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कॉन्सेप्ट कार्ड
पाबना विद्रोह (1873–1876)
पृष्ठभूमि
- पाबना विद्रोह सन् 1873 से 1876 के बीच पूर्वी बंगाल के पाबना ज़िले (अब बांग्लादेश में) हुआ था।
- यह किसानों (रैय्यतों) का एक संगठित कृषक आंदोलन था, जो जमींदारों द्वारा अत्यधिक लगान, अवैध कर व जबरन बेदखली के विरुद्ध किया गया।
- यह विद्रोह 1793 के स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) के अंतर्गत बनी जमींदारी व्यवस्था की अन्यायपूर्ण नीतियों के विरोध में उभरा।
- आंदोलन का उद्देश्य कानूनी और शांतिपूर्ण तरीकों से किसान अधिकारों की रक्षा करना था।
नेतृत्व और समर्थन
- इस आंदोलन का नेतृत्व ईशनचंद्र राय, केशव चंद्र राय और शंभूनाथ पाल ने किया।
- विद्रोह को बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, आर. सी. दत्त, तथा ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के प्रमुख सदस्यों — सुरेंद्रनाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस और द्वारकानाथ गांगुली — का समर्थन प्राप्त था।
- इन बुद्धिजीवियों और समाजसुधारकों के सहयोग से आंदोलन को नैतिक व राष्ट्रीय समर्थन मिला।
विद्रोह के कारण
- अत्यधिक लगान और अवैध कर : जमींदारों ने किसानों से अत्यधिक लगान और अवैध शुल्क वसूले।
- ऋण और जबरन बेदखली : किसानों को साहूकारों के ऋण पत्रों (Debt Decrees) और बेदखली आदेशों से पीड़ित किया गया।
- आर्थिक और कानूनी अन्याय : ब्रिटिश राजस्व व्यवस्था जमींदारों के पक्ष में थी और किसानों की स्थिति को नज़रअंदाज़ करती थी।
- ब्रिटिश सत्ता के प्रति भावनात्मक निष्ठा : किसानों ने अपनी निष्ठा व्यक्त करते हुए नारा दिया —
“हम महारानी और सिर्फ महारानी की रैय्यत होना चाहते हैं।”
आंदोलन की प्रकृति और क्रम
- विद्रोह की शुरुआत पाबना ज़िले के युसूफशाहीी परगना से हुई, जहाँ किसानों ने बढ़े हुए लगान देने से इंकार किया।
- किसानों ने कृषक संघों (Agrarian Leagues) और ग्राम सभाओं का गठन किया।
- उन्होंने जनसभाएँ, याचिकाएँ और किराया-बहिष्कार जैसे शांतिपूर्ण उपाय अपनाए।
- यह आंदोलन पूर्णतः अहिंसक था —
न तो यह जमींदारों के विरुद्ध और न ही ब्रिटिश शासन के विरुद्ध, बल्कि केवल आर्थिक और सामाजिक अन्याय के विरोध में था।
मुख्य उद्देश्य
- साहूकारों और ऋणदाताओं के अन्यायपूर्ण ऋण पत्रों (debt decrees) को समाप्त करना।
- अन्यायपूर्ण लगान से मुक्ति और किसान अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना।
परिणाम और महत्त्व
- ब्रिटिश सरकार ने जांच के लिये एक आयोग नियुक्त किया, जिसके आधार पर बाद में बंगाल किरायेदारी अधिनियम, 1885 (Bengal Tenancy Act) पारित हुआ।
- इस अधिनियम ने किसानों को अनुचित लगान वृद्धि और जबरन बेदखली से संरक्षण प्रदान किया।
- पाबना विद्रोह ने किसान चेतना और वर्गीय एकता को मजबूत किया तथा भविष्य के कृषक आंदोलनों की नींव रखी।
- यह भारत के इतिहास में शांतिपूर्ण और संगठित ग्रामीण प्रतिरोध का प्रारंभिक उदाहरण था।
एका आंदोलन (1921–1922)
पृष्ठभूमि
- एका आंदोलन का अर्थ है “एकता आंदोलन”, जो सन् 1921 से 1922 के बीच उत्तर प्रदेश (मुख्यतः अवध और हरदोई जिलों) में हुआ।
- यह आंदोलन किसानों और छोटे भूमिधरों द्वारा जमींदारों, साहूकारों और ब्रिटिश राजस्व नीतियों के खिलाफ चलाया गया।
- यह आंदोलन अवध किसान आंदोलन का ही एक विस्तार था, जब किसानों पर अत्यधिक लगान, कर्ज़ और उत्पीड़न का बोझ बढ़ गया था।
नेतृत्व और प्रेरणा
- इस आंदोलन का नेतृत्व मदारी पासी ने किया।
- शुरुआत में आंदोलन को कांग्रेस और असहयोग आंदोलन (Non-Cooperation Movement) से प्रेरणा मिली, परंतु बाद में यह स्वतंत्र कृषक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ।
- स्थानीय कांग्रेस नेताओं ने प्रारंभ में इसका समर्थन किया, किंतु हिंसक प्रवृत्तियों के कारण बाद में इससे दूरी बना ली।
आंदोलन के कारण
- अत्यधिक लगान : ब्रिटिश शासन और जमींदारों ने किसानों पर बहुत ऊँचे कर और लगान लगाए।
- साहूकारी शोषण : साहूकारों द्वारा अत्यधिक ब्याज दरों और जमीन जब्ती की प्रथाओं ने किसानों को कर्ज़ के जाल में फँसा दिया।
- बेदखली और उत्पीड़न : बटाईदार किसानों को उनकी ज़मीनों से जबरन बेदखल किया जा रहा था।
- फसल की खराबी और महँगाई : आर्थिक संकट के चलते किसानों की स्थिति और दयनीय हो गई।
मुख्य उद्देश्य
- एकजुट होकर अत्याचार के विरुद्ध खड़ा होना।
- लगान में कटौती, कर्ज़ में राहत और साहूकारों की मनमानी पर रोक लगाना।
- जमींदारों और अधिकारियों के अन्यायपूर्ण व्यवहार का विरोध करना।
आंदोलन की प्रकृति और क्रम
- आंदोलन के दौरान किसानों ने "एका समितियाँ" बनाई और शपथ ग्रहण समारोहों का आयोजन किया।
- किसान देवी-देवताओं के सामने शपथ लेते थे कि वे—
- लगान तभी देंगे जब न्यायसंगत होगा,
- किसी किसान की फसल जब्त नहीं होने देंगे,
- एक-दूसरे के साथ एकता बनाए रखेंगे।
- यह आंदोलन मुख्यतः अहिंसक था, परंतु कुछ क्षेत्रों में झड़पें और हिंसक घटनाएँ भी हुईं।
- ब्रिटिश प्रशासन ने कठोर दमन करके इसे 1922 तक समाप्त कर दिया।
परिणाम और महत्त्व
- यद्यपि आंदोलन को दबा दिया गया, परंतु इसने ग्रामीण एकता और किसान चेतना को नई दिशा दी।
- इस आंदोलन ने किसानों को यह एहसास कराया कि संगठित होकर ही अन्याय का प्रतिरोध संभव है।
- एका आंदोलन ने आगे चलकर किसान सभाओं और आंदोलनों को मजबूत आधार प्रदान किया।
- यह भारत के कृषक आंदोलनों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसने राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक एकता दोनों को सशक्त किया।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (1884–1963)
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसम्बर 1884 को बिहार के सारण ज़िले (अब सीवान) के जीरादेई गाँव में हुआ था। वे अत्यंत प्रतिभाशाली, सरल, सच्चरित्र और राष्ट्रभक्त व्यक्ति थे। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में और उच्च शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राप्त करने के बाद उन्होंने वकालत के क्षेत्र में काफ़ी नाम कमाया।
1906 में उनके नेतृत्व में बिहारी छात्र सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन सम्पन्न हुआ। 1916 में उन्होंने ‘बिहार लॉ’ नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। 1919 के रोलेट एक्ट के विरोध में उन्होंने वकालत छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई।
1930 में उन्हें बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया, और 1934 में वे मुंबई अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1939 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के त्यागपत्र देने के बाद वे पुनः कांग्रेस अध्यक्ष बने। स्वतंत्रता के बाद 1946-47 में उन्होंने भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में कार्य किया।
26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने पर वे भारत के पहले राष्ट्रपति बने। अपने कार्यकाल में उन्होंने प्रधानमंत्री या कांग्रेस को अपने संवैधानिक अधिकारों में हस्तक्षेप का अवसर नहीं दिया और पूर्ण निष्ठा से संविधान का पालन किया। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने दृढ़ रुख अपनाया।
राष्ट्रपति पद पर 12 वर्षों तक कार्य करने के बाद 1962 में उन्होंने अवकाश ग्रहण किया। उसी वर्ष उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” प्रदान किया गया। 28 फरवरी 1963 को उनका निधन हो गया।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का सम्पूर्ण जीवन सत्य, सेवा और सरलता का प्रतीक रहा। वे भारत के लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी और जनता के राष्ट्रपति के रूप में सदैव स्मरणीय रहेंगे।
मौलाना मजहरुल हक़ (1866–1930)
मौलाना मजहरुल हक़ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के उन महान सिपाहियों में से थे, जिन्होंने धार्मिक एकता, देशप्रेम और त्याग की अद्भुत मिसाल पेश की। उनका जन्म 22 दिसम्बर 1866 को बिहार के पटना ज़िले के मनेर थाना के ब्रह्मपुर गाँव में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वे उच्च शिक्षा के लिये इंग्लैंड गये, जहाँ से वकालत की डिग्री प्राप्त कर भारत लौटे।
1912 में जब पटना में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, तब मौलाना मजहरुल हक़ को स्वागत समिति का अध्यक्ष चुना गया। इस अवसर पर दिये गये उनके ओजस्वी भाषण ने लोगों में आज़ादी की भावना जागृत कर दी। 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने कहा – “अब समय गुजर गया, यह काम करने का समय है।” यह वक्तव्य उनके कर्मठ और देशभक्त व्यक्तित्व का प्रमाण था।
उन्होंने खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। वे महात्मा गांधी के घनिष्ठ सहयोगी थे और गांधीजी उन्हें स्नेहपूर्वक “देश भूषण” कहा करते थे। 1920 में उन्होंने पटना में सदाकत आश्रम की स्थापना की, जो आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख केंद्र बना।
मौलाना मजहरुल हक़ ने ‘मदरलैंड’ नामक अंग्रेज़ी समाचार पत्र का प्रकाशन किया, जिसके माध्यम से वे देशवासियों में राष्ट्रवादी चेतना फैलाते रहे। साथ ही, वे बिहार विद्यापीठ के संस्थापक कुलाधिपति भी रहे, जहाँ स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों पर आधारित शिक्षा दी जाती थी।
मौलाना मजहरुल हक़ का सम्पूर्ण जीवन हिन्दू-मुस्लिम एकता, न्याय, समानता और स्वतंत्रता के आदर्शों को समर्पित था। उन्होंने देश के लिये अपना धन, समय और जीवन सब कुछ अर्पित कर दिया। 2 जनवरी 1930 को उनका निधन हुआ, पर उनकी देशभक्ति की विरासत आज भी अमर है।
डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह (1887–1957)
डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह का जन्म 18 जून 1887 को बिहार के औरंगाबाद ज़िले के पोईअवा गाँव में हुआ था। वे प्रारम्भ से ही अत्यंत मेधावी, सत्यनिष्ठ और देशभक्त प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने सार्वजनिक जीवन की दिशा में कदम बढ़ाया और बिहार के राजनीतिक व सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
महात्मा गांधी और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के साथ उन्होंने चंपारण सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका निभायी। यह आंदोलन किसानों के शोषण के विरुद्ध था और डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह ने किसानों की समस्याओं को समझकर उनके अधिकारों की रक्षा में उल्लेखनीय कार्य किया। वे कांग्रेस पार्टी से जुड़े और स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न आंदोलनों — असहयोग, नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन आदि — में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री तथा वित्त मंत्री बने (1946–1957)। उन्होंने बिहार के आर्थिक और शैक्षिक विकास में ठोस सुधार किये। उनके नेतृत्व में कृषि, सिंचाई, शिक्षा और उद्योग के क्षेत्र में अनेक योजनाएँ लागू की गईं, जिनसे बिहार की प्रगति की नींव रखी गयी। वे एक सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले नेता थे, जिन्हें जनता “बिहार विभूति” कहकर सम्मान देती थी।
डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह ने अपने जीवन में हमेशा सत्य, निष्ठा और सेवा के आदर्शों का पालन किया। 5 जुलाई 1957 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी नीतियाँ और कार्य आज भी बिहार के विकास का आधार मानी जाती हैं।