिक जनन एक जटिल और महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो पौधों के विकास और उनकी प्रजातियों के संरक्षण के लिये आवश्यक है।
भारत अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और विविधता के लिये प्रसिद्ध है, जो यहाँ के मंदिरों में स्पष्ट रूप से झलकती है। ये पवित्र संरचनाएँ न केवल पूजा के स्थल हैं, बल्कि कला, वास्तुकला और इतिहास के महत्वपूर्ण केंद्र भी हैं। ये मंदिर हजारों साल पुरानी परंपराओं की समृद्ध विरासत को संजोए हुए हैं, जिनकी जड़ें सिंधु घाटी सभ्यता (लगभग 2500 ईसा पूर्व) में मिलती हैं। विभिन्न राजवंशों, जैसे कि मौर्य, गुप्त, चोल और मुग़ल आदि ने मंदिर वास्तुकला को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रत्येक काल ने अनूठे डिज़ाइन और क्षेत्रीय विविधताएँ पेश कीं, जो समय के सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं को दर्शाती हैं।
मंदिर |
स्थान |
विरुपाक्ष मंदिर |
हम्पी, कर्नाटक |
विठ्ठल मंदिर |
हम्पी, कर्नाटक |
मीनाक्षी मंदिर |
मदुरै, तमिलनाडु |
रामनाथस्वामी मंदिर |
रामेश्वरम द्वीप, तमिलनाडु |
सुचिन्द्रम मंदिर |
कन्याकुमारी, तमिलनाडु |
रंगनाथस्वामी मंदिर |
तमिलनाडु |
बृहदेश्वर मंदिर |
तंजावुर, तमिलनाडु |
राजगोपालस्वामी मंदिर |
तमिलनाडु |
ऐरावतेश्वर मंदिर |
दरसुराम, तमिलनाडु |
वेंकटेश्वर मंदिर |
तिरुमाला, आंध्र प्रदेश |
काशी विश्वनाथ |
वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
वैष्णो देवी मंदिर |
जम्मू |
अमरनाथ गुफा मंदिर |
जम्मू और कश्मीर |
सोमनाथ मंदिर |
गुजरात |
द्वारकाधीश मंदिर |
गुजरात |
शिरडी साईं बाबा मंदिर |
शिरडी, महाराष्ट्र |
सिद्धिविनायक मंदिर |
प्रभा देवी, मुंबई |
बद्रीनाथ मंदिर |
उत्तराखंड |
केदारनाथ मंदिर |
गढ़वाल क्षेत्र, उत्तराखंड |
यमुनोत्री मंदिर |
उत्तरकाशी, उत्तराखंड |
गंगोत्री मंदिर |
उत्तरकाशी, उत्तराखंड |
कोणार्क सूर्य मंदिर |
ओडिशा |
जगन्नाथ मंदिर |
ओडिशा |
लिंगराज मंदिर |
ओडिशा |
सांची स्तूप |
रायसेन, मध्य प्रदेश |
पद्मनाभस्वामी मंदिर |
केरल |
स्वर्ण मंदिर |
अमृतसर, पंजाब |
महाबोधि मंदिर |
बिहार |
कामाख्या मंदिर |
नीलाचल पहाड़ी, गुवाहाटी |
वंचन से बच्चों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव को मनोवैज्ञानिकों ने निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा है-
- संज्ञानात्मक पैटर्न पर प्रभाव (Impact upon Cognitive Patterns) : संज्ञान शब्द के अंतर्गत बच्चों के चिंतन, प्रत्यक्षण, बुद्धि, संवेदना, स्मृति आदि क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। जे.पी. दास एवं टी.पी. पंडा के अध्ययनों के अनुसार वंचन का बच्चों के संज्ञानात्मक पैटर्न पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा निम्न जाती के बच्चों का बौद्धिक स्तर उच्च वर्ग के बच्चों के बौद्धिक स्तर के बहुत कम होता है। उसी प्रकार एन. चटोपाध्याय ने अपने अध्ययन के आधार पर यह बताया कि बुद्धि परीक्षण में (एलेक्जेंडर पास-अलोंग बुद्धि परीक्षण) जनजाति के बच्चों का प्रदर्शन सामान्य बच्चों की तुलना में काफी कम था। हेविंगहर्स्ट (Havinghurst) के अनुसार, ‘‘वंचित बच्चों में अन्य बच्चों की तुलना में अमूर्त चिंतन की क्षमता काफी कम होती है।’’
- अभिप्रेरणात्मक प्रारूप पर प्रभाव (Impact upon Motivational Patterns) : मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में यह पाया गया कि वंचित बच्चों का अभिप्रेरणात्मक प्रारूप सामान्य बच्चों के प्रारूप से सर्वथा भिन्न एवं निम्न होता है। डी. सिन्हा, जी. मिश्रा तथा उदय पारीक ने अपने-अपने अध्ययन में यह पाया कि वंचित एवं वंचन से बच्चों में उपलब्धि आवश्यकता कम हो जाती है तथा निर्भरता आवश्यकता अधिक हो जाती है। इसके अलावा रथ (Rath) ने अपने अध्ययन में पाया कि वंचित बच्चों पर वंचन का प्रभाव इतना अधिक होता है कि बच्चों के आकांक्षा-स्तर पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। वंचित बच्चों की सोच आय, पेशा तथा शिक्षा के बारे में निम्न स्तरीय होती है। जिससे वे बहुत कम शिक्षा पाकर तथा कम आय प्राप्त करके भी संतुष्ट हो जाते हैं।
- शैक्षिक उपलब्धि पर प्रभाव (Impact up on Academic Achievement) : मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि वंचन का प्रभाव वंचित बच्चों की शिक्षा पर भी पड़ता है। उषा श्री के अध्ययनों के अनुसार वंचित बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि तथा शैक्षिक समायोजन लाभान्वित बच्चों की तुलना में काफी निम्न थी। ए.के. सिंह ने अपने अध्ययन में यह पाया कि वंचित बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि सामान्य बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि से प्रत्येक वर्ष कम होती जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने इसके दो प्रमुख कारण बताए हैं। पहला, वंचित बच्चों के पास अध्ययन के लिये पर्याप्त साधन का न होना तथा दूसरा, स्कूल में वंचित बच्चों के प्रति शिक्षकों की मनोवृत्ति उतना सकारात्मक न रहना जितना की रहना चाहिये। इन सबका परिणाम यह होता है कि वंचित बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि काफी प्रभावित हो जाती है और वे सामान्य बच्चों से काफी पिछड़ जाते हैं।
रणजीत सिंह का नेतृत्व और ब्रिटिश प्रभुत्व
गुरु गोविंद सिंह की हत्या के बाद फैजुल्लापुर के कपूर सिंह ने खालसा दल की स्थापना की। खालसा दल और अन्य सिख सरदारों के एकजुट होने से पंजाब में सिखों की स्थिति मजबूत हो गई और मुगल शासन का नियंत्रण समाप्त हो गया। 1773 ई. तक सिखों ने सहारनपुर से अटक तक, और उत्तरी पहाड़ियों से मुल्तान तक अपना साम्राज्य फैला लिया। हालाँकि, सिख 12 मिस्लों (सैन्य संगठनों) में विभाजित थे और उनमें एकीकृत शासन की कमी थी।
- रणजीत सिंह और सिख मिस्लों का एकीकरण
- सुकरचकिया मिस्ल के प्रमुख रणजीत सिंह ने अपनी नेतृत्व क्षमता से 12 सिख मिस्लों को एकजुट किया। इनमें अहलूवालिया, सुकरचकिया, निहंग, निशानवाला, कन्हैया, और अन्य मिस्ल शामिल थे।
- 1799 ई. में, अफगान शासक ज़मान शाह ने रणजीत सिंह को लाहौर का प्रांतीय शासक नियुक्त किया। उन्होंने 1805 ई. तक अमृतसर और जम्मू पर भी अधिकार कर लिया।
- रणजीत सिंह के समय में लाहौर राजनीतिक राजधानी और अमृतसर धार्मिक राजधानी बन गई, परिणामस्वरूप सिख साम्राज्य संगठित हो गया।
- अंग्रेजों के साथ संबंध
- नेपोलियन की बढ़ती शक्ति और फ्राँस-रूस की मित्रता के कारण अंग्रेज उत्तर-पश्चिम सीमा को सुरक्षित करना चाहते थे। इस कारण 25 अप्रैल 1809 ई. को रणजीत सिंह और अंग्रेजों के बीच अमृतसर की संधि हुई, जिसमें सतलज नदी को दोनों राज्यों की सीमा मान लिया गया।
- 1823 ई. तक रणजीत सिंह ने कांगड़ा, मुल्तान, कश्मीर, और पेशावर पर अधिकार कर लिया।
- रणजीत सिंह की सैन्य शक्ति, कुशल रणनीति व अंग्रेजों के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंधों के चलते उनके जीवनकाल में अंग्रेजों ने कभी भी पंजाब पर आक्रमण नहीं किया।
- रणजीत सिंह की मृत्यु एवं साम्राज्य पतन
- 1839 ई. में रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी कमजोर साबित हुए, और दरबार में गुटबंदी शुरू हो गई।
- सेना में असंतोष बढ़ गया क्योंकि वेतन नहीं मिल रहा था, और योग्य सेनापतियों की मृत्यु ने सिख सेना को कमजोर कर दिया।
- इस अस्थिरता का फायदा उठाते हुए अंग्रेजों ने पंजाब पर अपना नियंत्रण मजबूत करने की योजना बनाई।
- अयोग्य शासकों और महत्वाकांक्षी सेनापतियों के षड्यंत्रों के कारण 1845 से 1849 ई. के बीच सिखों को दो युद्धों का सामना करना पड़ा, जिससे उनका स्वतंत्र राज्य ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया।
प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्र का अध्ययन
नदियों के उद्गम से लेकर मुहाने तक, नदी और उसकी सहायक नदियों द्वारा निर्मित संरचना को अपवाह प्रतिरूप कहा जाता है। इसमें विभिन्न प्रकार के प्रतिरूप जैसे वृक्षाकार, वलयाकार, अभिकेंद्रीय, गुंबदाकार, और समानांतर प्रतिरूप शामिल होते हैं। ये नाम नदी और उसकी शाखाओं द्वारा बहाव क्षेत्र में बने आकृति के आधार पर दिए गए हैं।
- भारत में नदियों के अपवाह तंत्र को मुख्य रूप से दो वर्गों में बाँटा गया है:
- हिमालय की नदियों का अपवाह तंत्र
- प्रायद्वीपीय नदियों का अपवाह तंत्र
प्रायद्वीपीय भारत में, पश्चिमी घाट एक प्रमुख जल विभाजक के रूप में कार्य करता है, जहाँ से नदियाँ अरब सागर और बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवाहित होती हैं। प्रायद्वीपीय पठार का ढाल पूर्व और दक्षिण-पूर्व की ओर होने के कारण, अधिकतर नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं और डेल्टा का निर्माण करती हैं।
हालाँकि, नर्मदा और ताप्ती नदियाँ अपवाद हैं, जो बंगाल की खाड़ी में न गिरकर अरब सागर में गिरती हैं क्योंकि ये भ्रंश घाटी से होकर बहती हैं और ज्वारनदमुख का निर्माण करती हैं। प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्र, हिमालयी अपवाह तंत्र की तुलना में अधिक पुराना है और इसकी द्रोणियाँ आकार में छोटी होती हैं। दक्षिण भारत की नदियाँ मुख्यतः वृक्षाकार अपवाह तंत्र बनाती हैं।
प्रायद्वीपीय भारत की नदियों को निम्नलिखित दो समूहों में विभाजित किया गया है:
- अरब सागर की नदियाँ: नर्मदा, ताप्ती, माही, साबरमती, पेरियार, मांडवी, जुआरी आदि।
- इसमें से माही भारत की एकमात्र ऐसी नदी है जो कर्क रेखा को दो बार काटती है।
- बंगाल की खाड़ी की नदियाँ: स्वर्णरेखा, वैतरणी, ब्राह्मणी, गोदावरी, कृष्णा, महानदी, कावेरी आदि।
- इसके अलावा, तटीय क्षेत्रों में कई छोटी नदियाँ भी हैं जो पश्चिम में अरब सागर और पूर्व में बंगाल की खाड़ी की ओर बहती हैं, जैसे शत्रुंजी, भद्रा, वैतरणा, शरावती, भरतपुझा, पेन्नार, वैगई आदि।
वित्तीय संस्थान और उनके प्रमुख
भारत के वित्तीय क्षेत्र में कई प्रमुख संस्थान शामिल हैं, जो देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनमें भारतीय रिजर्व बैंक (RBI), प्रमुख वाणिज्यिक बैंक जैसे SBI और ICICI, बीमा क्षेत्र की अग्रणी संस्था LIC और नियामक संस्था SEBI शामिल हैं। नीचे कुछ महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थानों और उनके वर्तमान प्रमुखों का विवरण दिया गया है।
प्रमुख वित्तीय संस्थान |
स्थापना वर्ष |
वर्तमान प्रमुख |
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) |
1 अप्रैल 1935 |
शक्तिकांत दास |
भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (IFCI) |
1948 |
मनोज मित्तल |
भारतीय स्टेट बैंक (SBI) |
1 जुलाई 1955 |
चल्ला श्रीनिवासुलु शेट्टी |
आईसीआईसीआई बैंक (ICICI Bank) |
1955 |
संदीप बख्शी |
भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) |
सितम्बर 1956 |
सिद्धार्थ मोहंती |
भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) |
जुलाई 1964 |
राकेश शर्मा |
भारतीय आयात निर्यात बैंक (EXIM Bank) |
1 जनवरी 1982 |
हर्षा बंगारी |
भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) |
12 अप्रैल 1988 |
माधबी पुरी बुच |
नेशनल हाउसिंग बैंक (NHB) |
जुलाई 1988 |
संजय शुक्ला |
लघु औद्योगिक विकास बैंक (SIDBI) |
1990 |
शिवसुब्रमण्यम रमण |
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) |
12 जुलाई 1982 |
शाजी के वी |
इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फाइनेंस कंपनी (IDFC) |
31 जनवरी 1997 |
महेन्द्र शाह |
यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया (UTI) |
1 फरवरी 2003 |
इम्तियाजुर रहमान |
इंडियन इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस कंपनी (IIFCL) |
अप्रैल 2006 |
डॉ. पद्मनाभन राजा |
भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (NPCI) |
दिसम्बर 2008 |
दिलीप अस्बे |
- शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ - 1951
- गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार - 1967
- केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार - 1973
- इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण - 1975
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारतीय संघ - 1980
- वामन राव बनाम भारतीय संघ - 1981
- सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड बनाम जायसवाल कोल कम्पनी - 1980
- भीमसिंहजी बनाम भारतीय संघ - 1981
- एस.पी. सम्पथ कुमार बनाम भारतीय संघ - 1957
- पी. सम्बामूर्ति बनाम आंध्र प्रदेश राज्य - 1987
- दिल्ली ज्यूडिशियल सर्विस एसोसिएशन बनाम गुजरात राज्य - 1991
- इंद्रा साहनी बनाम भारतीय संघ - 1992
- कुमार पद्म प्रसाद बनाम जचिल्हू - 1992
- किहोतो होलोहोन बनाम साचिल्ड - 1993
- रघुनाथ राव बनाम भारतीय संघ - 1993
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारतीय संघ - 1994
- एल. चंद्रकुमार बनाम भारतीय संघ - 1997
- इंद्रा साहनी II बनाम भारतीय संघ - 2000
- ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन बनाम भारतीय संघ - 2002
- कुलदीप नायर बनाम भारतीय संघ - 2006
- एम. नागराज बनाम भारतीय संघ - 2006
- आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य - 2007
- राम जेठमलानी बनाम भारतीय संघ - 2011
- नमित शर्मा बनाम भारतीय संघ - 2013
- मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारतीय संघ - 2014
मुगल साम्राज्य के पतन का आरंभ तथा नई शक्तियों का उत्थान और विस्तार
मुगल प्रशासन केंद्रीयकृत था और इसका प्रभाव शासक की शक्ति और प्रांतीय अधिकारियों पर नियंत्रण पर निर्भर था। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, यह संतुलन बिगड़ गया, जिससे मुगल शक्ति कमजोर हो गई। प्रांतीय गवर्नर स्वतंत्र शक्तियों के रूप में उभरे और स्थानीय शासन स्थापित किया। 18वीं सदी में कई क्षेत्र जैसे दक्कन, बंगाल, और अवध, दिल्ली के नियंत्रण से बाहर हो गए। विभिन्न उत्तराधिकारी, स्वतंत्र, और विद्रोही राज्य उदित हुए, जैसे अवध, मैसूर, और मराठा राज्य।
- मराठा साम्राज्य:
- औरंगजेब की मृत्यु (1707) के बाद, मराठाओं ने मुगलों की कमजोरियों का लाभ उठाया और अपनी शक्ति को बढ़ाना शुरू किया। शिवाजी के पोते शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को पेशवा नियुक्त किया, जिन्होंने मराठा राज्य को संगठित किया। शाहू को मुगलों ने वैध शासक के रूप में मान्यता दी और कई प्रांतों से चौथ वसूलने का अधिकार दिया।
- 1720 में, बाजीराव प्रथम ने पेशवा का पद संभाला और मराठा साम्राज्य का विस्तार किया। उसने मालवा, गुजरात, बुंदेलखंड और दक्कन पर विजय प्राप्त की और दिल्ली पर हमला किया। 1737 में, उसने महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर नियंत्रण प्राप्त किया, जिससे मराठा साम्राज्य का प्रभाव बढ़ा।
- 1740 में बालाजी बाजीराव (नाना साहब) ने पेशवा के रूप में कार्यभार संभाला और मराठा शक्ति को पुनर्जीवित किया। उसने पूना में प्रशासनिक केंद्र स्थापित किया और मराठा साम्राज्य का क्षेत्रीय विस्तार जारी रखा। हालांकि, पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761) में हार के बाद, मराठा साम्राज्य का प्रभाव घट गया।
- युवा माधव राव ने 1761 से 1771 तक मराठा साम्राज्य को पुनर्जीवित किया और शाह आलम को दिल्ली का मुग़ल शासक बनाने में मदद की। लेकिन माधव राव की मृत्यु के बाद, उत्तराधिकार की लड़ाई और आंतरिक अस्थिरता ने मराठा साम्राज्य को पांच स्वतंत्र राज्यों में विभाजित कर दिया: बड़ौदा, नागपुर, इंदौर, ग्वालियर, और पूना। महादजी सिंधिया और नाना फडनवीस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद मराठा शक्ति की पुनरावृत्ति की संभावनाएं समाप्त हो गईं।
- जाट: जाटों ने औरंगजेब की नीतियों के खिलाफ विद्रोह किया और भरतपुर में चूड़ामन और बदन सिंह द्वारा जाट राज्य की स्थापना की। सूरजमल के नेतृत्व में जाट शक्ति अपने चरम पर पहुँच गई। उसने न केवल कुशल प्रशासनिक व्यवस्था प्रदान की अपितु राज्य की सीमाओं का विस्तार किया| उसकी मृत्यु के बाद, राज्य का पतन शुरू हो गया और छोटे-छोटे जमीदारों से नियंत्रित क्षेत्रों में बिखर गया जो लूटपाट करते थे।
- सिख: गुरु गोविंद सिंह ने सिखों को एक आक्रामक पंथ में परिवर्तित किया। बंदा बहादुर की हार के बाद, सिखों ने 12 मिस्लों में विभाजित होकर सत्ता प्राप्त की। रंजीत सिंह ने एक मजबूत पंजाब राज्य की स्थापना की और 1799 में लाहौर तथा 1802 में अमृतसर पर विजय प्राप्त की। रंजीत सिंह ने अंग्रेजों के साथ संधि की और 1839 में उनकी मृत्यु के बाद, उनके उत्तराधिकारी राज्य को अंग्रेजों को सौंपने पर मजबूर हुए।
- रोहेला और बंगश पठान: रोहेलखंड और बंगश पठानों ने 18वीं शताब्दी में भारत में अफ़गान लोगों के प्रवास से स्वतंत्र राज्य स्थापित किये। अली मुहम्मद खान ने रोहेलखंड में राज्य स्थापित किया, जबकि मोहम्मद खान बंगश ने फर्रुखाबाद और इलाहाबाद तक अपना साम्राज्य बढ़ाया।
29 पदकों के साथ भारत का ऐतिहासिक प्रदर्शन
28 अगस्त से 8 सितंबर 2024 तक पेरिस में आयोजित पैरालंपिक खेलों में भारत का अब तक का सबसे सफल प्रदर्शन देखने को मिला, जहाँ देश ने 12 खेलों में 84 एथलीटों के साथ प्रतिभाग किया और ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करते हुए कुल 29 पदक—7 स्वर्ण, 9 रजत और 13 कांस्य पदक जीते। भारत ने अपना शानदार प्रदर्शन करते हुए पदक तालिका में 18वाँ स्थान प्राप्त किया , जो वैश्विक मंच पर भारत के खेलों में बढ़ते प्रभुत्व को दर्शाता है। भारत ने विभिन्न खेलों में शानदार प्रदर्शन करते हुए निम्नलिखित पदक प्राप्त किये :
- शूटिंग
- स्वर्ण:
- अवनि लेखरा - महिला 10 मीटर एयर राइफल स्टैंडिंग SH-1
- रजत: कोई नहीं
- कांस्य:
- मोना अग्रवाल - महिला 10 मीटर एयर राइफल स्टैंडिंग SH1
- रुबिना फ्रांसिस - महिला 10 मीटर एयर पिस्टल SH1
- स्वर्ण:
- एथलेटिक्स
- स्वर्ण:
- सुमित अंतिल - जेवेलिन थ्रो F64
- प्रवीण कुमार - पुरुषों का हाई जंप T64
- नवदीप सिंह - पुरुषों का जेवेलिन थ्रो F41
- धर्मवीर - पुरुषों का क्लब थ्रो F51
- रजत:
- मनीष नारवाल - पुरुषों का 10 मीटर एयर पिस्टल SH1
- निशाद कुमार - पुरुषों का हाई जंप T47
- योगेश कथुनिया - पुरुषों का डिस्कस थ्रो F56
- शरद कुमार - पुरुषों का हाई जंप T63
- अजीत सिंह - पुरुषों का जेवेलिन थ्रो F46
- प्रणव सूर्मा - पुरुषों का क्लब थ्रो F51
- कांस्य:
- प्रीति पाल - महिला 100 मीटर T35
- प्रीति पाल - महिला 200 मीटर T35
- दीप्ति जीवनजी - महिला 400 मीटर T20
- मारीयप्पन थांगावेलु - पुरुषों का हाई जंप T63
- सुंदर सिंह गुर्जर - पुरुषों का जेवेलिन थ्रो F46
- सचिन खिलाड़ी - पुरुषों का शॉट पुट F46
- होकातो होतोजे सेमा - पुरुषों का शॉट पुट F57
- सिमरन - महिला 200 मीटर T12
- स्वर्ण:
- बैडमिंटन
- स्वर्ण:
- नितेश कुमार - पुरुषों का सिंगल्स SL3
- रजत:
- तुलसीमथी मुरुगेसन - महिला सिंगल्स SU5
- सुहास यतिराज - पुरुषों का सिंगल्स SL4
- कांस्य:
- मनीषा रामदास - महिला सिंगल्स SU5
- नित्या सिवन - महिला सिंगल्स SH6
- स्वर्ण:
- तीरंदाजी
- स्वर्ण:
- हरविंदर सिंह - पुरुषों का इंडिविजुअल रिकर्व ओपन
- रजत: कोई नहीं
- कांस्य:
- राकेश कुमार / शीतल देवी - मिक्स्ड टीम कंपाउंड ओपन
- स्वर्ण:
- जूडो
- कांस्य:
- कपिल परमार - पुरुषों का -60 किलोग्राम J1
- कांस्य:
वर्ष 2024 में पेरिस में आयोजित पैरालंपिक भारत की पैरालंपिक खेल यात्रा का सबसे सफल संस्करण रहा। 1968 में अपनी शुरुआत से लेकर पेरिस में स्वर्णिम उपलब्धियों तक, पैरा-स्पोर्ट्स में भारत की शानदार सफलता की निरंतरता के पीछे खेलो इंडिया और TOPS जैसी पहलों का विशेष योगदान रहा | इन पहलों के समर्थन ने एथलीटों को उत्कृष्टता हासिल करने और वैश्विक मंच पर भारत को खेलों की दुनिया में स्थापित करने में सक्षम बनाया है। 2024 के पैरालंपिक खेलों में भारत के ऐतिहासिक प्रदर्शन को एक प्रेरणादायी अध्याय के रूप में याद किया जाएगा, जो आने वाली पीढ़ियों को उत्कृष्टता का एक नया मानक स्थापित करने के लिये निरंतर प्रेरित करेगा।
व्यापार मार्गों और उपनिवेशी प्रभाव की स्थापना से संबंधित महत्वपूर्ण घटनाएँ
यूरोपीय वाणिज्य के भारत में आरंभ से जुड़ी महत्त्वपूर्ण तिथियों की शुरुआत 1486 ई. से होती है, जब पुर्तगाली यात्री बार्थोलोम्यू डियाज ने अफ्रीका के दक्षिणी छोर पर स्थित "केप ऑफ गुड होप" (उत्तमाशा अंतरीप) तक पहुंचकर भारत के लिये समुद्री मार्ग की खोज में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया।
- 1498 ई. में पुर्तगाली नाविक वास्को डी गामा ने समुद्र के रास्ते भारत पहुंचकर कालीकट के बंदरगाह पर कदम रखा, जिससे भारत और यूरोप के बीच समुद्री व्यापार का नया अध्याय शुरू हुआ।
- 1501 ई. में वास्को डी गामा ने भारत की अपनी दूसरी यात्रा की।
- 1503 ई. में पुर्तगाली गवर्नर अल्फोंसो डी अल्बुकर्क भारत आया, जिसने पुर्तगालियों की स्थिति को और मजबूत किया।
- 1510 ई. में अल्बुकर्क ने गोवा को बीजापुर के सुल्तान से जीत लिया, और यह पुर्तगालियों के लिये एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गया।
- 1530 ई. में पुर्तगालियों ने अपनी भारत की राजधानी कोचीन से गोवा स्थानांतरित कर ली।
- 1534 ई. में नूनो डा कुन्हा के नेतृत्व में पुर्तगालियों ने गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से दीव और बेसिन (वसई) की संधि के जरिए प्राप्ति की।
- 1599 ई. में स्थल मार्ग से अंग्रेज व्यापारी जॉन मिडलटन भारत आए, और उसी वर्ष अंग्रेजी व्यापारिक कम्पनी ‘मर्चेंट एडवेंचर्स’ की स्थापना हुई, जो बाद में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के नाम से जानी गई।
- 1602 ई. में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को और बढ़ावा दिया।
- 1615 ई. में, अंग्रेज राजदूत सर थॉमस रो मुगल सम्राट जहांगीर के दरबार में आया और ब्रिटिश व्यापारिक हितों को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।
- 1661 ई. में पुर्तगालियों ने बम्बई का क्षेत्र ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स द्वितीय को दहेज में दे दिया, जो आगे चलकर ब्रिटिश साम्राज्य का एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बना।
- 1664 ई. में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई, जिससे यूरोप की विभिन्न शक्तियों के बीच भारत में व्यापार और प्रभाव को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ गई।
- 1690 ई. में अंग्रेज व्यापारी जॉब चारनॉक ने आधुनिक कलकत्ता शहर की स्थापना की, जिसने बाद में अंग्रेजों के व्यापारिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में अपनी पहचान बनाई।
उपरोक्त कालक्रम और उनसे संबंधित घटनाएँ भारतीय व्यापार और वाणिज्य में बढ़ती यूरोपीय रुचि और प्रतिस्पर्धा को दर्शाते हैं। व्यापारिक चौकियों और कंपनियों की स्थापना ने एक जटिल और प्रतिस्पर्धी औपनिवेशिक इतिहास की शुरुआत को चिह्नित किया, जिसने इस क्षेत्र में वैश्विक व्यापार और राजनीतिक प्रभाव के भविष्य को आकार दिया।
स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल 15 अगस्त 1947 को गठित हुआ और इसने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस मंत्रिमंडल के प्रमुख सदस्य और उनके संबंधित विभाग निम्नलिखित हैं :
- जवाहरलाल नेहरू
- पद : प्रधानमंत्री
- संबंधित विभाग : वैज्ञानिक शोध, राष्ट्रमंडल संबंध, विदेशी मामले
- सरदार वल्लभभाई पटेल
- पद : गृह मंत्री
- संबंधित विभाग : सूचना एवं प्रसारण, राज्यों के मामले
- डॉ. राजेंद्र प्रसाद
- पद : खाद्य और कृषि मंत्री
- संबंधित विभाग : खाद्य एवं कृषि
- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
- पद : शिक्षा मंत्री
- संबंधित विभाग : शिक्षा
- डॉ. जॉन मथाई
- पद : रेलवे एवं परिवहन मंत्री
- संबंधित विभाग : रेलवे एवं परिवहन
- आर. के. षणमुखम चेट्टी
- पद : वित्त मंत्री
- संबंधित विभाग : वित्त
- जगजीवन राम
- पद : श्रम मंत्री
- संबंधित विभाग : श्रम
- सरदार बलदेव सिंह
- पद : रक्षा मंत्री
- संबंधित विभाग : रक्षा
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर
- पद : विधि मंत्री
- संबंधित विभाग : विधि
- राजकुमारी अमृत कौर
- पद : स्वास्थ्य मंत्री
- संबंधित विभाग : स्वास्थ्य
- सी. एच. भाभा
- पद : वाणिज्य मंत्री
- संबंधित विभाग : वाणिज्य
- रफी अहमद किदवई
- पद : संचार मंत्री
- संबंधित विभाग : संचार
- डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी
- पद : उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री
- संबंधित विभाग : उद्योग एवं आपूर्ति
- वी. एन. गाडगिल
- पद : कार्य, खान एवं ऊर्जा मंत्री
- संबंधित विभाग : कार्य, खान एवं ऊर्जा
जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला। वे पहले वायसराय की कार्यकारी परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे थे। सरदार वल्लभभाई पटेल अंतरिम सरकार में राज्यों के मामलों के मंत्री थे।
चिंतन के विभिन्न स्वरूपों एवं प्रकृति के आधार पर इसे विभिन्न भागों में बाँटा जाता है। इसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
- अभिसारी चिंतन (Convergent Thinking): इस चिंतन पद्धति में यह विश्वास किया जाता है कि किसी भी समस्या का एक ही सबसे अच्छा समाधान है एवं मौजूदा ज्ञान के आधार पर समाधान निकाला जा सकता है। अभिसारी चिंतन में किसी समस्या या प्रश्न के सुस्थापित एवं एकल समाधान पर केंद्रित होते हुए सबसे अच्छा या सही उत्तर प्राप्त करने पर बल दिया जाता है।
- अपसारी चिंतन (Divergent Thinking): अपसारी चिंतन में किसी विषय के विभिन्न पहलुओं के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिये उस विषय को विभिन्न घटकों में विभाजित किया जाता है। अपसारी चिंतन को कुछ नया या अलग उत्पन्न करने वाला रचनात्मक चिंतन माना जाता है जिसमें कोई व्यक्ति या समूह खुद को नए विचारों के लिये खुला बनाता है।
- अमूर्त चिंतन (Abstract Thinking): यह अवधारणाओं के प्रयोग एवं निर्माण के साथ-साथ किन्हीं विशिष्ट वस्तुओं या घटनाओं के संदर्भ में गुणों या पैटर्न के सामान्यीकरण या समझने की क्षमता को इंगित करता है।
- मूर्त चिंतन (Concrete Thinking): यह प्रत्यक्ष एवं वास्तविक वस्तुओं और घटनाओं के बारे में चिंतन है जिसमें सामान्यत: अवधारणाएँ और सामान्यीकरण अनुपस्थित होते हैं।
- विचारात्मक या विमर्शपूर्ण चिंतन (Reflective Thinking): यह चिंतन समालोचनात्मक चिंतन प्रक्रिया का एक हिस्सा है जोकि किसी घटना के बारे में विश्लेषण करते हुए निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को संदर्भित करता है।
- आगमनात्मक चिंतन (Inductive Thinking): इस चिंतन प्रक्रिया को ‘सामान्यीकरण’ के रूप में संदर्भित किया जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति किसी घटना या विषयवस्तु के संदर्भ में विशिष्ट विवरण या तथ्यों से प्रारंभ करते हुए निष्कर्ष के रूप में एक सामान्य सिद्धांत की ओर बढ़ा जाता है।
- निगमनात्मक चिंतन (Deductive Thinking): इस चिंतन प्रक्रिया में एक या अधिक ज्ञात सामान्य कथनों के आधार पर किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है। इस चिंतन में यह धारणा है कि यदि किसी विषयवस्तु के संदर्भ में सभी परिसर सत्य हैं तो निश्चित रूप से निष्कर्ष भी सत्य ही होगा।
- तार्किक चिंतन (Logical Thinking): यह चिंतन की एक ऐसी पद्धति है जिसमें व्यक्ति किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये लगातार तर्क का उपयोग करता है। किसी समस्या या परिस्थितियों से संबद्ध तार्किक चिंतन की गतिविधियों में तथ्यों के बीच संबंधों एवं प्रासंगिक तर्क की शृंखलाओं के स्तरीकरण की प्रक्रिया शामिल होती है।
इतिहास, संस्कृति और समाज पर प्रभाव डालने वाली प्रमुख कृतियाँ और उनके लेखक
मध्यकालीन भारत एक ऐसा काल था जिसमें सांस्कृतिक और बौद्धिक गतिविधियाँ अपने उत्कर्ष पर थीं, और इसका प्रमाण उस समय के विद्वानों, कवियों और शासकों द्वारा रचित कई साहित्यिक कृतियों में मिलता है। ये ग्रंथ उस युग के इतिहास, संस्कृति और समाज की महत्वपूर्ण झलकियाँ प्रदान करते हैं। यहाँ मध्यकालीन भारत की कुछ प्रमुख पुस्तकों और उनके लेखकों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है।
- फतुहात-ए-फिरोजशाही :
- लेखक : फिरोज शाह तुगलक
- विषयवस्तु : फिरोज शाह तुगलक के शासन और उपलब्धियों का वर्णन, जिसमें प्रशासन और सैन्य अभियानों की जानकारी दी गई है।
- खमसा :
- लेखक : अमीर खुसरो
- विषयवस्तु : पाँच कविताओं का संग्रह, जो अमीर खुसरो की साहित्यिक प्रतिभा को प्रदर्शित करता है।
- खज़ैन-उल-फुतुह :
- लेखक : अमीर खुसरो
- विषयवस्तु : इस पुस्तक में अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिण अभियानों और मंगोल आक्रमणों का विवरण।
- नूह-सिपेहर :
- लेखक : अमीर खुसरो
- विषयवस्तु : उस काल की महत्वपूर्ण घटनाओं और व्यक्तित्वों का काव्यात्मक वर्णन।
- तुगलक-नामा :
- लेखक : अमीर खुसरो
- विषयवस्तु : तुगलक वंश के उदय की घटनाओं का वर्णन।
- किताब-फाई-तहकीक :
- लेखक : अलबरूनी
- विषयवस्तु : 11वीं सदी के भारत की समाज, संस्कृति, और विज्ञान पर एक विस्तृत विवरण।
- तहकीक-ए-हिंद :
- लेखक : अलबरूनी
- विषयवस्तु : भारतीय ज्ञान और प्रथाओं पर विस्तृत टिप्पणियाँ।
- किताब-उल-रेहला :
- लेखक : इब्न बतूता
- विषयवस्तु : इब्न बतूता की यात्राओं का वर्णन, जिसमें भारत में उनके अनुभव शामिल हैं।
- शाह नामा :
- लेखक : फिरदौसी
- विषयवस्तु : फारसी राजाओं के इतिहास के विषय में जानकारी देने वाली एक पुस्तक, जिसने भारत में फारसी संस्कृति को प्रभावित किया।
- तबकात-ए-नसिरी :
- लेखक : मिन्हाज-उस-सिराज
- विषयवस्तु : इस्लामी दुनिया का व्यापक इतिहास, जिसमें भारतीय उपमहाद्वीप का भी उल्लेख है।
- हमायूँ नामा :
- लेखक : गुलबदान बेगम ( बाबर की बेटी और हुमायूँ की बहन )
- विषयवस्तु : हुमायूँ के जीवन तथा मुगल दरबार और उसकी राजनीति पर एक महिला के दृष्टिकोण से लिखा गया संस्मरण।
- भावार्थ दीपिका :
- लेखक : संत ज्ञानेश्वर
- विषयवस्तु : मराठी भाषा में लिखित भगवद गीता पर एक टिप्पणी, जो भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण है।
- तुज़ुक-ए-जहाँगीरी (आत्मकथा) :
- लेखक : जहाँगीर
- विषयवस्तु : सम्राट जहाँगीर के शासन, संस्कृति, और व्यक्तिगत जीवन की आत्मकथा।
- तारीख-ए-शेरशाही :
- लेखक : अब्बास सरवानी
- विषयवस्तु : शेर शाह सूरी की जीवनी, जिसमें उनकी प्रशासनिक उपलब्धियाँ शामिल हैं।
उपर्युक्त सभी कृतियाँ मध्यकालीन भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक परंपराओं का एक समृद्ध चित्र प्रस्तुत करती हैं, जो उस काल के प्रशाशन, समाज, राजनीति, विज्ञान तथा संस्कृति सहित विविध पक्षों और गतिशील इतिहास को दर्शाती हैं।
- लॉरियस वर्ल्ड स्पोर्ट्स अवॉर्ड
- आरंभ : पहली बार वर्ष 2000 में आयोजित किया गया।
- पुरस्कार श्रेणियाँ :
- पुरुष खिलाड़ी
- महिला खिलाड़ी
- टीम
- ब्रेकथ्रू
- कमबैक
- एक्शन
- उल्लेखनीय प्राप्तकर्ता :
- 2000 में सर्वश्रेष्ठ पुरुष खिलाड़ी के लिये गोल्फर टाइगर वुड्स।
- सर्वाधिक विजेता : टेनिस खिलाड़ी रॉजर फेडरर (5 बार 'स्पोर्ट्समैन ऑफ द ईयर')।
- मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार
- आरंभ : वर्ष 1991-92 में।
- वर्ष 2021 में महान हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद के नाम पर।
- पुरस्कार राशि : ₹25 लाख।
- प्रथम प्राप्तकर्ता : विश्वनाथन आनंद।
- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ट्रॉफी (MAKA)
- आरंभ : वर्ष 1956-57 में।
- पुरस्कार : अंतरविश्वविद्यालयी प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले विश्वविद्यालयों को प्रदान किया जाता है।
- ध्यानचंद पुरस्कार
- आरंभ : 2002 में।
- पुरस्कार राशि : ₹10 लाख।
- उद्देश्य : उन खिलाड़ियों को सम्मानित करना जिन्होंने अपने खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और संन्यास लेने के बाद भी खेल की उन्नति में योगदान दिया।
- विशेष : हर साल अधिकतम तीन खिलाड़ियों को ही यह पुरस्कार दिया जा सकता है।
- अर्जुन पुरस्कार
- आरंभ : वर्ष 1961 से।
- पुरस्कार राशि : ₹15 लाख।
- उद्देश्य : पिछले 4 वर्षों और सिफारिश वाले वर्ष में अच्छे प्रदर्शन, नेतृत्व और अनुशासन दिखाने वाले खिलाड़ियों को सम्मानित करना।
- विशेष : हर साल अधिकतम 15 अर्जुन पुरस्कार दिए जा सकते हैं।
- द्रोणाचार्य पुरस्कार
- आरंभ : वर्ष 1985 में।
- उद्देश्य : उन प्रशिक्षकों (कोच) को सम्मानित करना जिन्होंने खिलाड़ियों और टीमों को अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिये प्रशिक्षित किया।
- पुरस्कार राशि :
- द्रोणाचार्य पुरस्कार (रेगुलर) - ₹10 लाख।
- द्रोणाचार्य पुरस्कार (लाइफ टाइम) - ₹15 लाख।
भौगोलिक डेटा का सटीक विश्लेषण
मानचित्र पर विभिन्न रेखाएँ खींचकर भूगोल की महत्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की जाती है। इन रेखाओं के द्वारा समान विशेषताओं वाले स्थानों को जोड़ा जाता है, जिससे भौगोलिक अध्ययन और विश्लेषण आसान हो जाता है। इन रेखाओं के विभिन्न प्रकार और उनके उपयोग निम्नलिखित हैं:
- समलवण रेखा (Isohaline): यह रेखा महासागर के उन स्थानों को जोड़ती है जहाँ लवणता समान होती है। यह समुद्री मानचित्रों पर खींची जाती है और समुद्री जल के लवणीय वितरण का अध्ययन करने में सहायक होती है।
- समदाब रेखाएँ (Isobars): यह रेखाएँ उन स्थानों को जोड़ती हैं जहाँ वायुदाब समान होता है। मौसम विज्ञान में इन रेखाओं का प्रयोग वायुदाब के वितरण और तूफानों के मार्ग का अनुमान लगाने के लिये किया जाता है।
- समगहरी रेखाएँ (Isobaths): समुद्र की समान गहराई वाले स्थानों को जोड़ने के लिये यह रेखाएँ उपयोग की जाती हैं। समुद्र की गहराई का अध्ययन और समुद्री नक्शों का निर्माण इस प्रकार की रेखाओं से होता है।
- सममान रेखा (Isopleth): यह रेखा मानचित्र के उन बिंदुओं को जोड़ती है जहाँ किसी निश्चित तत्त्व का मान समान होता है। इसका उपयोग विभिन्न भौगोलिक विशेषताओं के अध्ययन के लिये किया जाता है, जैसे जनसंख्या घनत्व, कृषि उत्पादकता आदि।
- समधूप रेखा (Isohel): यह रेखा उन स्थानों को जोड़ती है जहाँ धूप की अवधि समान होती है। इसका उपयोग सौर ऊर्जा के अध्ययन और मौसम विज्ञान में होता है।
- समताप रेखा (Isotherm): समान तापमान वाले स्थानों को जोड़ने वाली यह रेखाएँ मौसम के नक्शों में खींची जाती हैं। यह तापमान वितरण का अध्ययन करने और मौसम की भविष्यवाणी में सहायक होती हैं।
- समोच्च रेखाएँ(कंटूर रेखाएँ) (Isohypses lines): यह रेखाएँ समान ऊँचाई वाले बिंदुओं को जोड़ती हैं। भू-भाग की ऊँचाई और ढलान का अध्ययन करने के लिये यह रेखाएँ महत्वपूर्ण होती हैं।
- समवर्षा रेखाएँ (Isohyetes): यह रेखाएँ उन स्थानों को जोड़ती हैं जहाँ वर्षा की मात्रा समान होती है। इन रेखाओं का उपयोग वर्षा के वितरण का अध्ययन करने और जलवायु विज्ञान में किया जाता है।
इन रेखाओं का प्रयोग करके भूगोलवेत्ता विभिन्न भौगोलिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का विश्लेषण करते हैं, जिससे हमें पृथ्वी की सतह पर होने वाले परिवर्तनों को समझने में मदद मिलती है।
प्रमुख वाद्य यंत्रों का वर्गीकरण
- तार वाद्य (String Instruments)
- सितार (Sitar) :
- भारतीय तंतुवाद्य यंत्र, जिसमें 7 मुख्य और 11 सहायक तार होते हैं। सितार पूर्ण भारतीय वाद्य है क्योंकि इसमें भारतीय वाद्योँ की तीनों विशेषताएं हैं, जिसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है।
- वायलिन (Violin) :
- एक bowed तार वाद्य यंत्र, जिसमें चार तार होते हैं। इसे आर्च (bow) से बजाया जाता है और यह शास्त्रीय, जैज़ और अन्य शैलियों में उपयोग होता है।
- गिटार (Guitar) :
- एक तार वाद्य यंत्र, जिसमें 6 तार होते हैं। इसे प्लकिंग या स्ट्रमिंग द्वारा बजाया जाता है और यह कई संगीत शैलियों में प्रयोग होता है।
- संतूर (Santoor) :
- एक भारतीय तार वाद्य यंत्र, जिसमें 72 तार होते हैं। इसे हिटर्स से बजाया जाता है, और यह मुख्य रूप से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रयोग होता है।
- यूकुलेले (Ukulele) :
- गिटार जैसा दिखने वाला एक छोटा हवाई वाद्य यंत्र, जिसमें 4 तार होते हैं। इसे स्ट्रमिंग से बजाया जाता है और यह अपने छोटे आकार और विशिष्ट ध्वनि के लिये प्रसिद्ध है।
- बैंजो (Banjo) :
- एक तंतुवाद्य यंत्र, जिसका गोलाकार आकार और फ्रीटेड नेक होता है। इसमें 4 से 6 तार होते हैं और यह विशेषकर फोक और ब्लूग्रास संगीत में उपयोग होता है।
- सुरबहार (Surbahar) :
- सितार का बड़ा संस्करण, जिसे धीमे रागों के लिये प्रयोग किया जाता है। इसमें गहरा और संगीनी स्वर होता है और यह वाद्य यंत्र संगीत में गहराई प्रदान करता है।
- सितार (Sitar) :
- ताल वाद्य (Percussion Instruments)
- तबला (Tabla) :
- एक भारतीय पर्कशन यंत्र (आघात द्वारा बजाया जाने वाला यंत्र), जिसमें दो ड्रम होते हैं। एक ड्रम बायां और दूसरा दायां होता है, और इसे हाथों से बजाया जाता है।
- संगीत ड्रम्स (Drums) :
- एक पर्कशन वाद्य यंत्र(आघात द्वारा बजाया जाने वाला यंत्र) का समूह, जिसमें विभिन्न आकार के ड्रम और साइम्बल्स होते हैं। यह ताल और बीट को बनाए रखने के लिये उपयोग होता है।
- खँजड़ी/खँजरी (Tambourine) :
- एक हाथ से पकड़ा जाने वाला पर्कशन वाद्य यंत्र(आघात द्वारा बजाया जाने वाला यंत्र), जिसमें धातु की जिंगल्स होती हैं। इसे झटका या हिला कर बजाया जाता है, और यह संगीत में ताल जोड़ने के लिये प्रयोग होता है।
- तबला (Tabla) :
- वायु वाद्य (Wind Instruments)
- शहनाई (Shehnai) :
- एक भारतीय वायु वाद्य यंत्र, जिसका एक लंबा, नली जैसा आकार होता है। इसे वायु द्वारा बजाया जाता है और यह पारंपरिक भारतीय संगीत में उपयोग होता है।
- फ्लूट (Flute) :
- एक वुडविंड वाद्य यंत्र, जिसे एक छिद्र के पार हवा फेंक कर बजाया जाता है। इसकी हल्की और मीठी ध्वनि को कई संगीत शैलियों में प्रयोग किया जाता है।
- शेफर्ड (Saxophone) :
- एक ब्रास वायु वाद्य यंत्र, जिसमें सिंगल-रीड माउथपीस होता है। इसका उपयोग जैज़, क्लासिकल और पॉप संगीत में होता है।
- हर्न (Horn) :
- एक ब्रास वायु वाद्य यंत्र, जिसमें गोलाकार आकार होता है। इसका उपयोग ओर्केस्ट्रा में गहरे और समृद्ध ध्वनि के लिये किया जाता है।
- शहनाई (Shehnai) :
- कीबोर्ड वाद्य (Keyboard Instruments)
- पियानो (Piano) :
- एक कीबोर्ड वाद्य यंत्र, जिसमें स्ट्रिंग्स को हैमर्स द्वारा बजाया जाता है। यह विभिन्न शैलियों में एकल और समूह संगीत के लिये उपयोग होता है।
- हारमोनियम (Harmonium) :
- एक कीबोर्ड वाद्य यंत्र, जिसमें हवा को रीट्स के माध्यम से पास होने पर ध्वनि उत्पन्न होती है। यह भारतीय शास्त्रीय और भक्ति संगीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- पियानो (Piano) :
प्रमुख आंदोलन और उनके नेतृत्त्वकर्त्ता
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई महत्वपूर्ण आंदोलन हुए, जिनमें अलग-अलग नेताओं ने भूमिका निभाई। यहाँ कुछ प्रमुख आंदोलनों और उनसे संबंधित नेता, वर्ष, तथा स्थान के विषय मे जानकारी दी गई है :
- स्वदेशी आंदोलन (1905-1908)
- नेता : बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय (लाल-बाल-पाल)
- वर्ष : 1905-1908
- स्थान : पूर्वी बंगाल और आसपास के क्षेत्र
- चंपारण सत्याग्रह (1917)
- नेता : महात्मा गांधी
- वर्ष : 1917
- स्थान : चंपारण, बिहार
- खिलाफत आंदोलन (1919-1924)
- नेता : मौलाना मोहम्मद अली, मौलाना शौकत अली
- वर्ष : 1919-1924
- स्थान : संपूर्ण भारत
- असहयोग आंदोलन (1920-1922)
- नेता : महात्मा गांधी
- वर्ष : 1920-1922
- स्थान : संपूर्ण भारत
- सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-1934)
- नेता : महात्मा गांधी
- वर्ष : 1930-1934
- स्थान : संपूर्ण भारत
- विशेष घटना : दांडी मार्च (1930)
- भारत छोड़ो आंदोलन (1942)
- नेता : महात्मा गांधी
- वर्ष : 1942
- स्थान : संपूर्ण भारत
- बारदोली सत्याग्रह (1928)
- नेता : सरदार वल्लभभाई पटेल
- वर्ष : 1928
- स्थान : बारदोली, गुजरात
- दांडी मार्च (1930)
- नेता : महात्मा गांधी
- वर्ष : 1930
- स्थान : दांडी, गुजरात
- काकोरी कांड (1925)
- नेता : राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, चंद्रशेखर आज़ाद
- वर्ष : 1925
- स्थान : काकोरी, उत्तर प्रदेश
- आजाद हिंद फौज (1943-1945)
- नेता : सुभाष चंद्र बोस
- वर्ष : 1943-1945
- स्थान : पूरा भारत और अन्य देश
ये आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण कड़ी रहे हैं और इन्होंने देश को आज़ादी दिलाने में अहम योगदान दिया। हर एक आंदोलन ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ICC पुरुष T20 विश्व कप एक वैश्विक क्रिकेट टूर्नामेंट है जिसमें T20 प्रारूप में सर्वश्रेष्ठ टीमें हिस्सा लेती हैं। 2007 में अपनी शुरुआत के बाद से, इसमें कई रोमांचक मैच और असाधारण प्रदर्शन देखने को मिले हैं। प्रमुख विजेताओं में भारत, वेस्टइंडीज और इंग्लैंड शामिल हैं, जबकि 2024 का संस्करण वेस्टइंडीज और अमेरिका में आयोजित किया गया, जिसमें भारत ने दक्षिण अफ्रीका को हराकर दूसरी बार ICC पुरुष T20 विश्वकप में जीत दर्ज की।
- 2007 (द. अफ्रीका)
- विजेता: भारत
- उपविजेता: पाकिस्तान
- भारत ने फाइनल में पाकिस्तान को हराकर ICC पुरुष T20 विश्व कप टूर्नामेंट के प्रथम संस्करण में जीत दर्ज की।
- 2009 (इंग्लैंड)
- विजेता: पाकिस्तान
- उपविजेता: श्रीलंका
- पाकिस्तान ने इंग्लैंड में अपनी पहली T20 विश्वकप जीत दर्ज की।
- 2010 (वेस्टइंडीज)
- विजेता: इंग्लैंड
- उपविजेता: ऑस्ट्रेलिया
- इंग्लैंड ने वेस्टइंडीज में अपना पहला T20 विश्वकप खिताब जीता।
- 2012 (श्रीलंका)
- विजेता: वेस्टइंडीज
- उपविजेता: श्रीलंका
- वेस्टइंडीज ने श्रीलंका में आयोजित टूर्नामेंट में अपनी दूसरी T20 विश्वकप जीत प्राप्त की।
- 2014 (बांग्लादेश)
- विजेता: श्रीलंका
- उपविजेता: भारत
- श्रीलंका ने बांग्लादेश में अपने पहले T20 विश्वकप खिताब की रक्षा की।
- 2016 (भारत)
- विजेता: वेस्टइंडीज
- उपविजेता: इंग्लैंड
- वेस्टइंडीज ने भारत में आयोजित टूर्नामेंट में अपना दूसरा T20 विश्वकप जीता।
- 2021 (संयुक्त अरब अमीरात, ओमान)
- विजेता: ऑस्ट्रेलिया
- उपविजेता: न्यूजीलैंड
- ऑस्ट्रेलिया ने UAE और ओमान में आयोजित टूर्नामेंट में अपनी पहली T20 विश्वकप जीत हासिल की।
- 2022 (ऑस्ट्रेलिया)
- विजेता: इंग्लैंड
- उपविजेता: पाकिस्तान
- इंग्लैंड ने ऑस्ट्रेलिया में आयोजित टूर्नामेंट में अपना दूसरा T20 विश्वकप जीता।
- 2024 (वेस्टइंडीज, अमेरिका)
- विजेता: भारत
- उपविजेता: दक्षिण अफ्रीका
- भारत ने अपना दूसरा T20 विश्व कप खिताब जीतते हुए दक्षिण अफ्रीका को 7 रनों से हराया, और इंग्लैंड और वेस्टइंडीज के साथ T20 विश्व कप में सबसे अधिक खिताब जीतने की बराबरी की।
2024 का ICC पुरुष T20 विश्व कप टूर्नामेंट का नौवां संस्करण था। 1 से 29 जून, 2024 तक वेस्टइंडीज और संयुक्त राज्य अमेरिका ने मिलकर इसका आयोजन किया। यह वेस्टइंडीज द्वारा दूसरी बार आयोजित किया गया था, और यह पहला प्रमुख ICC टूर्नामेंट था जिसमें अमेरिका में भी मैच खेले गए।
कार्य, मुख्यालय, और वैश्विक प्रभाव
- संयुक्त राष्ट्र (United Nations - UN)
- मुख्यालय: न्यूयॉर्क, अमेरिका
- कार्य: विश्व शांति और सुरक्षा बनाए रखना, मानवाधिकार की रक्षा करना, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना, सामाजिक और आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund - IMF)
- मुख्यालय: वाशिंगटन डी.सी., अमेरिका
- कार्य: वैश्विक आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देना, सदस्य देशों को वित्तीय सहायता और सलाह प्रदान करना, और आर्थिक नीतियों के समन्वय में मदद करना।
- विश्व बैंक (World Bank)
- मुख्यालय: वाशिंगटन डी.सी., अमेरिका
- कार्य: विकासशील देशों को परियोजना वित्तपोषण, तकनीकी सहायता, और नीतिगत सलाह प्रदान करना, गरीबी में कमी लाना और सतत विकास को बढ़ावा देना।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization - WHO)
- मुख्यालय: जिनेवा, स्विट्जरलैंड
- कार्य: वैश्विक स्वास्थ्य मानकों को निर्धारित करना, महामारी और अन्य स्वास्थ्य आपात स्थितियों से निपटना, और स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करना।
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization - ILO)
- मुख्यालय: जिनेवा, स्विट्जरलैंड
- कार्य: श्रमिक अधिकारों की सुरक्षा, श्रमिक मानक को बढ़ावा देना, और कामकाजी स्थितियों में सुधार लाना।
- यूनिसेफ (United Nations International Children's Emergency Fund - UNICEF)
- मुख्यालय: न्यूयॉर्क, अमेरिका
- कार्य: बच्चों के अधिकारों की रक्षा, उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, और सुरक्षा को बढ़ावा देना, और आपातकालीन सहायता प्रदान करना।
- यूरोपीय संघ (European Union - EU)
- मुख्यालय: ब्रुसेल्स, बेल्जियम
- कार्य: आर्थिक और राजनीतिक एकता को बढ़ावा देना, सदस्य देशों के बीच सहयोग और समन्वय को बढ़ावा देना, और सामूहिक नीतियों को लागू करना।
- नाटो (North Atlantic Treaty Organization - NATO)
- मुख्यालय: ब्रुसेल्स, बेल्ज़ियम
- कार्य: सदस्य देशों की सामूहिक रक्षा, सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा देना, और आपसी सुरक्षा के लिए रणनीतियों को विकसित करना।
- अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (International Criminal Court - ICC)
- मुख्यालय: द हेग, नीदरलैंड्स
- कार्य: अंतर्राष्ट्रीय अपराधों की सुनवाई और दंड, जैसे युद्ध अपराध, मानवता के खिलाफ अपराध, और नरसंहार।
- अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (International Energy Agency - IEA)
- मुख्यालय: पेरिस, फ्राँस
- कार्य: वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा को बढ़ावा देना, ऊर्जा नीतियों और रणनीतियों के विकास में सहायता, और ऊर्जा के क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाना।
- अंतर्राष्ट्रीय सोलर अलायंस (International Solar Alliance - ISA)
- मुख्यालय: गुरुग्राम, भारत
- कार्य: सौर ऊर्जा के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना, सौर ऊर्जा प्रौद्योगिकियों का विस्तार और उनके उपयोग को प्रोत्साहित करना, और विकासशील देशों को सौर ऊर्जा परियोजनाओं में सहायता प्रदान करना।
शिक्षा मनोविज्ञान में अधिगम या सीखने में उन्हीं व्यवहार परिवर्तनों को शामिल किया जाता है जो निरंतर अभ्यास एवं व्यापक अनुभव के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं एवं इन परिवर्तनों का उद्देश्य बालक को समाज से कुशल सामंजस्य स्थापित करना होता है।
गेट्स के अनुसार, ‘‘अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया अधिगम कहलाती है।’’
- अधिगम सिद्धांतों को मुख्यतः दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
- उद्दीपक अनुक्रिया (Stimulus Response: SR) सिद्धांत : सीखने के क्रम में बालक द्वारा विभिन्न उद्दीपनों के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है जिसके परिणामस्वरूप उसके व्यवहार में परिवर्तन होता है। उद्दीपक अनुक्रिया सिद्धांत द्वारा इन्हीं परिवर्तनों की व्याख्या की जाती है। इस सिद्धांत के प्रवर्तकों में निम्नलिखित मनोवैज्ञानिकों को शामिल किया जाता है-
- पॉवलॉव के सीखने का क्लासिकल अनुबंधन सिद्धांत
- ई.एल. थॉर्नडाइक का सिद्धांत
- हल का सिद्धांत
- स्किनर का सिद्धांत
- संज्ञानात्मक एवं संगठनात्मक सिद्धांत (Cognitive and Organisational Theory) : बालक द्वारा सीखने के संदर्भ में सीखने का क्षेत्र एवं परिवेश भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संज्ञानात्मक एवं संगठनात्मक सिद्धांत के अंतर्गत बालक और उसके परिवेश एवं उसमें उत्परिवर्तन को शामिल करते हुए बालक द्वारा प्रत्यक्षीकरण व्यवहार को शामिल किया जाता है। इस प्रक्रिया में बालक द्वारा सीखने के क्रम में अंतदृष्टि, सीखने का उद्देश्य एवं सूझबूझ को महत्त्व दिया जाता है। इस सिद्धांत के तहत निम्नलिखित मनोवैज्ञानिकों के सिद्धांतों को शामिल किया जाता है-
- गेस्टाल्ट का सिद्धांत
- कोहलर का अंतर्दृष्टि सिद्धांत
- लेविन का सिद्धांत
- उद्दीपक अनुक्रिया (Stimulus Response: SR) सिद्धांत : सीखने के क्रम में बालक द्वारा विभिन्न उद्दीपनों के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है जिसके परिणामस्वरूप उसके व्यवहार में परिवर्तन होता है। उद्दीपक अनुक्रिया सिद्धांत द्वारा इन्हीं परिवर्तनों की व्याख्या की जाती है। इस सिद्धांत के प्रवर्तकों में निम्नलिखित मनोवैज्ञानिकों को शामिल किया जाता है-
भौतिकी में विभिन्न मापन उपकरणों का उपयोग किया जाता है। यहां कुछ प्रमुख उपकरणों और उनके कार्यों की सूची दी गई है :
- पोटेंशियोमीटर :
- कार्य : सेल के इलेक्ट्रोमोटिव बल (emf), दो बिंदुओं के बीच विभवांतर, और सेल की आंतरिक प्रतिरोध को मापता है।
- उपयोग : वोल्टमीटर और एम्पीयरमीटर की कैलिब्रेशन में।
- गैलवनोमीटर :
- कार्य : गैलवनोमीटर एक ऐसा उपकरण है जो किसी परिपथ में विद्युत धारा की उपस्थिति संसूचित करता है।
- उपयोग : परिपथ में धारा की उपस्थिति और उसकी मात्रा को दर्शाने के लिये।
- एमीटर :
- कार्य : परिपथ में श्रेणीक्र्म में जोड़ा जाता है, जो विद्युत धारा को मापता है।
- उपयोग : परिपथ में विद्युत धारा मापने में।
- वोल्टमीटर :
- कार्य : परिपथ में दो बिंदुओं के बीच विभवांतर को मापता है।
- उपयोग : वोल्टेज मापने के लिये समानांतर में जोड़ा जाता है।
- स्पेक्ट्रोमीटर :
- कार्य : विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम के एक विशिष्ट हिस्से में प्रकाश के गुणों को मापता है।
- उपयोग : भौतिकी और रसायन विज्ञान में प्रकाश की वर्णक्रमीय संरचना का विश्लेषण करने के लिये।
- थर्मामीटर :
- कार्य : तापमान को मापता है।
- उपयोग : विभिन्न वैज्ञानिक और औद्योगिक संदर्भों में।
- बैरोमीटर :
- कार्य : वायुमंडलीय दबाव को मापता है।
- उपयोग : मौसम पूर्वानुमान के लिये।
- हाइड्रोमीटर :
- कार्य : तरल पदार्थों का घनत्व (विशिष्ट गुरुत्व) मापता है।
- उपयोग : विभिन्न उद्योगों में, जैसे कि बैटरी निर्माण।
- लेजर रेंजफाइंडर :
- कार्य : लेजर किरणों का उपयोग करके दूरी मापता है।
- उपयोग : सर्वेक्षण, नेविगेशन और विभिन्न वैज्ञानिक अनुप्रयोगों में।
- टैकोमीटर :
- कार्य : शाफ्ट या डिस्क की घूर्णन गति को मापता है।
- उपयोग : ऑटोमोटिव और यांत्रिक इंजीनियरिंग में।
ये उपकरण विभिन्न प्रयोगों, सटीक मापन और विभिन्न भौतिकी के सिद्धांतों का परीक्षण करने के लिये आवश्यक हैं।
बच्चों में समाजीकरण की प्रक्रिया में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका परिवार की होती है। परिवार के बाद क्रमश: विद्यालय और शिक्षक आते हैं। विद्यालय में समाजीकरण की प्रक्रिया का संपादन शिक्षक एवं उसके सहयोगियों द्वारा किया जाता है। बच्चों में समाजीकरण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण शिक्षकों से अपेक्षा होती है कि वे बच्चों के सर्वांगीण विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभाएँ। संक्षेप में शिक्षक निम्नलिखित तरीकों से बच्चों में समाजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है-
- व्यक्तित्व का विकास : बच्चों में सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया विद्यालय में प्रवेश से प्रारंभ होती है। विद्यालय में बच्चा परिवार की तुलना में अत्यधिक लोगों के संपर्क मे आता है। यहाँ पर बच्चा शिक्षकों, मित्रों तथा पुस्तकों से काफी कुछ सीखता है जो उसके व्यक्तित्व के विकास के साथ उसके समाजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती हैं।
- अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान : शिक्षक के द्वारा अध्यापन के क्रम में बच्चों को उनके अधिकारों, कर्त्तव्य एवं दायित्वों को बतलाया जाता है। अपने अधिकारों, कर्त्तव्य एवं दायित्वों को जानने के उपरांत बच्चा इनका अनुकरण एवं अपने व्यवहार में शामिल करना प्रारंभ कर देता है।
- संस्कृति का ज्ञान : शिक्षक द्वारा बच्चों को अपनी संस्कृति, सभी प्रचलित धर्मों, सामाजिक मान्यताओं आदि को विस्तृत रूप से समझाया जाता है। अपनी समृद्ध संस्कृति और विरासत का ज्ञान बच्चों में समाजीकरण को बढ़ावा देता है।
- अनुशासन : विद्यालय में अध्ययन करने वाले सभी छात्रों को विद्यालय के नियमों का पालन करना पड़ता है। नियमों के पालन से छात्रों में अनुशासन की भावना का विकास होता है जो बच्चों में समाजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है।
- सामाजिक संपर्क का विस्तार : विद्यालय में विद्यार्थी विभिन्न पृष्ठभूमियों से संबंधित लोगों के संपर्क में आता है। यह बच्चों के सामाजिक संपर्क के दायरे का विस्तार करता है जो कि समाजीकरण का एक प्रमुख तत्त्व है।
- समायोजन : किसी व्यक्ति के समाजीकरण के मापन का एक प्रमुख तत्त्व समायोजन होता है। विद्यालय में अध्ययन के दौरान बच्चा विभिन्न पृष्ठभूमियों से संबंधित लोगों एवं बच्चों के साथ अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हुए समायोजन को सीखता है।
बच्चों के सामाजिक विकास और वृद्धि को कई कारक प्रभावित करते हैं जिनमें कुछ व्यक्तिगत कारकों से संबंधित होते हैं जबकि कुछ वातावरण से संबंधित होते हैं। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं-
- परिवार का वातावरण : बच्चों के समाजीकरण में परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि समाजीकरण का प्रारंभिक पाठ परिवार में ही प्रारंभ होता है। यहाँ बच्चा माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों से सामाजिकता सीखना प्रारंभ करता है। माता-पिता का बच्चों के समाजीकरण पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।
- शारीरिक संरचना और स्वास्थ्य : एक स्वस्थ और मज़बूत शारीरिक संरचना वाले बच्चे आत्मविश्वास एवं आत्मगौरव से युक्त होते हैं। ऐसे बच्चों में विपरीत परिस्थितियों और चुनौतीपूर्ण वातावरण में स्वयं को समायोजित करने की पूरी योग्यता व क्षमता विद्यमान होती है। वहीं दूसरी ओर, शारीरिक दृष्टि से कमज़ोर, अस्वस्थ एवं शारीरिक दोषों से ग्रस्त बच्चों में हीन भावना उच्च स्तर पर पाई जाती है जिसके कारण इनका सामाजिक विकास एवं सामाजिक समायोजन काफी मुश्किल होता है।
- बौद्धिक विकास : नवीन वातावरण, विपरीत परिस्थितियों और चुनौतीपूर्ण परिवेश के अनुसार स्वयं का समायोजन करने की योग्यता और क्षमता को ‘बुद्धि’ कहते हैं। इस क्रम में सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से बौद्धिक विकास काफी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जो बच्चा जितना ज़्यादा बुद्धिमान होगा वह उतनी ही कुशलता से सामाजिक परिवेश में स्वयं को समायोजित कर सकेगा।
- वंशानुक्रम : बाल-मनोवैज्ञानिक विद्वानों द्वारा इस तथ्य को रेखांकित किया गया है कि बच्चों के सामाजिक विकास पर कुछ सीमा तक वंशानुक्रम का प्रभाव पडता है। क्रो एवं क्रो के अनुसार, ‘‘शिशु की पहली मुस्कान या उनका कोई विशिष्ट व्यवहार वंशानुक्रम से उत्पन्न होने वाला हो सकता है।’’
- संवेगात्मक विकास : बच्चों के संवेगात्मक और सामाजिक विकास में सकारात्मक संबंध पाया जाता है। जो बच्चे तात्कालिक परिवेश के अनुसार अपने संवेगों के कुशल प्रबंधन की क्षमता रखते हैं वे सामाजिक रूप से काफी सक्रिय एवं व्यवहार-कुशल होते हैं। वहीं दूसरी ओर संवेगात्मक रूप से जिन व्यक्तियों का समायोजन उचित नहीं होता वे सामाजिक बुराइयों और दोषों से ग्रस्त रहते हैं।
- बच्चे का व्यक्तित्व : प्रत्येक बच्चे का व्यक्तित्व एकसमान नहीं होता है। कुछ बच्चे अंतर्मुखी स्वभाव के होते हैं जबकि कुछ बहिर्मुखी स्वभाव के। प्राय: यह पाया गया है कि अंतर्मुखी स्वभाव वाले बच्चों की तुलना में बहिर्मुखी स्वभाव वाले बच्चों की लोकप्रियता अधिक होती है क्योंकि उनमे कई सकारात्मक गुण होते हैं, जैसे- आत्मविश्वास, नेतृत्व की भावना, विस्तृत सामाजिक दायरा, प्रसन्नचित्त व मिलनसार होना आदि।
- विद्यालय : स्वस्थ सामाजिक और प्रजातांत्रिक मूल्यों से युक्त शिक्षण पद्धति बच्चों के सामाजिक विकास की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऐसे मूल्यों को पोषित करने वाले विद्यालय बच्चों में सामाजिक विकास की प्रक्रिया को काफी तीव्र कर देते हैं। वहीं दूसरी ओर ऐसे विद्यालय जो स्वस्थ सामाजिक और प्रजातांत्रिक मूल्यों से विमुख रहते हैं वे विद्यार्थियों को पथभ्रष्ट कर देते हैं।
- मित्र-समूह का प्रभाव : बच्चों में सामाजिकता विकसित करने के क्रम में मित्र-मंडली की भूमिका का काफी महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। बच्चों पर मित्र-मंडली की संगत का असर काफी तीव्रता से पड़ता है जो उनमें विभिन्न प्रकार के सामाजिक सद्गुणों या फिर दुर्गुणों को भर सकती है।
- पड़ोस और समुदाय : बच्चों के सामाजिक जीवन पर उनके पड़ोसियों की अभिवृत्तियों, पसंद, आदतों, गुणों तथा अवगुणों आदि का व्यापक प्रभाव पड़ता है। इसी के साथ समाज की धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं के प्रचलित मान्य व्यवहारों, जैसे- रहन-सहन, भाषा, खान-पान का बच्चा अनुकरण करता है।
- मनोरंजन और सूचना के साधन : किसी भी समाज में जीवन के मूल्यों, आदर्शों, संस्कृति एवं मान्य सामाजिक व्यवहार का प्रचार-प्रसार करने में पत्र एवं पत्रिकाओं, पुस्तकों, रेडियो, सिनेमा, टेलीविज़न आदि काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं। ऐसे साधन समाजीकरण की प्रक्रिया को व्यापक और समावेशी बनाते हैं।
- परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति : समाज में जिस परिवार या वर्ग का सामाजिक-आर्थिक स्तर उच्च होता है वहाँ बच्चों का उच्चतम सामाजिक विकास होता है। अच्छी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण ऐसे परिवार के बच्चों में आत्मविश्वास ज़्यादा होता है एवं वे आसानी से समाज के दूसरे सदस्यों से संबंध बना लेते हैं।
- लिंगभेद : समाज में प्रचलित लिंगभेद का स्तर भी बच्चों के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करता है। पितृसत्तात्मक समाज में प्राय: बालिकाओं में अत्यधिक मात्रा में सहनशक्ति, सहिष्णुता,सहानुभूति और त्याग की भावना पाई जाती है। वहीं पितृसत्तात्मक समाज के बालक कम सहनशील तथा कठोर प्रवृत्ति के गुणों से युक्त होते हैं।
- परिवार : परिवार समाजीकरण का प्राथमिक और सबसे महत्त्वपूर्ण स्थायी अभिकर्त्ता है। परिवार को ‘सामाजिक सद्गुणों का पालना’ (Cradle of Social Virtues) कहा जाता है क्योंकि यहीं पर सहयोग, सहिष्णुता, आत्म-बलिदान, प्रेम और स्नेह जैसे मूल मूल्यों के प्रति बच्चे का रुझान विकसित होता है। परिवार काफी हद तक बच्चे की नस्ल, भाषा, धर्म, वर्ग और राजनीतिक संबद्धता को निर्धारित कर बच्चे में आत्म-अवधारणा का निर्माण करता है तथा उसे मानव समुदाय के सदस्य के रूप में बदल देता है। ।
- मित्र मंडली या साथी समूह : समाजीकरण पर मित्र मंडली का व्यापक प्रभाव होता है। बच्चे खेल-खेल में अपनी मित्र मंडली के साथ प्रभुत्व, नेतृत्व, सहयोग, समझौता आदि विभिन्न कौशलों को विकसित करते हैं।
- पड़ोस : पड़ोस को एक स्थानीय सामाजिक इकाई कहा जा सकता है जहाँ एक-दूसरे के पास रहने वाले लोगों या एक ही इलाके के लोगों के बीच निरंतर संपर्क होता है। ऐसी स्थानिक इकाइयों में प्रत्यक्ष संवाद द्वारा अंत:क्रिया होती है। स्थानीय सामाजिक इकाइयों में बच्चे बड़े होते हैं एवं पड़ोस के लोगों के व्यवसाय कौशल, सदस्यों के गुणों, अनुशासन और व्यवस्थित व्यवहार को आत्मसात करते हैं।
- विद्यालय : विद्यालय एक लघु समाज है जहाँ विभिन्न परिवारों, विभिन्न धर्मों, विभिन्न जातियों और आर्थिक स्थिति के बच्चे एक साथ आते हैं, सामूहिक गतिविधियों में भाग लेते हैं और समाज में समायोजन करना सीखते हैं। इसके साथ ही बच्चे ने अब तक परिवार, साथियों के समूह या समुदाय के माध्यम से जो कुछ भी सीखा है वह विद्यालय में स्थायी हो जाता है।
- धर्म (Religion): दुर्खीम ने धर्म को ‘पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों और प्रथाओं की एकीकृत प्रणाली के रूप में परिभाषित किया है।’ जिन लोगों में समान सामान्य विश्वास और प्रथाएँ मौजूद हैं, वे धर्म के माध्यम से एक ही नैतिक समुदाय में एकजुट होते हैं। धर्म सामूहिक विश्वास को सामूहिक पहचान प्रदान करता है। धार्मिक अनुष्ठान, जैसे- विवाह, समाधि, जन्मदिवस समारोह और त्यौहार लोगों को एक साथ लाते हैं जिसमें वे अपने समूहों के साथ एकजुटता व्यक्त करते हैं। धर्म मनुष्य के बीच पवित्रता, सत्य, एकजुटता और सद्भाव के गुणों को रेखांकित करता है।
- सामाजिक वर्ग : समाजीकरण और सामाजिक वर्ग के बीच घनिष्ठ संबंध है। सामाजिक वर्ग न तो कानूनी रूप से परिभाषित है और न ही धार्मिक रूप से स्वीकृत। एक सामाजिक वर्ग को ऐसे लोगों के एक समूह द्वारा चिह्नित किया जाता है जो धन, आय, शिक्षा और व्यवसाय जैसे कारकों के संबंध में समान स्थिति साझा करते हैं। इन वर्गों में से प्रत्येक की अपनी मान्यताएँ, दृष्टिकोण, राय और विश्वदृष्टि होती है। लक्ष्यों के निर्धारण के संदर्भ में भी सामाजिक वर्ग काफी प्रासंगिक होता है।
- वैश्विक समुदाय : हम आविष्कारों और नवाचारों के युग में रहते हैं। संचार एवं बढ़ती मानव गतिशीलता के कारण वैश्विक समुदाय अब वैश्विक गाँव की ओर रूपांतरित हो रहे हैं। सूचना तक पहुँच में वृद्धि लोगों के सांस्कृतिक अवसरों में वृद्धि को जन्म देकर मानवता का संवर्द्धन कर रही है। ऐतिहासिक काल से, सांस्कृतिक अवसर यथोचित रूप से समृद्ध या संपन्न लोगों के लिये विशेषाधिकार होते थे, किंतु अब ये दुनिया भर में व्यापक रूप से सबके लिये स्वतंत्र रूप से एवं आसानी से उपलब्ध हैं। इससे समाजीकरण की प्रक्रिया के ज़्यादा व्यापक होने की संभावना बढ़ गई है।
- मास मीडिया या जनसंचार (Mass Media): मास मीडिया बड़े पैमाने पर सूचना के प्रसारण और अत्यधिक दर्शकों या बड़ी संख्या में लोगों तक पहुँचने का एक माध्यम है। पिछले कुछ दशकों में मास मीडिया द्वारा काफी तेज़ी से समाजीकरण की प्रक्रिया का संपादन किया गया है, मास मीडिया में प्रिंट मीडिया, जैसे- किताबें, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ आदि और गैर-प्रिंट मीडिया, जैसे- रेडियो, टेलीविज़न एवं फिल्में दोनों शामिल हैं।
- सोशल नेटवर्क़िग और वर्चुअल कम्युनिटीज़ (Social Networking and Virtual Communities): सोशल नेटवर्क़िग का अर्थ है अपने परिवार के सदस्यों, दोस्तों, सहपाठियों, ग्राहकों या उपभोक्ताओं के साथ संपर्क बनाने के लिये इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया उपागमों का उपयोग। यह मल्टीमीडिया और नई इलेक्ट्रॉनिक संचार प्रौद्योगिकियों, जैसे ईमेल और इंटरनेट द्वारा सुगम बनाया गया है।
जबकि वर्चुअल कम्युनिटी (आभासी समुदाय) ऑनलाइन कम्युनिटी है जहाँ दुनिया भर के लोगों को सोशल मीडिया के ज़रिये एक साथ लाया जा सकता है। वे समान विचारों, रुचियों आदि वाले लोगों के छोटे समूह हैं जो साइबर स्पेस साझा करते हैं।
- समाजीकरण कभी शून्य में नहीं हो सकता है। व्यक्ति, समूह और संस्थाएँ समाजीकरण के लिये सामाजिक संदर्भ का निर्माण करती हैं। इन अभिकर्त्ताओं के माध्यम से ही हम सीखते हैं और अपनी संस्कृति के मूल्यों एवं मानदंडों को अपनी मान्यताओं एवं व्यवहार में शामिल करते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया में हम जो आदतें, कौशल, विश्वास और निर्णय के मानक सीखते हैं, वे हमें समाज का एक कार्यात्मक सदस्य बनने में सक्षम बनाते हैं।
- समाजीकरण के विभिन्न अभिकर्त्ताओं में परिवार, साथी समूह, पड़ोस, विद्यालय, धर्म, सामाजिक वर्ग, वैश्विक समुदाय, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल नेटवर्क़िग आदि को शामिल किया जाता है।
- समाजीकरण के विभिन्न अभिकर्त्ताओं को औपचारिक/अनौपचारिक, सक्रिय/निष्क्रिय या प्राथमिक/द्वितीयक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। हालाँकि इनका कोई स्पष्ट सीमांकन नहीं है, क्योंकि ये सभी परस्पर एक-दूसरे से संबंधित हैं।
- समाजीकरण के औपचारिक अभिकर्त्ताओं में स्कूल, मनोरंजन केंद्र तथा पुस्तकालय आदि शामिल होते हैं। समाजीकरण के अनौपचारिक अभिकर्त्ताओं में परिवार, पड़ोस, समुदाय, धर्म, मित्र समूह आदि शामिल होते हैं।
- समाजीकरण के प्राथमिक अभिकर्त्ताओं में परिवार, साथी समूह और पड़ोस आदि को शामिल किया जाता है। समाजीकरण के द्वितीयक अभिकर्त्ताओं में विद्यालय, धर्म, सामाजिक वर्ग, वैश्विक समुदाय, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल नेटवर्क़िग आदि को शामिल किया जाता है।
- समाजीकरण के सक्रिय अभिकर्त्ताओं में परिवार, साथी समूह, पड़ोस, विद्यालय, धर्म, सामाजिक वर्ग, वैश्विक समुदाय, सोशल नेटवर्क़िग आदि को शामिल किया जाता है। समाजीकरण के निष्क्रिय अभिकर्त्ताओं में रेडियो, टेलीविज़न, प्रेस, थिएटर, पुस्तकालय आदि को शामिल किया जाता है।
किशोरावस्था
- 12 से 18 वर्ष के काल को किशोरावस्था कहते हैं। किशोरावस्था को बाल्यावस्था एवं प्रौढ़ावस्था के बीच की कड़ी माना जाता है।
- किशोरावस्था को शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था की तुलना में जीवन की सबसे कठिन, जटिल, तनावयुक्त, संवेदनशील एवं उलझन वाली अवस्था माना गया है।
- युवा को किसी भी राष्ट्र की धरोहर के रूप में मान्यता दी जाती है। समाज का प्रत्येक वर्ग (जैसे- शिक्षक, माता-पिता, विद्यालय आदि) इस अवस्था के बालकों के सर्वांगीण विकास का सम्मिलित प्रयास करता है।
- इस अवस्था में किशोरों का दूसरों के प्रति और दूसरों का उनके प्रति दृष्टिकोण में बदलाव के साथ-साथ उनके अनुभवों एवं सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन होने लगते हैं।
- विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा किशोरावस्था को लेकर कई परिभाषा दी गई। कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
- स्टैनलेहाल के अनुसार, ‘‘किशोरावस्था अत्यधिक बल एवं तनाव और तूफान एवं संघर्ष का काल है।’’
- किल पैट्रिक के अनुसार, ‘‘इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल या कठिन सीढ़ी होती है।’’
- रास के अनुसार, ‘‘किशोरावस्था शैशवावस्था का पुनर्वर्तन काल है।’’
- इस दौरान किशोरों के सामाजिक विकास में निम्नलिखित तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं-
- किशोरावस्था में किशोर/किशोरी में आत्मप्रेम की भावना अत्यधिक तीव्र होती है जिससे वे अपनी वेशभूषा एवं स्वयं को अत्यधिक आकर्षक दिखाने हेतु अत्यधिक समय व्यतीत करते हैं।
- बाल्यावस्था के समान इस अवस्था में भी लड़के और लड़कियों के पृथक समूह बनते हैं एवं इन समूहों का उद्देश्य विभिन्न प्रकार की मनोरंजन गतिविधियाँ, जैसे- नृत्य, संगीत, सिनेमा, पर्यटन आदि होते हैं।
- इस अवस्था में किशोर एवं किशोरी में विषम लिंग के प्रति आकर्षण बढ़ने लगता है जिससे वे एक साथ समय बिताने के लिये अत्यधिक उत्सुक रहते हैं।
- किशोरावस्था में बच्चे अपने समूह के प्रति अत्यधिक सक्रिय एवं निष्ठावान होते हैं। वे न केवल समूह के प्रतिष्ठित सदस्य के रूप में अपनी भूमिका सुनिश्चित करते हैं बल्कि वे समूह के नियम, वेशभूषा सहित समूह के लिये कुछ भी करने को तैयार रहते हैं।
- इस अवस्था में बच्चों में आत्मसम्मान की भावना अत्यधिक प्रबल होती है। इस आयु में किशोर स्वयं को बच्चा न मानकर वयस्क मानते हैं जिस कारण उनका अभिभावकों समेत अन्य लोगों से मतभेद होता है।
- इस अवस्था में किशोर/किशोरी में संवेगों का स्तर काफी उच्च होता है जिस कारण वे अपनी इच्छाओं के अनुरूप समाज की मान्यताओं के विरुद्ध भी जाने को तैयार रहते हैं। इसलिये इस अवस्था में उनके सामाजिक समायोजन में अस्थिरता आ जाती है।
- किशोर/किशोरी में संवेगों का उच्च स्तर होने के कारण वे हमेशा किसी न किसी चिंता या समस्या से ग्रस्त रहते हैं। यह समस्या या चिंता उनकी सफलता-असफलता, शैक्षणिक प्रगति, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन, व्यवसाय और प्रेम इत्यादि से संबंधित होती है।
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
- बच्चों के 2 वर्ष से 12 वर्ष के बीच की आयु की अवस्था को बाल्यावस्था कहा जाता है। बाल्यावस्था में शैशवावस्था की तुलना में कम तीव्रता से विकास होता है।
- बाल्यावस्था को बच्चों के निर्माणकारी काल के रूप में भी जाना जाता है एवं यह मानव विकास की दूसरी अवस्था के रूप में जानी जाती है।
- विद्वानों द्वारा बाल्यावस्था को प्रारंभिक बाल्यावस्था एवं मध्य बाल्यावस्था में विभाजित किया जाता है। प्रारंभिक बाल्यावस्था में 2 से 6 वर्ष यानी पाठशाला पूर्व की अवधि एवं मध्य बाल्यावस्था में 6 से 12 वर्ष पाठशाला की अवधि कहा जाता है।
- जिस प्रकार शैशवावस्था में शिशु का संसार परिवार होता है उसी प्रकार बाल्यावस्था में बालक का संसार परिवार के बाहर संगी-साथी व विद्यालय होता है।
- इस अवस्था में बच्चे शैशवावस्था के दौरान प्राप्त कुशलताओं में अपनी निपुणता को बढ़ाते हुए नए कौशल सीखते हैं। इस काल में शरीर के अंगों का समन्वय सुधरता है।
- बाल्यावस्था में बच्चों के सोचने की क्षमताएँ परिपक्व होती हैं एवं वे समाज के मान्य व्यवहार को अपनाने लगते हैं। इस काल में बालक काफी स्वावलंबी हो जाते हैं।
बाल्यावस्था के अर्थ के संबंध में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा कई परिभाषाएँ दी गई हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
- कॉल व ब्रुश के अनुसार, ‘‘बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल है। वास्तव में माता-पिता के लिये बाल विकास की इस अवस्था को समझ पाना बहुत कठिन है।’’
- फ्रॉयड के अनुसार, ‘‘इस अवस्था में बालक के अंदर तनाव की स्थिति का दमन हो जाता है, वह बाहर की दुनिया देखने और समझने लगता है परंतु वह परिपक्वता को प्राप्त नहीं करता है।’’
- रॉस के अनुसार- ‘‘बाल्यावस्था मिथ्या परिपक्वता की अवस्था है।’’
इस अवस्था में बच्चों के सामाजिक विकास में निम्नलिखित तत्त्व देखे जाते हैं-
- बच्चों में सामाजिक जागरूकता, चेतना व समाज के प्रति रुझान का विकास
- समाज या समूह के आदर्शों का पालन करने की प्रवृत्ति का विकास
- बालक एवं बालिकाओं में अलग समूह बनाने के प्रवृत्ति एवं समूह के नियमों का पालन
- सहयोग की भावना का विकास
- खेलकूद एवं प्रिय कार्यों से जुड़े क्रियाकलापों में रुचि लेना
- मित्र बनाना एवं उनके साथ समय बिताना
- आत्मनिर्भरता एवं आत्मसम्मान की प्रवृत्ति का विकास
- अभिवृत्तियों, चारित्रिक एवं नागरिक गुणों का विकास
- नेतृत्व की भावना का विकास एवं सामाजिक प्रशंसा व स्वीकृति की अभिलाषा
प्रारंभिक बाल्यावस्था एवं मध्य बाल्यावस्था में सामाजिक विकास में अंतर
प्रारंभिक बाल्यावस्था |
मध्य बाल्यावस्था |
|
|
हरलॉक ने अपनी पुस्तक ‘बाल मनोविज्ञान’ (Child Psychology) में शिशु में होने वाले सामाजिक विकास का वर्गीकरण किया है जिसे निम्नलिखित सारणी के द्वारा समझा जा सकता है-
शैशवावस्था में सामाजिक विकास
क्र. |
बच्चों का आयु वर्ग |
सामाजिक व्यवहार का रूप |
1. |
पहला महीना |
मानव समेत विभिन्न प्रकार की ध्वनियों में अंतर करना |
2. |
दूसरा महीना |
मानव ध्वनि को पहचानना एवं उनका मुस्कराकर स्वागत करना |
3. |
तीसरा महीना |
माता को पहचानना, माता के लिये प्रसन्नता व माता के अभाव में दु:ख प्रकट करना |
4. |
चौथा महीना |
व्यक्तियों के चेहरे से परिवार के सदस्यों को पहचानना |
5. |
पाँचवा महीना |
प्रसन्नता व क्रोध को समझना एवं अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना |
6. |
छठा महीना |
परिचितों से प्यार व अन्य लोगों से भयभीत होना |
7. |
सातवाँ महीना |
परिवार के सदस्यों का अनुकरण कर हाव-भाव सीखना |
8. |
आठवाँ महीना |
हाव-भाव के द्वारा विभिन्न संवेगों, जैसे प्रसन्नता, क्रोध और भय का प्रदर्शन करना |
9. |
दसवाँ एवं ग्यारहवाँ महीना |
अपनी परछाई के साथ खेलना, |
10. |
दूसरे वर्ष की अवधि में |
बड़ों के कार्यों में सहायता करना, सहयोग, सहानुभूति का विकास |
समाजीकरण अलग-अलग चरण में संपादित होने वाली एक ऐसी प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। सामान्यत: ये चरण विभिन्न आयु समूहों से संबंधित होते हैं जिनके आधार पर समाजीकरण को कई स्वरूपों में वर्गीकृत किया जाता है।
- प्राथमिक समाजीकरण : समाजीकरण की प्रक्रिया में प्राथमिक समाजीकरण सबसे महत्त्वपूर्ण है। शैशवावस्था और बाल्यावस्था की अवधि में प्राथमिक समाजीकरण प्रक्रिया आकार लेती है। इस चरण में बच्चों को बुनियादी ज्ञान, भाषा और व्यवहार सिखाया जाता है। समाजीकरण का यह चरण सामान्यत: परिवार के भीतर संपादित होता है जिसमें शिशु बुनियादी ज्ञान, भाषा और व्यवहार सीखता है।
- द्वितीयक समाजीकरण : शिशु की बाल्यावस्था की अवधि के समाप्त होने के उपरांत द्वितीयक समाजीकरण प्रारंभ होता है जो कि परिपक्वता तक निरंतर चलता रहता है। इस चरण में परिवार की तुलना में समाजीकरण के कुछ अन्य अभिकर्त्ता, जैसे विद्यालय और दोस्तों का समूह बच्चे के समाजीकरण में अत्यधिक भूमिका निभाने लगते हैं। बच्चों का समाजीकरण के इन अभिकर्त्ताओं के माध्यम से विभिन्न प्रकार का सामाजिक संपर्क स्थापित होता है। ये संपर्क उन्हें समाज एवं संस्कृति के नैतिक मानकों, रीति-रिवाजों और सिद्धांतों को सीखने में मदद करते हैं।
- जेंडर या लैंगिक समाजीकरण : लैंगिक समाजीकरण में समाजीकरण के विभिन्न कारक बच्चों के विचारों को आकार देते हुए उन्हें विभिन्न लैंगिक भूमिकाओं को सीखने में मदद करते हैं। समाजीकरण की इस प्रक्रिया में सबसे पहले बच्चे खुद के लिंग यानी पुरुष या स्त्री के बारे में जानना शुरू करते हैं। इसकी जानकारी उन्हें अपनी परवरिश, परिवार और समाज के वयस्कों के माध्यम से मिलती है- उदाहरण के लिये कपड़े, केश, विभिन्न कॉस्मेटिक, खिलौने आदि से उन्हें लैंगिक ज्ञान प्राप्त होता है। दो साल की उम्र तक बच्चों में स्वयं की लैंगिक समझ का ज्ञान होने लगता है।
- प्रत्याशामूलक समाजीकरण : प्रत्याशामूलक समाजीकरण शब्द समाजशास्त्री रॉबर्ट के. मर्टन के द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा भविष्य के व्यवसायों, पदों और सामाजिक संबंधों के लिये किसी को सचेत रूप से सामाजिक बनाया जाता है। प्रत्याशामूलक समाजीकरण के माध्यम से लोगों का उन समूहों में समाजीकरण किया जाता है जिनमें वे शामिल होना या कार्य करना चाहते हैं ताकि समूह में प्रवेश करना बहुत मुश्किल न लगे।
- पुनर्समाजीकरण (Re-Socialisation) : पुन: समाजीकरण कुछ निश्चित व्यवहार पैटर्न और भूमिकाओं को छोड़ने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है, जिससे जीवन में विकास के हिस्से के रूप में नए लोगों, नई भूमिकाओं एवं नए व्यवहार को अपनाया जा सके। पुन: समाजीकरण तब होता है जब किसी व्यक्ति की सामाजिक भूमिका में एक बड़ा परिवर्तन होता है।
- प्रौढ़ समाजीकरण (Adult Socialisation) : प्रौढ़ समाजीकरण वयस्क अवस्था में होता है जब व्यक्ति पति, पत्नी या कर्मचारी जैसी नई भूमिकाओं के अनुकूल हो जाता है। यह उनकी ज़रूरतों और इच्छाओं से जुड़ा है। लोग जीवन भर मूल्यों और व्यवहार के प्रतिमान सीखते रहते हैं।
समाजीकरण की कोई निश्चित समयावधि नहीं होती है। यह जन्म से शुरू होता है और बुढ़ापे तक चलता रहता है। जिस प्रकार युवा पीढ़ी में वयस्कों के माध्यम से समाजीकरण की क्रिया चलती रहती है, उसी तरह पुरानी पीढ़ी में भी अपनी युवा पीढ़ी द्वारा विभिन्न अनुभवों के माध्यम से समाजीकरण की क्रिया चलती रहती है। परिवार के वयस्क के अलावा समाजीकरण के अन्य एजेंटों के माध्यम से समाजीकरण की प्रक्रिया जारी रहती है। उदाहरण के लिये- कार्यस्थल, सामाजिक समूह, वरिष्ठ नागरिक मंच, मनोरंजन क्लब और धार्मिक संस्थान आदि
समाजीकरण की इस प्रक्रिया में विभिन्न आयु स्तरों पर सामाजिक विकास की कई विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- आरंभिक सामाजिक प्रक्रिया : शिशु अपने जन्म के समय न तो सामाजिक होता है और न ही असामाजिक। शिशु की अपनी आरंभिक अवस्था में प्रदर्शित की जाने वाली सामाजिक प्रतिक्रियाएँ ही सामाजिक विकास का प्रारंभिक चरण हैं जिसमें वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपने निकट व्यक्तियों के प्रति अनुक्रिया व्यक्त करता है।
- बच्चों के साथ प्रतिक्रिया : सामाजिक विकास की प्रक्रिया में बच्चों की अनुक्रिया एवं प्रतिक्रिया का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बढ़ती आयु के साथ बच्चों का सामाजिक दायरा बढ़ता है एवं उनके मध्य विचारों के आदान-प्रदान के साथ-साथ सहयोग व मित्रता की भावना विकसित होने लगती है।
- सामूहिक प्रतिक्रिया : बच्चों में सामूहिकता की भावना का विकास तीसरे से चौथे वर्ष में विकसित होने लगता है। सामूहिक क्रियाकलापों, जैसे खेल इत्यादि के माध्यम से बच्चों में कई गुणों का विकास होना प्रारंभ होने लगता है। उदाहरण के लिये मित्रता, आज्ञापालन, सहानुभूति, प्रतिस्पर्द्धा, त्याग, नेतृत्व इत्यादि।
- सामाजिक प्रतिक्रिया : चौथे से पाँचवे वर्ष में बच्चों का समाज के व्यक्तियों से संपर्क होना प्रारंभ हो जाता है। इस अवस्था से वे समाज के मान्य व्यवहारों को अपनाना एवं अमान्य व्यवहारों को त्यागना प्रारंभ कर देते हैं। सामाजिक प्रतिक्रियाओं के दौरान इस अवस्था में प्राय: बच्चों में उनके सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाली कई अन्य विशेषताएँ दिखाई देती हैं, उदाहरण- झगड़ा, क्रोध, मारपीट, सहानुभूति एवं सहिष्णुता, निषेधात्मकता, प्रतिस्पर्द्धा, सहयोग आदि। संक्षिप्त में इन विशेषताओं का विवरण निम्नलिखित है-
- झगड़ा, क्रोध एवं मारपीट : बच्चों में इन गुणों की अभिव्यक्ति बाल्यावस्था की अवधि यानी एक से डेढ़ वर्ष में दिखने लगती है। इस अवस्था में बच्चे अपनी प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति या प्रिय व्यक्तियों के पास जाने के लिये रोने, गुस्साने एवं हाथ-पैर पटकने जैसी प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करते हैं। बच्चों में पूर्व बाल्यावस्था में झगड़ने एवं मारपीट की प्रवृत्ति ज़्यादा होती है।
- निषेधात्मकता : यदि किसी बच्चे को अपनी प्रिय वस्तुओं की इच्छापूर्ति में बाधा होती है तो सामाजिक प्रतिक्रिया के रूप में बच्चा ‘निषेधात्मक व्यवहार’ का प्रदर्शन करता है। इसमें वह तर्क-वितर्क व बड़ों की अवज्ञा करने लगता है।
- सहानुभूति एवं सहिष्णुता : बच्चों में सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विकास एक स्वस्थ और सकारात्मक गुण के विकास का सूचक है। बालक अपने परिवार एवं मित्रों के माध्यम से सहानुभूति व सहिष्णुता को सीखता है तथा उनके प्रति सहानुभूति व सहिष्णुता व्यक्त करता है। हालाँकि आगे चलकर वह समाज के अन्य लोगों के प्रति भी इन गुणों को प्रदर्शित करता है।
- प्रतिस्पर्द्धा : सामाजिक विकास में प्रतिस्पर्द्धा एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है एवं इसका विकास बच्चों में अन्य सामाजिक गुणों के विकास के साथ होता है। प्रतिस्पर्द्धा एक बच्चे को दूसरे बच्चे से आगे निकलने को प्रेरित करती है, जिसके कारण बच्चे प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं। प्रतिस्पर्द्धा के कारण ही बच्चे अध्ययन एवं खेलकूद में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं।
- सहयोग : किसी भी व्यक्ति के समाज में समायोजन के लिये सहयोग को एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना जाता है। सहयोग की भावना लोगों में सामूहिकता को प्रेरित करती है जिसके माध्यम से कठिन एवं जटिल कार्यों को भी आसानी से संपादित किया जा सकता है। सहयोग एक ऐसा सकारात्मक गुण है जो नकारात्मक गुणों, जैसे- आपसी द्वेष, ईर्ष्या इत्यादि को कम करता है।
- लॉरेंस कोहलबर्ग एक प्रसिद्ध अमेरिकी मनोवैज्ञानिक और शिक्षक थे जिन्हें मुख्य रूप से नैतिक विकास सिद्धांत के लिये जाना जाता हैं। कैरोल गिलिगन एक प्रसिद्ध अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थीं जो लड़कियों और महिलाओं के नैतिक विकास में अपने शोध के लिये प्रसिद्ध हैं। कोहलबर्ग एवं गिलिगन के द्वारा ‘नैतिक विकास’ के संदर्भ में समाजीकरण के सिद्धांतों को प्रस्तुत किया गया।
- बच्चों के तर्क के एक महत्त्वपूर्ण भाग में शामिल हैं- सही-गलत में अंतर करने की उनकी क्षमता है और यह तय करना है कि क्या करना नैतिक रूप से सही है। लॉरेंस कोहलबर्ग ने कहा कि बच्चों में कई चरणों में सोचने और नैतिक रूप से कार्य करने की क्षमता विकसित होती है। पूर्व-परंपरागत चरण (Pre-conventional Stage) में, छोटे बच्चे नैतिक रूप से जो सही है उसका अनुसरण करते हैं जो उन्हें दंड का पात्र बनने से रोकता है।
- पारंपरिक अवस्था (Conventional Stage) में, किशोरों को एहसास होता है कि उनके माता-पिता और समाज के नियमों का पालन इसलिये करना चाहिये क्योंकि ये नैतिक रूप से सही हैं, न कि केवल इसलिये कि उनकी अवज्ञा करने से सज़ा मिलती है। उत्तर-परंपरागत चरण (Post-conventional Stage) का प्रारंभ किशोरावस्था की अंतिम और प्रारंभिक वयस्कता की अवस्था में होता है। इस चरण में व्यक्तियों को यह एहसास होता है कि उनके अपने उच्च नैतिक मानक समाज के मानकों को पीछे छोड़ सकते हैं। यहाँ तक कि इन उच्च मानकों के नाम पर वे समाज के नियम, परंपरा, कानून आदि की अवहेलना का निर्णय भी ले सकते हैं।
- गिलिगन ने अपने शोध में यह पाया कि जहाँ लड़के सही या गलत का फैसला करने के लिये अमूर्त या सामान्य नियमों का प्रयोग करते हैं, वहीं लड़कियाँ व्यक्तिगत संबंधों को ध्यान में रखती हैं।
- यदि लोग किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्तिगत आवश्यकता के कारण नियम तोड़ते हैं या किसी की मदद करने की कोशिश कर रहे हैं, तो हो सकता है कि उनका व्यवहार गलत न हो। पुरुष नैतिक निर्णय लेने के लिये अवैयक्तिक, सार्वभौमिक मानदंड का उपयोग करते हैं, जबकि महिलाएँ अधिक व्यक्तिगत, विशिष्ट मानदंड का उपयोग करती हैं।
एरिक एरिक्सन एक जर्मन-अमेरिकी मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषक थे। फ्रॉयड के विपरीत एरिक्सन का सिद्धांत मनोवैज्ञानिक विकास की बजाय ‘मनोसामाजिक विकास’ पर केंद्रित था।
- एरिक्सन के अनुसार ‘स्व’ का विकास बाल्यावस्था तक ही सीमित नहीं है अपितु जीवनपर्यंत चलता रहता है। हालाँकि बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था समाजीकरण की प्रक्रिया की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण अवधि है किंतु यह जीवनपर्यंत जारी रहता है।
- एरिक एरिक्सन ने विकास के आठ चरणों की व्याख्या की जिससे एक स्वस्थ विकासशील व्यक्ति गुज़रेगा। ये प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं-
- विश्वास बनाम अविश्वास : यह अवस्था जन्म से लेकर 1 वर्ष तक होती है एवं इस अवस्था में बच्चा अपनी ज़रूरतों के लिये पूर्णत: बड़ों पर निर्भर होता है। जब शिशु की ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं, तो उसमें दुनिया के प्रति विश्वास की भावना विकसित होगी। वहीं आवश्यकता की पूर्ति नहीं होने पर वह अविश्वास की भावना महसूस करेगा।
- स्वायत्तता बनाम शर्म और संदेह : यह अवस्था 1 वर्ष से लेकर 3 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में बच्चे पर्यावरण के कुछ तत्त्वों, जैसे भोजन, खिलौने और कपड़ों के लिये स्पष्ट प्राथमिकताएँ दिखाने लगते हैं। इस अवस्था में यदि उन्हें उनके अनुसार कार्य करने की अनुमति दी जाए तो उनमें स्वतंत्रता की भावना विकसित होगी, और ऐसा नहीं होने पर वे अपनी क्षमताओं पर संदेह करना शुरू देंगे जिससे उनमें कम आत्मसम्मान और शर्म की भावना पैदा हो सकती है।
- पहल बनाम अपराध : इस चरण की शुरुआत 3-6 वर्ष की आयु में होती है और बच्चे विद्यालय जाना प्रारंभ करते हैं। वे सामाजिक अंत:क्रिया, खेल एवं अन्य गतिविधियों के माध्यम से अपनी दुनिया पर नियंत्रण करने में सक्षम होते हैं। माता-पिता बच्चों द्वारा की गई पहल को प्रोत्साहन और तो उनमें आत्मविश्वास का विकास होगा और उद्देश्य की भावना महसूस होगी। जो लोग इस स्तर पर असफल होते हैं या उनकी पहल को माता-पिता द्वारा गलत तरीके से नियंत्रित या दबाया जाता है तो उनमें अपराध-बोध की भावना विकसित हो सकती है।
- उद्यमशीलता बनाम हीनता : यह अवस्था 6-12 वर्ष की आयु तक चलती है एवं बच्चे इस अवस्था में नए कौशलों को सीखते हैं। यदि इस अवस्था में बच्चे घर पर या दूसरे बच्चों के साथ सकारात्मक रूप से मिल-जुलकर रहते हैं तो उनमें उद्यमशीलता की भावना विकसित होगी और यदि ऐसा नहीं होता है तो बच्चों में हीन भावना पैदा हो जाएगी।
- पहचान बनाम भ्रम : 12 से 18 वर्ष की आयु यानी किशोरावस्था में बच्चे पहचान बनाम भ्रम की समस्या से ग्रसित होते हैं। एरिक्सन के अनुसार, एक किशोर का मुख्य कार्य ‘स्व’ की भावना का विकास करना है। अधिकांश किशोर अपनी ‘स्व’ की खोज के लिये अलग-अलग तरीकों से, जैसे विभिन्न विचारों, लक्ष्यों एवं कई भूमिकाओं से यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि कौन-सा माध्यम उनके लिये उपयुक्त है। जो किशोर इस स्तर पर सफल होते हैं उनमें पहचान की प्रबल भावना होती है, वहीं सफल नहीं होने वाले बच्चे भ्रम की भावना से ग्रसित होंगे।
- आत्मीयता बनाम अलगाव : 20 से 40 वर्ष की आयु यानी प्रारंभिक वयस्कता में लोग आत्मीयता बनाम अलगाव या अंतरंगता बनाम अलगाव की समस्या का सामना करते हैं। युवा वयस्कों को अन्य लोगों के साथ घनिष्ठ, प्रेमपूर्ण संबंध बनाने की ज़रूरत होती है। जबकि इसमें असफलता अकेलेपन और अलगाव की ओर ले जाती है। एरिक्सन ने कहा कि सफल आत्मीय संबंधों को विकसित करने से पहले हमारी ‘स्व’ की मज़बूत भावना विकसित होनी चाहिये।
- उत्पादकता बनाम ठहराव : व्यक्ति की 40 से 60 वर्ष की आयु को मध्य वयस्कता की अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति अगली पीढ़ी एवं समाज में सकारात्मक योगदान देना शुरू करता है, जैसे बच्चे का जन्म एवं दूसरों की देखभाल; सार्थक और उत्पादक कार्य आदि। जो लोग इस चरण के दौरान सफल होंगे उन्हें लगेगा कि वे अपने घर और समुदाय में सक्रिय होकर दुनिया में योगदान दे रहे हैं। जो लोग इस कौशल को प्राप्त करने में विफल रहते हैं वे दुनिया में अनुत्पादक और असंबद्ध महसूस करेंगे।
- अखंडता या अहं संपूर्णता बनाम निराश : अंतिम मनोसामाजिक चरण बुढ़ापे के दौरान होता है। इस अवस्था में व्यक्ति भविष्य की बजाय अपने अतीत का ज़्यादा अवलोकन करते हुए यह निर्धारित करता है कि क्या वह अपने जीवन से खुश है या उसे अपने किये गए या नहीं किये गए कार्यों पर पछतावा है। जो लोग अपनी उपलब्धियों पर गर्व महसूस करते हैं वे ईमानदारी की भावना महसूस करते हैं, और जो लोग पछतावे के साथ अपने जीवन को देखते हैं वे कड़वाहट, अवसाद और निराशा की भावनाओं से ग्रसित हो जाते हैं।
- ऑस्ट्रियाई न्यूरोलॉजिस्ट सिग्मंड फ्रॉयड को ‘‘आधुनिक मनोविज्ञान के पिता’’ के रूप में जाना जाता है। सिग्मंड फ्रॉयड के सिद्धांतों और कार्यों ने स्वप्न, बचपन, व्यक्तित्व, स्मृति और चिकित्सा इत्यादि के संदर्भ में नवीन अवधारणाओं के विकास को काफी बढ़ावा दिया।
- सिग्मंड फ्रॉयड ने ‘मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत’ (Psychoanalytic Theory) के आधार पर समाजीकरण की अवधारणा प्रस्तुत की। उनके अनुसार, ‘बुनियादी जैविक प्रवृत्ति व्यक्तित्व को आकार देने के लिये सामाजिक कारकों के साथ अंत:क्रिया करती है।’ फ्रॉयड इस तथ्य पर बल देते हैं कि मानव व्यक्तित्व के अधिकांश भाग का निर्माण बचपन में हो जाता है और शेष जीवन के दौरान यह विस्तृत एवं परिष्कृत होता जाता है।
सिग्मंड फ्रॉयड के अनुसार मानव मन के तीन मुख्य क्षेत्र होते हैं-
- चेतन (Conscious)
- अर्द्धचेतन या अवचेतन (Semiconscious)
- अचेतन (Unconscious)
फ्रॉयड का मानना था कि हमारे व्यक्तित्व की संरचना तीन एकीकृत और अंतर्संबंधित प्रणालियों के इर्द-गिर्द बनी है, जिसे उन्होंने आईडी (id), ईगो (ego) और सुपरईगो (superego) की संज्ञा दी।
किसी वयस्क व्यक्ति का व्यक्तित्व इन्हीं तीनों निर्धारकों के संयोजन पर निर्भर होता है।
इमाइल दुर्खीम एक प्रमुख फ्राँसीसी समाजशास्त्री थे। उनके द्वारा प्रस्तुत समाजीकरण का सिद्धांत ‘सामूहिक प्रतिनिधान’ (Collective Representation) की अवधारणा पर आधारित है जिसका विस्तृत विवरण उनकी पुस्तक ‘सोशियोलॉजी एंड फिलॉसफी’ (Sociology and Philosophy) में उपलब्ध है।
- दुर्खीम के अनुसार समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समाज में प्रचलित विचारों, भावनाओं, मान्यताओं, आदर्शों, विश्वास एवं नियमों आदि का पालन करना अनिवार्य होता है। समाज के इन विधानों का सभी व्यक्तियों द्वारा पालन किये जाने से ये उस संपूर्ण समाज की अभिव्यक्ति के रूप में परिलक्षित होते हैं जिनका प्रतिनिधित्व पूरा समाज करता है। समाज में प्रचलित इन्हीं विचारों, भावनाओं, मान्यताओं, आदर्शों, विश्वास एवं नियमों को दुर्खीम द्वारा सामूहिक प्रतिनिधान की संज्ञा दी गई।
- सामूहिक प्रतिनिधानों के सामाजिक मूल्यों के रूप में मान्यता एवं सामाजिक स्वीकृति के कारण ये इतने शक्तिशाली होते हैं कि ये व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करने लगते हैं। किसी भी व्यक्ति के समाजीकरण का उद्देश्य वस्तुत: सामूहिक प्रतिनिधानों को उसके व्यवहार में शामिल करना होता है।
- दुर्खीम ने सामूहिक प्रतिनिधानों के अन्त:करण एवं आत्मसातीकरण की प्रक्रिया को समाजीकरण की संज्ञा दी और यह विचार प्रस्तुत किया कि जैसे-जैसे व्यक्ति सामूहिक प्रतिनिधानों को आत्मसात् करते हुए इनका अनुकरण करने लगता है वैसे-वैसे उसकी समाजीकरण की प्रक्रिया भी चलती रहती है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 भारत की शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण की राष्ट्रीय परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा 1975, 1988, 2000 और 2005 में प्रकाशित चार राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में से एक है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा भारत में स्कूल शिक्षा कार्यक्रमों के भीतर पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण प्रथाओं को बनाने के लिये रूपरेखा प्रदान करती है।
- राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, को 5 भागों- परिप्रेक्ष्य (Perspective), सीखना और ज्ञान (Learning and Knowledge), पाठ्यचर्चा के क्षेत्र, स्कूल के चरणों और मूल्यांकन (Curriculum Areas, School Stages and Assessment), विद्यालय व कक्षा का वातावरण (School and Classroom Environment), व्यवस्थागत सुधार (Systemic Reforms) में वर्गीकृत गया है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के 5 मार्गदर्शक सिद्धांत हैं-
- ज्ञान को स्कूल के बाहर के जीवन से जोड़ना।
- पढ़ाई रटंत प्रणाली से मुक्त हो, यह सुनिश्चित करना।
- पाठ्यचर्या का इस तरह संवर्धन कि वह बच्चों को चहुँमुखी विकास के अवसर मुहैया करवाए बजाय इसके कि वह पाठ्य पुस्तक केंद्रित बनकर रह जाए।
- परीक्षा को अपेक्षाकृत अधिक लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना।
- एक ऐसी अधिभावी पहचान का विकास जिसमें प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रीय चिंताएँ समाहित हों।
NCF फ्रेमवर्क में कक्षा 1 से 12 तक कब, क्या, क्यों और कैसे पढ़ाना सिखाना है, इसकी पूरी रूपरेखा प्रस्तुत की गई जिनका उल्लेख निम्नलिखित है-
- कक्षा 1 से लेकर 5 तक : इसके अंतर्गत शामिल विषय हैं- मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा), अंग्रेज़ी, गणित, एकीकृत पर्यावरण अध्ययन, कला व शिल्प, शारीरिक विकास, कार्य अनुभव।
- कक्षा 6 से लेकर 8 तक : इसके अंतर्गत शामिल विषय हैं- मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा), आधुनिक भारतीय भाषा, कला शिक्षा, सामाजिक अध्ययन, स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा, अंग्रेज़ी, गणित, विज्ञान।
- कक्षा 9 से लेकर 10 तक : इसके अंतर्गत शामिल विषय हैं- सामाजिक अध्ययन, मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा), संस्कृत/उर्दू/अन्य, अंग्रेज़ी, गणित, विज्ञान, कंप्यूटर, कार्य शिक्षा, शांति शिक्षा, कला शिक्षा।
- कक्षा 11 से लेकर 12 तक : इसके अंतर्गत शामिल विषय हैं- मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा), अंग्रेज़ी, गणित, कंप्यूटर, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, व्यापार अध्ययन, एकाउंटेंसी, कला शिक्षा, राजनीति विज्ञान, भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, कुछ ऐच्छिक विषय।
अधिगम या सीखना मानव व्यवहार की बहुत ही सामान्य एवं प्रचलित प्रक्रिया है। मनुष्य में सीखने की प्रक्रिया जन्म से ही प्रारंभ हो जाती है एवं यह प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है। शिशु शैशवावस्था में अपनी माँ के साथ अधिकांश समय व्यतीत करता है अत: माँ ही शिशु की प्रथम शिक्षिका होती है।
- सीखने की प्रक्रिया किसी स्थान-विशेष से संबंधित नहीं होती है तथा यह क्रिया अनौपचारिक, औपचारिक एवं निरौपचारिक रूप से चलती रहती है।
- शिक्षा मनोविज्ञान में अधिगम या सीखने का तात्पर्य सामान्यत: व्यवहार परिवर्तन है। हालाँकि यहाँ पर यह याद रखना है कि प्रत्येक व्यवहार परिवर्तन अधिगम नहीं होता क्योंकि कभी-कभी मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति के कारण भी व्यवहार परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिये वृद्धावस्था, बीमारी आदि।
- शिक्षा मनोविज्ञान में अधिगम या सीखने में उन्हीं व्यवहार परिवर्तनों को शामिल किया जाता है जो निरंतर अभ्यास एवं व्यापक अनुभव के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं एवं इन परिवर्तनों का उद्देश्य बालक को समाज से कुशल सामंजस्य स्थापित करना होता है।
अधिगम के प्रकार (Types of Learning)
अधिगम के विभिन्न प्रकारों एवं विधियों के कारण मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम को विभिन्न भागों में विभाजित किया है जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
- अर्थपूर्ण अधिगम : इस अधिगम प्रक्रिया में बालक जिस वस्तु के बारे में सीखना चाहता है उसके अर्थ को वह भली-भाँति जानता है। बालक अपने अनुभव एवं ज्ञान के माध्यम से उस वस्तु से संबंधित विषयवस्तु से सामंजस्य स्थापित करते हुए सीखता है।
- अधिग्रहण अधिगम : इस अधिगम प्रक्रिया में बालक को सीखने के लिये किसी विषयवस्तु को लिखित या मौखिक रूप में प्रस्तुत कर उसके आत्मसातीकरण हेतु निर्देश दिया जाता है। बालक दिये गए निर्देशों के अनुरूप आत्मसातीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से उस विषयवस्तु को सीख लेता है।
- अन्वेषण अधिगम : इस अधिगम प्रक्रिया में बालक को स्वयं किसी विषयवस्तु के बारे में चिंतन एवं अन्वेषण के माध्यम से सीखने को कहा जाता है। अर्थपूर्ण एवं रटकर दोनों विधियों के द्वारा अन्वेषण अधिगम का संपादन किया जा सकता है।
- रटंत अधिगम : यह अधिगम की उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसमें बालक बिना किसी विषयवस्तु को जाने या उसका अर्थ निकाले बिना रटकर सीखता है। सीखने की यही प्रक्रिया रटंत अधिगम कहलाती है।
समावेशी शिक्षा के अंतर्गत शारीरिक व मानसिक रूप से अशक्त व विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थी सामान्य विद्यार्थियों के साथ एक ही विद्यालय की नियमित कक्षाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं।
- आर.के. शर्मा के अनुसार, ‘‘समावेशी शिक्षा एक ऐसी शिक्षा प्रणाली है जिसका उपयोग करके प्रतिभाशाली और शारीरिक रूप से अक्षम विद्यार्थियों को एक साथ शिक्षा दी जाती है।’’
- समावेशी शिक्षा में एकीकृत शिक्षा वाले विद्यालयों से बेहतर सुख-सुविधाएँ एवं वातावरण उपलब्ध कराया जाता है। बेहतर सुख-सुविधाओं का अर्थ है- उन्नत पाठ्यक्रम, विद्यालयों में बुनियादी ढाँचे, विशेष शिक्षा, चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक आदि की व्यवस्था।
- समावेशी शिक्षा को लाभदायक बनाने के लिये एक विशेष प्रकार का पाठ्यक्रम बनाया जाता है। यह पाठ्यक्रम इस प्रकार से बनाया जाता है कि सामान्य से भिन्न बच्चों को तो लाभ मिले ही साथ ही सामान्य बच्चों का भी कोई नुकसान न हो तथा विद्यालय का वातावरण भी ऐसा बनाया जाता है कि विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे खुद को सामान्य बच्चों से कम न समझें।
समावेशी शिक्षा की विशेषताएँ (Characteristics of Inclusive Education)
- समावेशी शिक्षा से विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों में सामान्य बच्चों के समान मानसिक विकास होता है।
- समावेशी शिक्षा खर्चीली है क्योंकि इसमें विशिष्ट बच्चों के लिये उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप मानवीय व भौतिक संसाधनों की व्यवस्था करनी होती है।
- यह शैक्षिक एकीकरण को सुनिश्चित करती है।
- इसमें शिक्षा के अधिकार का अनुपालन सम्मिलित है।
- यह व्यवस्था जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करती, साथ ही सामाजिक एकीकरण को भी सुनिश्चित करती है।
- यह शिक्षा भारतीय संविधान में समानता के सिद्धांत का अनुपालन करती है। अर्थात् समन्वित शिक्षा द्वारा विशिष्ट बच्चों को भी सामान्य बच्चों के समान ही शिक्षा सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं।
- समावेशी शिक्षा में सभी सामान्य व विशेष आवश्यकता वाले बच्चे एक-दूसरे के नज़दीक आते हैं। इससे विद्यालय में व्यावहारिक व स्वस्थ वातावरण का निर्माण होता है।
- समावेशी शिक्षा द्वारा विशिष्ट बच्चों में सामान्य बच्चों के समान जीवन जीने का आत्मविश्वास उत्पन्न होता है।
- समावेशी शिक्षा सामान्य तथा विशिष्ट बच्चों में आपसी समायोजन स्थापित करती है।