एक जाति में कुल आनुवंशिक विविधता को जीन कोश कहते हैं। वर्तमान में जैव विविधता के ह्रास के कारण विश्व में जीन पूल केंद्रों का निर्माण किया जा रहा है, जिससे समाप्त हो रही जैव विविधता को संरक्षित किया जा सके। ये वे स्थान हैं जहाँ पर फसलों की महत्त्वपूर्ण प्रजातियाँ और स्थानिक जंतुओं की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इसमें कृषि पादप प्रजातियों एवं उष्णकटिबंधीय पौधों के जीन या आनुवंशिक पदार्थों को एकत्रित किया जाता है।
जीन पूल एक निश्चित समय में समष्टि के कुल आनुवंशिक पदार्थों का योग है। आनुवंशिक पदार्थों का एकत्रीकरण कर जीन पूल केंद्रों में रखा जाता है, जो भविष्य में प्रयोग में लाए जाते हैं। जीन पूल केंद्र के अंतर्गत विश्व के महत्त्वपूर्ण जैव विविधता वाले क्षेत्र शामिल हैं।
विश्व के प्रमुख जीन पूल केंद्र इस प्रकार हैं-
- दक्षिण एशिया उष्णकटिबंधीय क्षेत्र, इंडो-चाइना एवं द्वीपीय क्षेत्र जो मलाया द्वीप को शमिल करता है।
- दक्षिण-पश्चिम एशिया क्षेत्र, कॉकेशियन (Caucasian) मध्य-पूर्व एवं उत्तर-पश्चिम भारतीय क्षेत्र
- पूर्वी एशिया, चाइना एवं जापान क्षेत्र
- भूमध्यसागरीय क्षेत्र
- यूरोप क्षेत्र
- दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वत के क्षेत्र
भारतीय प्रेस परिषद् (Press Council of India)- प्रथम प्रेस आयोग ने भारत में प्रेस की स्वतंत्रता के संरक्षण एवं पत्रकारिता में उच्च आदर्शों के मानकों को बनाए रखने के लिये एक प्रेस परिषद् की सिफारिश की। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रथम बार 4 जुलाई, 1966 को एक स्वायत्त, वैधानिक तथा अर्ध-न्यायिक संस्था के रूप में भारतीय प्रेस परिषद् (Press Council of India) की स्थापना की गई। इस परिषद् ने 16 नवंबर, 1966 को विधिवत रूप से कार्य करना शुरू किया। भारतीय प्रेस परिषद् के प्रथम अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे.आर. मधोल्कर (J.R. Mudholkar) थे।
- भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं। इस परिषद् में कुल 28 सदस्य होते हैं, जो विभिन्न-विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये निम्नलिखित हैं-
- 20 सदस्य समाचार एजेंसियों एवं प्रेस संगठन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- 5 सदस्य संसद के दोनों सदनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- 3 सदस्य साहित्य अकादमी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा बार काउंसिल ऑफ इंडिया का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- भारतीय प्रेस परिषद् का मुख्यालय नई दिल्ली में है।
- राष्ट्रीय प्रेस दिवस प्रतिवर्ष 16 नवंबर को मनाया जाता है।
जनसंचार के राष्ट्रीय प्रलेखन केंद्र (National Documentation Centres on Mass Communication)- वर्ष 1976 में इसकी स्थापना की गई थी। इसका उद्देश्य मास मीडिया कार्यक्रमों के प्रभावों एवं उनकी सेवाओं के रुझानों के बारे में सूचना, तथ्य एवं अन्य जानकारियाँ एकत्र करना है। NDCMC का प्रमुख कार्य समाचार लेखन एवं अन्य सूचनाएँ तथा मास मीडिया कम्युनिकेशन से संबंधित है। वर्तमान में इसकी गतिविधियों में सूचनाओं का संग्रह एवं डोक्यूमेंटेशन करना प्रमुख है।
- यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ इंडिया भारत में कार्यरत एक संवाद समिति है।
- यूनाइटेड न्यूज़ ऑफ इंडिया के समाचार ब्यूरो भारत के लगभग सभी राज्यों की राजधानियों में तथा प्रमुख शहरों में विद्यमान हैं।
- U.N.I. का गठन कंपनी एक्ट, 1956 के अंतर्गत दिसंबर 1959 में हुआ। 21 मार्च, 1961 को इसने विधिवत् काम शुरू किया।
- 1 मई, 1982 को U.N.I. ने हिंदी सेवा ‘यूनीवार्त्ता’ की शुरुआत की तथा दस वर्ष पश्चात् 5 जून, 1992 को U.N.I. उर्दूसेवा तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के द्वारा शुरू की गई।
- U.N.I. की फोटो सेवा में प्रतिदिन लगभग 200 तस्वीरें वितरित की जाती हैं, जिनमें 60 अंतर्राष्ट्रीय तस्वीरें E.P.A., यूरोपियन प्रेस फोटो एजेंसी तथा रॉयटर्स से ली जाती हैं। इसकी ग्राफिक्स सेवा प्रतिदिन 5 या 6 ग्राफिक्स वितरित करती है।
- U.N.I. ने ही सर्वप्रथम विश्व में उर्दू समाचारों की आपूर्ति की थी।
- इसका नेटवर्क दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर तक फैला हुआ है।
- U.N.I. संवाददाता वाशिंगटन, न्यूयॉर्क, लंदन, मास्को, दुबई, इस्लामाबाद, काठमांडू, कोलंबो, ढाका, सिंगापुर, टोरंटो, सिडनी, बैंकाक और काबुल में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं।
- U.N.I. ने ख़बरों के आदान-प्रदान हेतु अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियों से समझौते कर रखे हैं, जिनमें- चीन की शिन्हुआ, रूस की रिया नोवोस्ती, बांग्लादेश की यू.एन.बी., तुर्की की अनादोलू, संयुक्त अरब अमीरात की वाम, बहरीन की जी.एन.ए. और कुवैत की कुना इत्यादि शामिल हैं।
- हमारे घरों में प्रयोग की जाने वाली विद्युत घंटियों में नाल अथवा अंग्रेजी अक्षर U आकार के विद्युत चुंबक का प्रयोग किया जाता है। इसमें U आकार के नम्र लोहे (क्रोड) पर लिपटे तारों का एक सिरा हथौड़े लगे लोहे की पत्ती से जुड़ा होता है तो दूसरा सिरा विद्युत सेल अथवा मेंस सहित संपर्क पेंच से।
- विद्युत आपूर्ति होते ही कुंडली विद्युत चुंबक बनकर लोहे की पत्ती को आकर्षित करती है जिससे हथौड़ा पास स्थित घंटी से टकराता है और ध्वनि उत्पन्न होती है।
- किंतु इस प्रक्रिया में लोहे की पत्ती का संपर्क पेंच से टूट जाने से विद्युत धारा का प्रवाह रुक जाता है और कुंडली के विद्युत चुंबक न रह जाने से हथौड़े वाली पत्ती पुनः मूल स्थिति में जाकर संपर्क पेंच को स्पर्श करती है।
- इस प्रकार परिपथ पूर्ण होने से कुंडली फिर से विद्युत चुंबक बनकर घंटी बजाने में सहयोग करती है। परिपथ जुड़ने और टूटने की यह प्रक्रिया अति शीघ्रता से होने के कारण विद्युत घंटी की ध्वनि लगातार सुनाई देती है।
- देश से प्रतिभा पलायन (ब्रेन ड्रेन) की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिये जनवरी 2017 में केंद्र सरकार द्वारा ‘Visiting Advanced Joint Research Faculty’ स्कीम की शुरुआत की गई।
- वैसे तो यह योजना विदेशी वैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों के लिये है, लेकिन सारा ज़ोर एनआरआई और भारतीय मूल के वैज्ञानिकों पर है। इन्हें सरकारी शोध एवं शिक्षण संस्थानों में काम करने की पेशकश की गई है।
- योजना के तहत ये वैज्ञानिक सरकारी शोध एवं शिक्षण संस्थानों में 1-3 महीने तक अपनी सेवाएँ दे सकते हैं।
- इसके एवज में सरकार उन्हें तनख्वाह के रूप में पहले महीने एकमुश्त राशि के रूप में 15,000 अमेरिकी डॉलर प्रदान करेगी। बाकी दो महीनों में वैज्ञानिकों को दस-दस हज़ार अमेरिकी डॉलर मिलेंगे।
- इस योजना को विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (SERB), विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग का एक सांविधिक निकाय, ने शुरू किया है।
- वज्र फैकल्टी स्कीम शुरू करने का उद्देश्य दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों को भारत लाना और देश में अनुसंधान का संचालन करना है।
- इसे गुलाम वंश या ममलूक वंश का संस्थापक माना जाता है।
- कुतुबुद्दीन ऐबक ने सिंहासन पर बैठने के बाद सुल्तान की उपाधि ग्रहण नहीं की बल्कि केवल ‘मलिक’ एवं ‘सिपहसालार’ की पदवियों से संतुष्ट रहा।
- ऐबक ने अपनी राजधानी लाहौर में बनाई।
- ऐबक की उदारता के कारण उसे ‘लालबख्श’ कहा गया।
- 1210 में चौगान (पोलो) खेलते समय अचानक घोड़े से गिर जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई।
- ऐबक ने प्रसिद्ध सूफी संत ख्वाज़ा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर दिल्ली में कुतुबमीनार की नींव रखी। बाद में उसके दामाद इल्तुतमिश ने इसे पूर्ण कराया। तूफान के कारण क्षतिग्रस्त हुई मीनार के कुछ भागों की मरम्मत बाद में फिरोज़शाह तुगलक ने करवाई थी।
- नालंदा विश्वविद्यालय को ध्वस्त करने वाला बख्तियार खिलज़ी, ऐबक का सेनानायक था।
- कुछ इतिहासकारों के अनुसार ऐबक के पश्चात् आरामशाह (1210) सुल्तान बना।
DNA में उपस्थित न्यूक्लियोटाइड क्षार (Nucleotide Bases) एडिनीन (A), थायमीन (T), साइटोसीन (C) तथा गुआनिन (G) को चरणबद्ध करने की क्रिया ही DNA अनुक्रमण कहलाती है। इसके निम्नलिखित लाभ हैं-
- ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट एक बड़ा उदाहरण है- DNA अनुक्रमण का।
- इसकी सहायता से विभिन्न आनुवंशिक बीमारियों (Genetic Diseases), जैसे- अल्जाइमर (Alzheimer’s), सिस्टिक फाईब्रोसिस (Cystic Fibrosis), मायोटॉनिक डिस्ट्रोफी (Myotonic Dystrophy) और कैंसर (Cancer) आदि से निजात पाने में सहायता मिलेगी।
- जीन अनुक्रम (Gene Sequence) के माध्यम से पशुधन की वंशावलियों को जानने में मदद मिलेगी।
- इस प्रणाली की मदद से मानव जीन से संबंधित रोगों के कारणों का पता लगाया जा सकेगा, परंतु सभी रोगों का ज्ञान केवल जीन अनुक्रमण से संभव नहीं है।
- पशुओं में रोगों से लड़ने वाली प्रजातियों का विकास किया जा सकेगा।
- यह प्रणाली रोगों के उपचार के लिये नई विधियों का पता लगाने में उपयोगी सिद्ध होगी।
- किसी भी व्यक्ति में रोग के लक्षण दिखने के पूर्व ही उसकी रोकथाम की जा सकेगी।
- खेल रत्न पुरस्कार- भारत का सर्वोच्च खेल सम्मान खेल रत्न पुरस्कार 1991-92 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार के रूप में स्थापित किया गया था और 2021 में इसका नाम बदलकर मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार कर दिया गया। यह प्रतिष्ठित पुरस्कार चार वर्षों की अवधि में असाधारण खेल प्रदर्शन के लिये प्रदान किया जाता है, जिसमें प्राप्तकर्त्ता को एक पदक, एक प्रमाण पत्र और नकद पुरस्कार दिया जाता है।
- इसके पहले प्राप्तकर्त्ता भारतीय शतरंज ग्रैंडमास्टर विश्वनाथन आनंद थे। तब से यह पुरस्कार कई प्रतिष्ठित एथलीटों को दिया जा चुका है, जिनमें एम.सी. मैरी कॉम, पीवी सिंधु, साइना नेहवाल, विजेंदर सिंह, सचिन तेंदुलकर और विराट कोहली शामिल हैं।
- इस प्रतिष्ठित खेल पुरस्कार को सबसे कम उम्र में प्राप्त करने वाले बीजिंग 2008 ओलंपिक में भारत का पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीतने वाले पिस्टल शूटर अभिनव बिंद्रा थे। उन्होंने 2001 में सिर्फ 18 साल की उम्र में यह पुरस्कार प्राप्त किया था। भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी 1994-95 में ओलंपिक कांस्य पदक जीतने के बाद खेल रत्न से सम्मानित होने वाली पहली महिला थीं।
- अर्जुन पुरस्कार- महाभारत के नायक अर्जुन के नाम पर अर्जुन पुरस्कार 1961 में शुरू किया गया और खेल रत्न पुरस्कार की स्थापना से पहले यह भारत का शीर्ष खेल सम्मान था। यह पुरस्कार चार साल की अवधि में खेलों में लगातार उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ी को प्रदान किया जाता है। इसमें अर्जुन की प्रतिमा, प्रमाण पत्र और नकद पुरस्कार प्रदान किया जाता है।
- 1961 में पहले प्राप्तकर्ताओं में फुटबॉल ओलंपियन पी.के. बनर्जी शामिल थे। हॉकी खिलाड़ी अन्ना लम्सडेन अर्जुन पुरस्कार पाने वाली पहली महिला थीं।
- वर्तमान नियमों के तहत जो व्यक्ति पहले ही खेल रत्न पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं, वे अर्जुन पुरस्कार के लिये अपात्र हैं। हालाँकि, जो लोग अर्जुन पुरस्कार जीत चुके हैं उन्हें अभी भी खेल रत्न के लिये नामांकित किया जा सकता है।
- द्रोणाचार्य पुरस्कार- 1985 में स्थापित द्रोणाचार्य पुरस्कार खेल प्रशिक्षकों के लिये भारत का सर्वोच्च सम्मान है। यह उन कोचों को दिया जाता है जिन्होंने ऐसे एथलीटों को तैयार किया है जिन्होंने प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक जीते हैं। इस पुरस्कार का नाम महाभारत के पूज्य गुरु द्रोणाचार्य के नाम पर रखा गया है और इसमें द्रोणाचार्य की एक कांस्य प्रतिमा, एक प्रमाण पत्र और नकद पुरस्कार प्रदान किया जाता है।
- शुरुआती विजेताओं में कुश्ती कोच भालचंद्र भास्कर भागवत, मुक्केबाजी के गुरु ओम प्रकाश भारद्वाज और महान एथलेटिक्स कोच ओम नांबियार शामिल थे, जिन्हें भारतीय स्प्रिंट क्वीन पी.टी. उषा के करियर को आकार देने के लिये जाना जाता है। द्रोणाचार्य पुरस्कार पाने वाली पहली महिला एथलेटिक्स कोच रेणु कोहली थीं, जिन्होंने 2002 में यह पुरस्कार जीता था।
- द्रोणाचार्य पुरस्कार हाल की उपलब्धियों और कोचिंग में आजीवन योगदान दोनों के लिये दिया जाता है।
- मेजर ध्यानचंद पुरस्कार- भारत के महान हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद के सम्मान में नामित मेजर ध्यानचंद पुरस्कार खेलों में आजीवन उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च सम्मान है। 2002 में स्थापित यह पुरस्कार उन व्यक्तियों को दिया जाता है जिन्होंने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है और खेलों को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। पुरस्कार पाने वालों को ध्यानचंद की प्रतिमा, एक प्रमाण पत्र और नकद पुरस्कार मिलता है।
- पहले पुरस्कार पाने वालों में ओलंपियन मुक्केबाज शाहूराज बिराजदार, भारतीय पुरुष हॉकी टीम के खिलाड़ी अशोक दीवान और भारतीय महिला बास्केटबॉल टीम की प्रतिष्ठित खिलाड़ी और कोच अपर्णा घोष शामिल थीं।
- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ट्रॉफी- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ट्रॉफी (MAKA ट्रॉफी) भारत के राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों में सबसे पुराना है, जिसकी स्थापना 1956-1957 शैक्षणिक वर्ष में की गई थी। भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम पर यह पुरस्कार पिछले साल के दौरान अंतर-विश्वविद्यालय टूर्नामेंटों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले विश्वविद्यालय को दिया जाता है। प्रथम पुरस्कार बॉम्बे विश्वविद्यालय को मिला था, लेकिन अमृतसर (पंजाब) का गुरु नानक देव विश्वविद्यालय विशेष रूप से सफल रहा है, जिसने अब तक दिये गए 64 पुरस्कारों में से 22 जीते हैं। ट्रॉफी में एक रोलिंग MAKA ट्रॉफी शामिल है, जो हर साल विजेता विश्वविद्यालय को नकद पुरस्कार के साथ दी जाती है।
- राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार- 2009 में शुरू किया गया यह राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार पिछले तीन वर्षों में खेल को बढ़ावा देने और विकास में उनकी भूमिका के लिये संगठनों (निजी और सार्वजनिक दोनों) और व्यक्तियों को प्रदान किया जाता है।
प्राप्तकर्त्ताओं का चयन चार श्रेणियों में किया जाता है-- युवा प्रतिभाओं की पहचान और उनका पोषण
- खेलों में कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी
- खिलाड़ियों का रोजगार और खेल कल्याण उपाय
- खेल के विकास के लिये
नोट- प्रत्येक श्रेणी में विजेताओं को एक प्रशस्ति पत्र और एक ट्रॉफी मिलती है, प्रत्येक वर्ष एक ही श्रेणी में कई विजेता संभव हैं।
- तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार- 1994 में तेनजिंग नोर्गे के सम्मान में स्थापित किया गया जो सर एडमंड हिलेरी के साथ माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले लोगों में से एक थे, तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार भूमि, समुद्र और हवा में साहसिक खेलों में असाधारण उपलब्धियों को मान्यता देता है। इसमें पर्वतारोहण, स्काईडाइविंग, खुले पानी में तैराकी और नौकायन जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं।
- यह पुरस्कार अर्जुन पुरस्कार के साथ साहसिक खेल समकक्ष के रूप में कार्य करता है तथा 2004 से मुख्य राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों के साथ प्रदान किया जाता है। इसकी स्थापना से पहले साहसिक खेलों में उपलब्धियों को अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया जाता था।
- प्रत्येक वर्ष तेनजिंग नोर्गे पुरस्कार को चार श्रेणियों में प्रदान किया जाता है- भूमि साहसिक, जल (समुद्री) साहसिक, वायु साहसिक और आजीवन उपलब्धि।
- राष्ट्रीय खेल पुरस्कार 6 सम्मानों का एक संग्रह है।
- भारत में खेल सम्मानों का शिखर माने जाने वाले राष्ट्रीय खेल पुरस्कार 6 अलग-अलग पुरस्कारों का संग्रह हैं, जो खिलाड़ियों, कोचों या संगठनों को उनकी उपलब्धियों और भारतीय खेलों के विकास में योगदान के लिये प्रदान किये जाते हैं।
- भारत के राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों में शामिल छह मुख्य पुरस्कार मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार या केवल खेल रत्न, अर्जुन पुरस्कार, द्रोणाचार्य पुरस्कार, मेजर ध्यानचंद पुरस्कार, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ट्रॉफी (माका ट्रॉफी) और राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार हैं।
- वर्ष 2004 से, 6 राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों के साथ तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार भी दिया जाने लगा है, जिससे यह सूची का एक अनौपचारिक हिस्सा बन गया है।
- राष्ट्रीय खेल पुरस्कार भारत के युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय (Ministry of Youth Affairs and Sports) द्वारा प्रतिवर्ष आवंटित किये जाते हैं।
- नामांकित खिलाड़ी आमतौर पर भारत के राष्ट्रीय खेल दिवस 29 अगस्त को राष्ट्रपति भवन में भारत के राष्ट्रपति से अपने पुरस्कार प्राप्त करते हैं, जो भारतीय हॉकी के दिग्गज मेजर ध्यानचंद का जन्मदिवस है।
- भारत में राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों की संशोधित सूची निम्नलिखित है-
- मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार- चार वर्षों की अवधि में असाधारण खेल प्रदर्शन के लिये दिया जाता है।
- अर्जुन पुरस्कार- चार वर्षों की अवधि में खेलों में लगातार उच्च प्रदर्शन के लिये दिया जाता है।
- द्रोणाचार्य पुरस्कार- उन कोचों को दिया जाता है जिन्होंने प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में पदक विजेता तैयार किये हैं।
- मेजर ध्यानचंद पुरस्कार- खेलों को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों और योगदान के लिये व्यक्तियों को सम्मानित किया जाता है।
- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ट्रॉफी- गत वर्ष अंतर-विश्वविद्यालय टूर्नामेंटों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले विश्वविद्यालय को दिया जाता है।
- राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार- पिछले तीन वर्षों में खेलों को बढ़ावा देने और विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले संगठनों और व्यक्तियों को दिया जाता है।
- तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार- भूमि, समुद्र और हवा में साहसिक खेलों या गतिविधियों में उत्कृष्ट उपलब्धियों को मान्यता देने के लिये दिया जाता है।
- प्राचीन भारत में तीन प्रमुख मूर्तिकला शैलियों का विकास हुआ। गांधार शैली, मथुरा शैली और अमरावती शैली।
- गांधार शैली का विकास भारत के पश्चिमोत्तर भाग में कुषाण शासकों के संरक्षण में हुआ। इस पर यूनानी (Hellenistic) कला का प्रभाव रहा है। बौद्ध धर्म से प्रभावित इस कला में बुद्ध की योगी या आध्यात्मिक मुद्रा में मूर्तियाँ बनी हैं। नीले-धूसर बलुआ पत्थर का इस शैली में उपयोग हुआ है।
- मथुरा क्षेत्र में विकसित मथुरा शैली भी कुषाण शासकों के संरक्षण में विकसित हुई। इस पर बौद्ध, जैन, हिंदू तीनों का प्रभाव है। चित्तीदार लाल बलुआ पत्थर से बनी बुद्ध मूर्तियों में ‘पद्मासन मुद्रा’ और सिर के पीछे ‘आभामंडल’ का प्रयोग हुआ है। इस शैली पर विदेशी प्रभाव नगण्य है।
- सातवाहन राजाओं के संरक्षण में कृष्णा-गोदावरी घाटी, नागार्जुन कोंडा आदि क्षेत्रों में विकसित अमरावती शैली भी मुख्यतः बौद्ध धर्म से प्रभावित है। विदेशी प्रभाव से रहित इस शैली में मुख्यतः सफेद संगमरमर का इस्तेमाल हुआ है।
- चोलयुगीन मूर्तियों में नटराज की कांस्य प्रतिमा सर्वोत्कृष्ट है।
- गंग-वंश से संबंधित मंत्री चामुंड राय ने पूर्व-मध्य काल में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में प्रथम तीर्थंकर के पुत्र बाहुबली की सबसे भव्य और शानदार मूर्ति बनवाई जिसे गोमतेश्वर मूर्ति कहते हैं।
- वायुमंडल में निलंबित कणिकीय पदार्थ तथा तरल बूंदों के सम्मिलित रूप को ‘एयरोसॉल’ कहा जाता है। इसके अंतर्गत धूलकण, राख, कालिख, परागकण, नमक, जैविक पदार्थ (बैक्टीरिया) इत्यादि आते हैं।
- यह एक परिवर्तनशील प्रकृति का तत्त्व है, जिसकी मात्रा विभिन्न कारणों से घटती-बढ़ती रहती है।
- इसकी मात्रा वायुमंडल में नीचे से ऊपर की ओर जाने पर घटती जाती है।
- ऊपरी वायुमंडल में एयरोसॉल की उपस्थिति मुख्यतः उल्काओं के विघटन, ज्वालामुखी उद्भेदन तथा प्रचंड आँधियों इत्यादि के फलस्वरूप होती है।
- इसके कारण ही सूर्य से आने वाले प्रकाश का ‘वर्णात्मक प्रकीर्णन’ होता है, जिससे कई प्रकार के नयनाभिराम (Picturesque) आकाशीय रंगों का आविर्भाव होता है।
- एयरोसॉल अथवा धूलकण आर्द्रताग्राही नाभिक की तरह कार्य करते हैं, जिसके चारों ओर जलवाष्प संघनित होकर बादलों का निर्माण करते हैं। जब वायुमंडल में उपस्थित एयरोसॉल का संपर्क सल्फर डाइऑक्साइड जैसी गैसों से हो जाता है तो ‘धूम कोहरे’ (Smog) का निर्माण होता है।
यह प्राकृतिक स्रोत से प्राप्त ईंधन है, जिसका उपयोग स्कूटर, मोटर साइकिल, कार आदि हल्के वाहनों के संचालन में पेट्रोल (Petrol) के रूप में; जबकि ट्रेक्टर, बस, ट्रक जैसे भारी वाहनों में डीज़ल (Diesel) के रूप में किया जाता है। पेट्रोलियम शब्द पेट्रा (चट्टान) एवं ओलियम (तेल) के मेल से बना है जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पेट्रोलियम भूमि के नीचे स्थित चट्टानों के मध्य से निकाला जाता है।
- मृत समुद्री जीवों के शरीर के सागर की निचली सतह में जमने और ऊपर से रेत-मिट्टी की मोटी परतों से ढक जाने के पश्चात् ये लाखों वर्षों में वायु की अनुपस्थिति में उच्च ताप-दाब पर पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस में रूपांतरित हो जाते हैं। किंतु अत्यंत धीमी प्रक्रिया और निर्माण की जटिल परिस्थितियों इसका निर्माण प्रयोगशाला में संभव नहीं है। तेल और गैस के जल से हल्के होने के कारण पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस की सतहें जल की सतह से ऊपर होती हैं।
- 1859 में विश्व का प्रथम तेल कुआं अमेरिका के पेनसिल्वेनिया में ड्रिल किया गया था। 1867 में असम के माकुम में तेल के होने का पता चला। आज गुजरात, बॉम्बे हाई समेत गोदावरी एवं कृष्णा नदियों के बेसिन में भी तेल कुएं हैं।
- अत्यधिक व्यावसायिक महत्त्व के कारण पेट्रोलियम को ‘काला सोना’ (Black Gold) भी कहते हैं।
पेट्रोलियम का परिष्करण
पेट्रोलियम गैस, पेट्रोल, डीज़ल, स्नेहक तेल, पैराफिन मोम, कैरोसिन तेल, बिटुमेन आदि संघटकों से निर्मित अप्रिय गंध वाला गहरे रंग का तेलीय द्रव होता है। इसके विभिन्न संघटकों/प्रभाजों को पृथक करने की प्रक्रिया परिष्करण कहलाती है जिसका संपादन पेट्रोलियम परिष्करणी (Petroleum Refinery) में किया जाता है।
- कछुओं की विशिष्ट प्रजातियों में से एक ओलिव रिडले कछुआ (Olive Ridley Turtle) प्रतिवर्ष शीत के समय में भारत के पूर्वी तटों पर अपने घोंसले बनाने के लिये प्रवास करते हैं।
- ओलिव रिडले कछुओं की संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण के लिये पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और UNDP (United Nations Development Programme) ने साझे तौर पर 1999 में ‘भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून’ में समुद्री कछुआ प्रोजेक्ट की शुरुआत की।
- इसकी शुरुआत, विशेषकर ओडिशा के तटीय क्षेत्र एवं अन्य राज्यों के तटीय क्षेत्रों से की जा रही है।
- यह प्रोजेक्ट कछुओं के प्रजनन क्षेत्रों को सुरक्षित करने तथा अन्य प्रकार की असुविधाओं से इन क्षेत्रों का संरक्षण करता है तथा इन क्षेत्रों के विकास के लिये गाइडलाइन जारी करता है।
- इसके अलावा यह इस क्षेत्र की मॉनीटरिंग तथा तकनीकी विकास के लिये फंड देता है।
- ओलिव कछुओं के घोंसले वाले क्षेत्रों की जाँच सैटेलाइट टेलीमेट्री तकनीकी के द्वारा की जा रही है।
- ओडिशा सरकार ने 1975 में इनके संरक्षण की योजना का प्रारंभ भितरकनिका अभयारण्य से किया।
- भारत सरकार द्वारा औद्योगिक क्षेत्र की दीर्घकालिक वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये 1 जुलाई, 1948 को भारतीय औद्योगिक वित्त निगम की स्थापना एक वित्तीय संस्थान के रूप में की गई।
- भारतीय औद्योगिक वित्त निगम लिमिटेड का मुख्य उद्देश्य भारत में औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिये दीर्घकालिक तथा मध्यकालिक साख की व्यवस्था करना है।
- 1 जुलाई, 1993 से इस निगम का पंजीकरण कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत करके इसे एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी के रूप में गठित किया गया है।
- इसके पश्चात् अक्टूबर 1999 से कंपनी का नाम IFCI Limited कर दिया गया।
- इसे कंपनी अधिनियम, 2013 के अंतर्गत एक सार्वजनिक वित्तीय संस्था के रूप में अधिसूचित किया गया है।
- भारत में कई कृषि-जलवायु हैं, जो नाज़ुक और कोमल फूलों की खेती के लिये अनुकूल हैं।
- फूलों की खेती कई राज्यों में व्यावसायिक रूप से की जा रही है और कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, मिज़ोरम, गुजरात, ओडिशा, झारखंड, हरियाणा, असम और छत्तीसगढ़ को पीछे छोड़ते हुए आंध्र प्रदेश (19.1%), तमिलनाडु (16.6%), मध्य प्रदेश (11.9%) राज्यों में फूलों की खेती की हिस्सेदारी बढ़ गई है।
- भारतीय फूल उद्योग में गुलाब, रजनीगंधा, ग्लेड्स, एंथुरियम, कार्नेशन, गेंदा आदि फूल शामिल हैं। फूलों की खेती आधुनिक पॉली और ग्रीनहाउस दोनों तरह की स्थितियों में की जाती है।
- भारत में वर्ष 2020-21 में फूलों का कुल निर्यात 575.98 करोड़ रुपये का रहा। प्रमुख आयातक देश संयुक्त राज्य अमेरिका, नीदरलैंड, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी और संयुक्त अरब अमीरात थे।
- भारत में 300 से अधिक निर्यातोन्मुख इकाईयाँ हैं। फूलों की 50% से अधिक इकाईयां कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में हैं। विदेशी कंपनियों से तकनीकी सहयोग के साथ भारतीय पुष्प कृषि उद्योग विश्व व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की ओर अग्रसर हैं।
हरित राजमार्ग (वृक्षारोपण, प्रतिरोपण, सौंदर्यीकरण एवं रखरखाव) नीति- 2015 का शुभारंभ 29 सितंबर, 2015 को किया गया। इस नीति का लक्ष्य समुदाय, किसानों, निजी क्षेत्र, गैर-सरकारी संगठनों और सरकारी संस्थानों की भागीदारी से राजमार्ग गलियारों में हरियाली को बढ़ावा देना है।
वित्तीयन
कुल परियोजना लागत का 1% वृक्षारोपण निधि के रूप में रखने का प्रावधान है, जिसका प्रबंधन भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के द्वारा किया जाता है।
उद्देश्य
- वायु प्रदूषण एवं धूल के हानिकारक प्रभाव को कम करना।
- गर्मी के दौरान सड़कों पर छाया प्रदान करना।
- ध्वनि प्रदूषण को कम करना।
- तटबंध, ढलावों पर मृदा के कटाव को कम करना।
- स्थानीय लोगों के लिये रोज़गार सृजित करना।
नोट- इसमें इसरो की ‘भुवन’ और ‘गगन’ उपग्रह प्रणालियों की मदद से सशक्त निगरानी व्यवस्था का प्रावधान है।
- मैसीडोनिया के सम्राट अलेक्जेंडर तृतीय को सिकंदर महान के रूप में जाना जाता है।
- अपने पिता फिलिप द्वितीय के सिंहासन पर 336 ई.पू. में सिकंदर 20 वर्ष की आयु में बैठा।
- सिंहासनारूढ़ होने के तुरंत बाद उसने पश्चिमी एशिया और मिस्र में एक लंबा सैन्य अभियान चलाया जिसके फलस्वरूप उसके राज्य की सीमा ग्रीस से लेकर उत्तर-पश्चिमी भारत तक विस्तारित हो गई।
- 326 ई.पू. में सिकंदर बैक्ट्रिया (बल्ख) एवं काबुल को जीतते हुए हिंदुकुश पर्वत पार कर भारत के पश्चिमोत्तर भाग पर आक्रमण किया।
- सिकंदर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत में केंद्रीय सत्ता का अभाव था। वहाँ अधिसंख्य राजतंत्र एवं गणतंत्र थे।
- तक्षशिला के शासक आम्भि, हिंदुकुश के शशिगुप्त आदि राजाओं ने सिकंदर के सामने बिना लड़े समर्पण कर दिया।
- इन भारतीय राजाओं का समर्थन लेकर सिकंदर ने झेलम/वितस्ता/हाइडेस्पीज के युद्ध में पोरस को पराजित कर दिया।
- लेकिन जब उसकी सेना ने मगध के नंद राजा के भय से व्यास नदी के आगे बढ़ने से इनकार कर दिया तब उसे अपना अभियान वापस लेना पड़ा।
- लौटते हुए सिकंदर की मृत्यु 323 ई.पू. में बेबीलोन में हो गई।
- सिकंदर की मृत्यु के पश्चात् 321 ई.पू. में उसके सेनानायकों में उसके साम्राज्य के बंटवारे के लिये ‘ट्रिपार्डिसस’ नामक संधि हुई।
- एक अंग्रेज़ जिनकी ख्याति प्राच्यविद् और पुरातत्त्व विद्वान की थी।
- जेम्स प्रिंसेप ‘जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ के संस्थापक सदस्य थे।
- प्रिंसेप पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने 1837 में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि को यूनानी लिपि की सहायता से पढ़ा जिसके परिणामस्वरूप प्राचीन लिपियों को पढ़ा जा सका।
- जेम्स प्रिंसेप ने अभिलेखों में उल्लिखित ‘देवानांपिय’ की पहचान सिंहल (श्रीलंका) के राजा तिस्स से की जिसे वहीं के दीपवंश और महावंश ग्रंथों के आधार पर भारतीय सम्राट अशोक की उपाधि बताया। 1915 में मास्की से प्राप्त लेख में ‘अशोक’ का नाम भी मिल गया।
- जेम्स प्रिंसेप बनारस और कलकत्ता के टकसाल के महापारखी (Assay Master) भी रहे थे।
- उन्होंने मुद्राशास्त्र, धातु विज्ञान और मौसम विज्ञान के विविध पहलुओं का भी अध्ययन किया था।
- उनके द्वारा लिखित निबंधों का संग्रह ‘इंडियन एंटीक्विटीज़’ है।
क्रम संख्या |
जलधारा का नाम |
जलधारा की प्रकृति |
1. |
उत्तरी विषुवतरेखीय धारा |
गर्म |
2. |
विपरीत विषुवतरेखीय धारा |
गर्म |
3. |
क्यूरोशिवो धारा |
गर्म |
4. |
सुशीमा धारा |
गर्म |
5. |
क्यूराइल/ओयाशिवो धारा |
ठंडी |
6. |
उत्तरी प्रशांत प्रवाह |
गर्म |
7. |
अलास्का धारा |
गर्म |
8. |
कैलिफोर्निया धारा |
ठंडी |
9. |
दक्षिणी विषुवतरेखीय धारा |
गर्म |
10. |
पूर्वी ऑस्ट्रेलियन धारा |
गर्म |
11. |
पेरू धारा |
ठंडी |
12. |
अंटार्कटिक प्रवाह |
ठंडी |
- राष्ट्रीय अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम (NSFDC) की स्थापना भारत सरकार द्वारा फरवरी 1989 में कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 5 के अंतर्गत (वर्तमान में 2013 की धारा 8 के अधीन) की गई।
- NSFDC का वृहत् उद्देश्य रियायती ऋण के रूप में सभी अनुसूचित जातियों के परिवारों, जो दोहरी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं, के आर्थिक विकास, उत्थान एवं आर्थिक सशक्तीकरण के लिये विभिन्न योजनाओं के माध्यम से आर्थिक सहयोग प्रदान करना है।
- निगम की अधिकृत शेयर पूँजी 1000 करोड़ रुपये है।
- NSFDC चैनल वित्त प्रणाली (Channel Finance System) के माध्यम से कार्य करता है, जिसमें निगम के रियायती ऋण, संबंधित राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासनों के द्वारा नियुक्त State Channelising Agencies के माध्यम से लाभार्थियों तक पहुँचते हैं।
- देश में एकीकृत कृषि प्रणाली (IFS) के हिस्से के रूप में मधुमक्खी पालन के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन और शहद मिशन (NBHM) के तीन वर्षों (2020-21 से 2022-23) के लिये 500 करोड़ रुपये के आवंटन को मंज़ूरी दी है।
- इस मिशन की घोषणा आत्मनिर्भर भारत योजना के एक भाग के रूप में की गई थी।
- राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन और शहद मिशन का लक्ष्य ‘मीठी क्रांति’ के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये देश में वैज्ञानिक मधुमक्खी पालन का समग्र प्रचार और विकास करना है, जिसे राष्ट्रीय मधुमक्खी बोर्ड (National Bee Board) के माध्यम से लागू किया जा रहा है।
- मधुमक्खी पालन एक कृषि आधारित गतिविधि है, जो एकीकृत कृषि प्रणाली के एक भाग रूप में ग्रामीण क्षेत्रों के किसानों/भूमिहीन मज़दूरों द्वारा की जा रही है।
- मधुमक्खी पालन फसलों के परागण में उपयोगी होता है, जिससे फसल की उपज बढ़ाने और शहद व अन्य उच्च मूल्य मधुमक्खी उत्पादों को उपलब्ध कराने के माध्यम से किसानों और मधुमक्खी पालकों की आय में वृद्धि हुई है, जैसे- मधुमक्खी की मोम, मधुमक्खी पराग, प्रोपोलिस, रॉयल जेली, मधुमक्खी का जहर आदि।
- भारत की विविध कृषि जलवायु परिस्थितियां मधुमक्खी पालन, शहद उत्पादन और शहद के निर्यात के लिये काफी संभावनाएँ एवं अवसर प्रदान करती हैं।
- वित्तीय वर्ष 2013-14 से वित्तीय वर्ष 2019-20 के बीच भारत के शहद के निर्यात में लगभग 110% की वृद्धि हुई है।
खोज |
खोजकर्त्ता |
उत्तरी ध्रुव |
रॉबर्ट पियरे |
दक्षिणी ध्रुव |
एमंडसेन |
अंटार्कटिका |
जेम्स कुक |
ऑस्ट्रेलिया |
जेम्स कुक व तस्मान |
अमेरिका |
कोलंबस |
भारत |
वास्को-द-गामा |
अलास्का |
विट्स बेरिंग |
ग्रीनलैंड |
एरिक द रेड |
वेस्टइंडीज |
कोलंबस |
चीन |
मार्को पोलो |
केप ऑफ गुड होप |
बार्थोलोम्यू डियाज़ |
- यह पृथ्वी के सर्वाधिक नज़दीक है, जो सूर्य एवं चंद्रमा के बाद तीसरा सबसे चमकीला खगोलीय पिंड है।
- शाम को पश्चिम में एवं सुबह को पूरब में दिखाई देने के कारण ही इसे क्रमशः ‘साँझ का तारा’ तथा ‘भोर का तारा’ भी कहते हैं।
- इसे ‘पृथ्वी की बहन’ भी कहा जाता है, क्योंकि यह आकार, घनत्व एवं व्यास में पृथ्वी के लगभग बराबर है।
- शुक्र के वायुमंडल में अधिकतम कार्बन डाइऑक्साइड (90-95%) होने के कारण ही इस पर ‘प्रेशर कुकर’ जैसी स्थिति उत्पन्न होती है इसलिये यह सबसे गर्म ग्रह (सतह का तापमान लगभग 465०C) है। इसके चारों तरफ सल्फर डाइऑक्साइड के घने बादल हैं।
- शुक्र एवं अरुण की परिक्रमण दिशा विपरीत (पूरब से पश्चिम) अर्थात् दक्षिणावर्त है, जबकि अन्य सभी ग्रहों की वामावर्त है।
- बुध के समान इसका भी कोई उपग्रह नहीं है।
- इसका परिक्रमण काल 225 दिनों (कुछ स्रोतों में 255 दिन) का तथा घूर्णन काल 243 दिनों का होता है अर्थात् हमारे सौरमंडल के अन्य ग्रहों की अपेक्षा सर्वाधिक लंबे दिन-रात यहाँ होते हैं।
मंदिर |
स्थान |
दशावतार मंदिर |
ललितपुर |
बाबा सोमनाथ मंदिर |
देवरिया |
शृंगी ऋषि मंदिर |
फर्रुखाबाद |
वाराह भगवान मंदिर |
एटा |
जे.के. मंदिर |
कानपुर |
देवीपाटन मंदिर |
तुलसीपुर |
विश्वनाथ मंदिर |
वाराणसी |
चंद्रोदय मंदिर |
वृंदावन |
वासुकी व वेणीमाधव मंदिर |
प्रयागराज |
पाताल मंदिर |
प्रयागराज |
भारत माता मंदिर |
वाराणसी |
रत्नागिरि मंदिर |
अयोध्या |
कनकभवन मंदिर |
अयोध्या |
कामतानाथ मंदिर |
चित्रकूट |
राजा सुहेलदेव मंदिर |
बहराइच |
भर्तृहरि मंदिर |
मिर्ज़ापुर |
कुंतेश्वर महादेव मंदिर |
बाराबंकी |
गोरखनाथ मंदिर |
गोरखपुर |
राम-जानकी मंदिर |
कुशीनगर |
औघड़नाथ मंदिर |
मेरठ |
शाकम्भरी देवी मंदिर |
सहारनपुर |
फुल्हर झील |
पीलीभीत (गोमती नदी का उद्गम) |
बखीरा झील |
संत कबीर नगर |
कठौता झील |
लखनऊ |
गोविंद वल्लभ पंत सागर |
सोनभद्र |
औंधी ताल |
वाराणसी |
लौंधी ताल |
सुल्तानपुर |
देवरिया ताल |
कन्नौज |
रामगढ़ ताल |
गोरखपुर |
बड़ा ताल (गोखुर) |
शाहजहाँपुर |
बेंती, नइया झील |
प्रतापगढ़ |
जरगो जलाशय |
मिर्ज़ापुर |
कुंद्रा समुद्र |
उन्नाव |
शुक्र ताल |
मुज़फ्फरनगर |
अलवारा झील |
कौशांबी |
भोजपुर ताल |
सुल्तानपुर |
राजा का बांध |
सुल्तानपुर |
दरवान झील |
अयोध्या |
बलहापरा झील |
कानपुर |
बरुआ सागर |
झाँसी |
मदन सागर |
महोबा |
दहर झील |
हरदोई |
मानसी गंगा |
मथुरा |
- निर्भया निधि का गठन बालिकाओं एवं महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये किया गया है। इस निधि का उपयोग महिलाओं की सुरक्षा और सुरक्षा में सुधार संबंधी तैयार की गई योजनाओं के लिये किया जा सकता है।
- योजनाओं की मंज़ूरी एवं सिफारिश का नोडल मंत्रालय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय है।
- इस कोष की स्थापना 2013-14 के दौरान 1000 करोड़ रुपए की ख़त्म नहीं होने वाली राशि दी गई है।
- वर्ष 2018 में निर्भया निधि के तहत तीन नए प्रस्तावों को मंज़ूरी दी गई है, जिसके तहत दुष्कर्म और पॉक्सो अधिनियम के लंबित मामलों का निपटान करने के लिये 1023 फ़ास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों का गठन करने का प्रस्ताव है।
- यौन हमलों के मामलों में फोरेंसिक जाँचकर्त्ताओं के लिये फोरेंसिक किट खरीदने का प्रस्ताव, AIS या इंटेलिजेंट ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम (ITS) विनिर्देश के साथ सुरक्षा और प्रवर्तन के लिये प्रस्ताव तथा 50 रेलवे स्टेशनों पर वीडियो निगरानी प्रणाली स्थापित करने का प्रस्ताव पारित किया गया है।
नवाबगंज पक्षी अभयारण्य (शहीद चंद्रशेखर आज़ाद) |
उन्नाव (वर्ष 1948) सबसे पुराना पक्षी विहार |
बखीरा पक्षी विहार |
बस्ती/संत कबीर नगर |
समान पक्षी विहार |
मैनपुरी |
पार्वती अरगा पक्षी विहार |
गोंडा (जय प्रकाश नगर) |
विजय सागर पक्षी अभयारण्य |
महोबा/हमीरपुर |
पटना पक्षी विहार |
एटा (यह सबसे छोटा पक्षी विहार है।) |
सुरहाताल पक्षी विहार (लोकनायक जयप्रकाश नारायण) |
बलिया |
लाख बहोसी पक्षी अभयारण्य |
कन्नौज (यह सबसे बड़ा पक्षी विहार है।) |
भीमराव आंबेडकर पक्षी अभयारण्य |
प्रतापगढ़ (कुंडा) |
सांडी पक्षी विहार |
हरदोई |
समसपुर पक्षी विहार |
रायबरेली |
सूर सरोवर पक्षी विहार |
आगरा |
ओखला पक्षी अभयारण्य |
गाज़ियाबाद/गौतम बुद्ध नगर |
- 2010 में गर्भवती एवं स्तनपान कराने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति में सुधार लाने के लिये उन्हें नकद राशि देकर उनके लिये अनुकूल वातावरण बनाने के उद्देश्य से एक सशर्त नकद भुगतान योजना इंदिरा गाँधी मातृत्व सहयोग योजना शुरू की गई। वर्ष 2017 में इस योजना को प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना के नाम से शुरू किया गया। यह योजना बच्चे के जन्म से पहले और जन्म के पश्चात् गर्भवती एवं स्तनपान कराने वाली कामकाजी महिलाओं की मज़दूरी के घाटे की आंशिक क्षतिपूर्ति का प्रयास करती है।
- इस योजना के अंतर्गत 19 वर्ष और उससे अधिक आयु की महिलाओं को दो बच्चों के लिये यह लाभ दिया जाएगा। सरकारी तथा अर्द्ध-सरकारी कर्मचारी इस योजना के हक़दार नहीं होंगे, क्योंकि उन्हें सवेतन मातृत्व अवकाश दिया जाता है। इस प्रकार इस योजना का उद्देश्य गर्भावस्था, सुरक्षित प्रसव तथा स्तनपान के समय उपयुक्त पद्धतियों, देख-रेख और सेवाओं के उपयोग को बढ़ावा देना है।
- इस योजना में अब गर्भवती को 6 हज़ार रुपये की आर्थिक सहायता दी जाती है। योजना में जनवरी 2017 के बाद गर्भवती महिलाओं को लाभ मिल रहा है। 6000 रुपये के इस लाभ को तीन किस्तों में पहले दो जीवित बच्चों के जन्म के लिये दिया जाएगा। इस योजना का विस्तार देश के सभी राज्यों तक किया जा चुका है।
- प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के द्वारा भूकंप एवं ज्वालामुखी के अंतर्संबंधों की स्पष्ट व्याख्या की जा सकती है। इसके अनुसार, ज्वालामुखी क्रिया के दौरान जब मैग्मा आंतरिक परतों को तोड़ते हुए सतह पर आता है तो परतों के टूटने के क्रम में भूकंप की उत्पत्ति होती है इसलिये ज्वालामुखी से प्रभावित सभी क्षेत्र भूकंप से भी प्रभावित क्षेत्र होते हैं।
- वहीं, भूकंप से प्रभावित सभी क्षेत्रों में ज्वालामुखी की अनिवार्य क्रिया नहीं होती है, क्योंकि कभी-कभी प्लेटों का क्षेपण अत्यधिक गहराई तक नहीं हो पाता है, जिससे कि प्लेट गलकर मैग्मा में परिवर्तित हो सके। साथ ही, ज्वालामुखीयता का संबंध केवल अभिसारी (सामान्यतया महाद्वीपीय-महाद्वीपीय टक्कर को छोड़कर) व अपसारी प्लेट संचलन से है, वहीं भूकंप का संबंध सभी प्लेट सीमाओं से है।
- इस प्रकार, सभी ज्वालामुखी प्रभावित क्षेत्र भूकंप प्रभावित होते हैं, जबकि सभी भूकंप प्रभावित क्षेत्र ज्वालामुखी प्रभावित नहीं होते।
देश |
राजधानियां |
अफगानिस्तान |
काबुल |
बहरीन |
मनामा |
अज़रबैजान |
बाकू |
कंबोडिया |
नामपेन्ह |
चीन |
बीजिंग |
भूटान |
थिंफू |
नेपाल |
काठमांडू |
उत्तर कोरिया |
प्योग्यांग |
फिलीपींस |
मनीला |
कतर |
दोहा |
जॉर्जिया |
तिब्लिसी |
ईरान |
तेहरान |
इराक |
बगदाद |
तजाकिस्तान |
दुशांबे |
तुर्कमेनिस्तान |
अश्गाबाद |
कज़ाख्सतान |
अस्ताना |
वियतनाम |
हनोई |
उज़्बेकिस्तान |
ताशकंद |
सायप्रस |
निकोसिया |
सऊदी अरब |
रियाद |
थाईलैंड |
बैंकाक |
सीरिया |
दमिश्क |
किर्गिस्तान |
बिश्केक |
लाओस |
वियनतियान |
मलेशिया |
कुआलालंपुर |
मंगोलिया |
उलानबटोर |
यमन |
सना |
ओमान |
मस्कट |
दक्षिण कोरिया |
सियोल |
तुर्किये |
अंकारा |
- प्रदेश के पश्चिमी ज़िलों तथा बुंदेलखंड क्षेत्र में कहीं-कहीं काली मिट्टी भी मिलती है जिसे करेल या कपासी मृदा भी कहते हैं।
- प्रदेश के अलीगढ़, एटा, मैनपुरी व कानपुर ज़िलों में लवणीय एवं क्षारीय मृदा पाई जाती है।
- झाँसी, मिर्ज़ापुर, सोनभद्र, चंदौली व दक्षिणी प्रयागराज में लाल मृदा मिलती है।
- उत्तर प्रदेश में मृदा पर जलीय अपरदन की अपेक्षा वायु अपरदन का अधिक प्रभाव है।
- परत अपरदन समतल खेतों में बहुत सूक्ष्म तरीके से होता है जिसे किसान समझ नहीं पाते हैं और खेत की उर्वरता कम होती रहती है। इसलिये इसे ‘किसान की मौत’ कहते हैं।
- अवनालिका क्षरण से उत्तर प्रदेश का यमुना और चंबल का क्षेत्र (इटावा) सर्वाधिक प्रभावित है।
- उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है।
- लवणीय एवं क्षारीय मृदा को सामान्यतः ऊसर, बंजर, कल्लर एवं रेह नाम से भी जाना जाता है।
- बुंदेलखंड क्षेत्र में लाल मृदा, परवा (पड़वा), मार (भाड़), राकर (राकड़) व भोंडा मृदा पाई जाती है।
- वायु अपरदन से उत्तर प्रदेश के मथुरा एवं आगरा ज़िले सर्वाधिक प्रभावित हैं।
- जलीय अपरदन से उत्तर प्रदेश का सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र हिमालय का तराई प्रदेश है।
- उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल 2,40,928 वर्ग किमी. है। यह भारत के क्षेत्रफल का लगभग 7.33% है।
- क्षेत्रफल की दृष्टि से यह देश का चौथा सबसे बड़ा राज्य है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र क्रमशः पहले, दूसरे एवं तीसरे स्थान पर हैं।
- सर्वाधिक क्षेत्रफल वाले 4 ज़िले क्रमशः लखीमपुर खीरी, सोनभद्र, हरदोई व सीतापुर हैं।
- सबसे कम क्षेत्रफल वाले ज़िले क्रमशः हापुड़, भदोही, शामली एवं गाज़ियाबाद हैं।
- दक्षिण के पठारी क्षेत्र और उत्तर के भाबर तराई क्षेत्र के मध्य क्षेत्र को मैदानी क्षेत्र या गंगा-यमुना का मैदानी दोआब कहा जाता है।
- ग्लोब पर उत्तर प्रदेश की अवस्थिति 23°52' उ० अक्षांश से 31°28' उ० अक्षांश और 77°3' पूर्वी देशांतर से 84°39' पूर्वी देशांतर के बीच है।
- इस राज्य की पूर्व से पश्चिम तक की लंबाई लगभग 650 किमी. तथा उत्तर से दक्षिण तक लगभग 240 किमी. है।
- उत्तर प्रदेश से सटे राज्यों की संख्या 9 है। जिसमें 8 राज्य और 1 संघ राज्यक्षेत्र है।
- आगरा एवं मथुरा राजस्थान से सटे ज़िले हैं।
- सोनभद्र से सटे राज्यों की संख्या 4 (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार) है।
- प्रदेश के सबसे दक्षिणी बिंदु को स्पर्श करने वाला राज्य छत्तीसगढ़ है।
- उत्तर प्रदेश की सीमा सबसे ज़्यादा मध्य प्रदेश को (11 ज़िले) स्पर्श करती है। ये ज़िले हैं- आगरा, इटावा, जालौन, झाँसी, ललितपुर, महोबा, बाँदा, चित्रकूट, प्रयागराज, मिर्ज़ापुर और सोनभद्र।
- उत्तर प्रदेश के 7 ज़िले उत्तराखंड को तथा 7 बिहार राज्य को स्पर्श करते हैं।
- नेपाल को प्रदेश के 7 ज़िले स्पर्श करते हैं। ये ज़िले पूर्व से पश्चिम के क्रम में हैं- महाराजगंज, सिद्धार्थनगर, बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच, लखीमपुर, पीलीभीत।
- उत्तर प्रदेश का सबसे पूर्वी ज़िला बलिया और पश्चिमी ज़िला शामली है।
- उत्तर प्रदेश का सबसे उत्तरी ज़िला सहारनपुर और दक्षिणी ज़िला सोनभद्र है।
- उत्तर प्रदेश भारत के प्राचीनतम गोंडवानालैंड का एक भू-भाग है।
- उत्तर प्रदेश के सबसे उत्तरी क्षेत्र को भाबर क्षेत्र कहा जाता है। इस क्षेत्र का विस्तार सहारनपुर से लेकर कुशीनगर-पडरौना तक है। इस क्षेत्र की भूमि ऊबड़-खाबड़ है।
- खादर क्षेत्रों की नदियों द्वारा अधिक आवरण क्षय होने से बीहड़ों का निर्माण होता है।
- भाबर के ठीक दक्षिण में तराई क्षेत्र की पट्टी मिलती है। इसकी चौड़ाई पूर्वी उत्तर प्रदेश में 80-90 किमी. तक और लंबाई में इसका विस्तार सहारनपुर से लेकर कुशीनगर तक है। इस क्षेत्र की जलवायु को स्वास्थ्य के लिये लाभदायक माना जाता है।
- उत्तर प्रदेश के दक्षिण का पठारी क्षेत्र प्रायद्वीपीय भारत का ही उत्तरी विस्तार है जिसे बुंदेलखंड के पठार के नाम से जाना जाता है। इसके अंतर्गत ललितपुर, झाँसी, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बाँदा, चित्रकूट, प्रयागराज का सुदूर दक्षिण क्षेत्र, मिर्ज़ापुर के गंगा क्षेत्र का दक्षिणी भाग व सोनभद्र के कुछ भाग सम्मिलित हैं।
- यह प्राचीन पठार नीस चट्टानों से निर्मित है, इसलिये इसे ‘बुंदेलखंड नीस’ भी कहते हैं।
वित्तीय सेवा विभाग, वित्त मंत्रालय द्वारा एक वार्षिक वित्तीय समावेशन सूचकांक जारी किया जाएगा जो कि औपचारिक वित्तीय उत्पादों और सेवाओं के बास्केट तथा उन सेवाओं जिनमें बचत, प्रेषण, क्रेडिट, बीमा और पेंशन उत्पाद शामिल हैं, तक पहुँच और उनके उपयोग का एक मापक होगा। यह एकल समग्र सूचकांक वित्तीय समावेशन के स्तर पर समष्टि नीतियों एवं योजनाओं का मार्गदर्शन करेगा। वित्तीय समावेशन सूचकांक के विभिन्न घटक आंतरिक नीति बनाने के लिये वित्तीय सेवाओं की माप में भी मदद करेंगे। वित्तीय समावेशन सूचकांक का उपयोग विकास संकेतकों में सीधे एक समग्र उपाय के रूप में भी किया जा सकेगा।
वित्तीय समावेशन सूचकांक के घटक
- वित्तीय सेवाओं तक पहुँच
- वित्तीय सेवाओं का उपयोग
- गुणवत्ता
- सौर मंडल का केंद्रीय सदस्य सूर्य पृथ्वी का निकटतम तारा है।
- सूर्य आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा लगभग 22.5 करोड़ वर्षों में पूरी करता है जिसे ब्रह्मांड वर्ष कहते हैं।
- सूर्य के प्रकाश की गति लगभग 3 लाख किमी./सेकंड है। पृथ्वी तक सूर्य का प्रकाश पहुँचने में 8 मिनट 20 सेकंड का समय लगता है।
- सूर्य की आंतरिक संरचना के केंद्रीय भाग को कोर (Core) कहा जाता है जबकि बाह्य संरचना के बाहरी भाग को कोरोना (Corona) कहा जाता है, जो सूर्य ग्रहण के समय दिखाई देता है। इससे X-Ray उत्सर्जित होता है। प्रकाश मंडल (Photosphere) सामान्य समय में सूर्य का दिखने वाला भाग है।
- सूर्य के कोर का तापमान जहाँ 15 मिलियन ०C है वहीं फोटोस्फेयर का तापमान 6000 ०C होता है। सूर्य के धब्बों का ताप 1500 ०C होता है।
- सूर्य का व्यास 13,92,000 किमी. है।
- सूर्य की आयु 4.6 बिलियन वर्ष है।
लोक गीत |
संबंधित क्षेत्र |
कजरी |
मिर्ज़ापुर, वाराणसी |
आल्हा |
बुंदेलखंड, महोबा |
इसुरी फाग |
बुंदेलखंड |
होरी, रसिया |
ब्रज क्षेत्र, बरसाना |
चैती-चैता |
पूर्वांचल |
होली गीत, झूला गीत |
वृंदावन |
बिरहा |
भोजपुर (बिहार)/पूर्वी उत्तर प्रदेश (अवध क्षेत्र) |
सोहर |
पूर्वांचल (विशेषकर अवध) |
लावणी व बहतरबील |
रुहेलखंड |
ढोला व रागिनी |
पश्चिमी उत्तर प्रदेश |
मल्हार |
कौरवी क्षेत्र/पश्चिमी उत्तर प्रदेश |
- उत्तर प्रदेश की जलवायु उष्णकटिबंधीय एवं मानसूनी है।
- गोरखपुर में प्रदेश की सर्वाधिक वर्षा (184.7 सेमी.) होती है।
- मथुरा में सबसे कम वर्षा होती है।
- संभावित वर्षा की अवधि सर्वाधिक गोरखपुर (56 दिन) जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मात्र 32 दिन है।
- प्रदेश में अधिकांश वर्षा बंगाल की खाड़ी से आने वाले मानसून के कारण होती है।
- उत्तर प्रदेश की कुल भूमि में आर्द्रभूमि 5.15% है।
- सर्वाधिक आर्द्रभूमि वाला ज़िला सोनभद्र (5.08%) है।
- उत्तर प्रदेश में बंगाल की खाड़ी वाले मानसून को पूर्वा कहा जाता है।
- उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक वर्षा पूर्वी मैदान के तराई क्षेत्र में होती है।
- उत्तर प्रदेश में शीतकाल और ग्रीष्मकाल में चक्रवाती और संवहनीय वर्षा होती है।
- ग्रीष्म ऋतु में प्रदेश के दक्षिणी भाग में अधिक तापमान होने का मुख्य कारण कर्क रेखा के नज़दीक होना है।
साइमन आयोग की रिपोर्ट तथा गोलमेज़ सम्मेलन भारत शासन अधिनियम, 1935 के आधार बने।
- इस अधिनियम के द्वारा भारत में पहली बार संघात्मक सरकार की स्थापना का प्रयास किया गया। जिसमें ब्रिटिश भारत के प्रांत तथा देशी रजवाड़े शामिल होने थे। (यह लागू नहीं हो सका)
- प्रांतीय स्तर पर द्वैध शासन को समाप्त करके केंद्र स्तर पर द्वैध शासन प्रणाली स्थापित की गई।
- इस अधिनियम के माध्यम से बर्मा को भारत से पृथक कर दिया गया तथा दो नए प्रांत सिंध एवं उड़ीसा का निर्माण किया गया।
- केंद्रीय विधानमंडल में दो सदन थे- संघीय सभा तथा राज्य परिषद्। राज्य परिषद् एक स्थायी सदन था जिसके 1/3 सदस्य प्रति तीसरे वर्ष अवकाश ग्रहण करते थे।
- इस अधिनियम के तहत विषयों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया- संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची।
- 1935 के अधिनियम के तहत एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।
- 1935 के अधिनियम एक समय लॉर्ड विलिंगटन भारत का वाइसराय था।
- इस अधिनियम में संघीय लोक सेवा आयोग एवं प्रांतीय लोक सेवा आयोग की स्थापना की अनुशंसा की गई।
- कांग्रेस ने इस अधिनियम को निराशाजनक कहकर इसकी निंदा की। जवाहर लाल नेहरू ने इसे ‘अनेक ब्रेकों वाला किंतु इंजनरहित गाड़ी’ की संज्ञा दी तथा इसे ‘गुलामी का अधिकार पत्र’ कहा।
अर्थव्यवस्था की आर्थिक गतिविधियों को निम्नलिखित श्रेणियों अथवा क्षेत्रों में बाँटा गया है-
- प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector)- अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र जहाँ प्राकृतिक संसाधनों को उत्पाद के रूप में प्राप्त किया जाता है अर्थात् इसके अंतर्गत अर्थव्यवस्था के प्राकृतिक क्षेत्रों का लेखांकन किया जाता है, ‘प्राथमिक क्षेत्र’ कहलाता है। इसे ‘कृषि एवं संबद्ध क्षेत्र’ भी कहा जाता है। इसमें निम्नलिखित आर्थिक क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है-
- कृषि एवं संबद्ध क्षेत्र
- मत्स्य पालन
- वानिकी
- खनन एवं उत्खनन
- द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Sector)- अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र जो प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादों को अपनी गतिविधियों में कच्चे माल की तरह उपयोग करता है, ‘द्वितीयक क्षेत्र’ कहलाता है। इस क्षेत्र के अंतर्गत अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादों के प्रयोग से विनिर्मित वस्तुओं के उत्पाद का लेखांकन किया जाता है। इसे ‘औद्योगिक क्षेत्र’ भी कहा जाता है। इसमें निम्नलिखित आर्थिक गतिविधियाँ शामिल होती हैं-b
- विनिर्माण
- निर्माण
- गैस, जल तथा विद्युत आपूर्ति
- तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector)- इस क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की सेवाओं का उत्पादन किया जाता है, इसलिये इस क्षेत्र को ‘सेवा क्षेत्र’ भी कहा जाता है। यह क्षेत्र अर्थव्यवस्था के प्राथमिक एवं द्वितीयक क्षेत्र को अपनी सेवाएँ प्रदान करता है। इसमें निम्नलिखित आर्थिक क्रियाएँ शामिल होती हैं –
- व्यापार, होटल तथा रेस्तराँ
- परिवहन, संचार तथा भंडारण
- वित्तीय सेवाएँ - बैंकिंग, बीमा
- रियल एस्टेट
- लोक प्रशासन एवं प्रतिरक्षा
- चिकित्सा
- अन्य सेवाएँ
- चतुर्थक क्षेत्र (Quaternary Sector)- चतुर्थक क्षेत्र तृतीयक क्षेत्र का एक उन्नत रूप है, क्योंकि इसमें ज्ञान क्षेत्र से संबंधित सेवाएँ शामिल की जाती हैं। वर्तमान में सूचना आधारित सेवाओं की मांग में बहुत अधिक वृद्धि हो रही है। चतुर्थक क्षेत्र से संबंधित गतिविधियों में मुख्यतः सूचनाओं का संग्रहण करना, सूचनाओं का अध्ययन एवं विश्लेषण करना, आवश्यकतानुसार सूचनाओं को प्रस्तुत करना इत्यादि शामिल किया जाता है। चतुर्थक क्षेत्र से संबंधित सेवाओं में विशेषीकृत ज्ञान, तकनीकी कौशल, प्रबंधकीय कौशल तथा विश्लेषणात्मक समझ का प्रयोग किया जाता है। साथ ही इसमें म्यूचुअल फंड प्रबंधक, पोर्टफोलियो प्रबंधक, कर प्रबंधक, सांख्यिकीविद्, सॉफ्टवेयर डेवलपर्स, शोध एवं अनुसंधानकर्त्ता इत्यादि उन्नत किस्म की विशेषीकृत सेवाओं को शामिल किया जाता है।
- पंचक क्षेत्र (Quinary Sector)- पंचक क्षेत्र उच्च किस्म की सेवाओं से संबंधित है। इस क्षेत्र में गोल्ड कॉलर प्रोफेशनल्स को शामिल किया जाता है, जो अपने-अपने क्षेत्र के उच्च विशेषज्ञ होते हैं। ये अपने से संबंधित क्षेत्रों में नीति-निर्माण, निर्णय-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये नए-नए विचारों, तकनीकों, शोध एवं अनुसंधानों एवं भविष्य के लिये बेहतर संभावनाओं पर कार्य करते हैं। इनमें मुख्यतया उच्च स्तर के सरकारी अधिकारियों, कंपनियों एवं व्यवसायों के उच्च प्रबंधकों, शोधकर्त्ता एवं वैज्ञानिकों, वित्तीय प्रबंधकों, कानूनी सलाहकारों इत्यादि को शामिल किया जाता है। अर्थव्यवस्था में इन व्यक्तियों की भागीदारी इनकी संख्या की अपेक्षा कहीं अधिक होती है।
- किसी क्षेत्र में पर्यटन के सतत् एवं स्थायी विकास हेतु सीधे तौर पर जैव विविधता का सतत् उपलब्धता से जुड़ा होना ही ‘पारिस्थितिक पर्यटन’ कहलाता है।
- यह विशुद्ध रूप से पर्यावरण के संरक्षण से संबंधित है। भारत सरकार द्वारा पारिस्थितिक पर्यटन के सामान्य सिद्धांत बताए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं-
- क्षेत्र के समग्र आर्थिक विकास में स्थानीय समुदाय को शामिल किया जाना चाहिये।
- क्षेत्र के स्थानीय निवासियों की आजीविका के साधन एवं पारिस्थितिक पर्यटन संसाधनों के उपयोग के मध्य होने वाले संघर्ष के विषय को पहचान कर उसके समाधान हेतु प्रयास किया जाना चाहिये।
- पारिस्थितिक पर्यटन के विकास हेतु पैमाना स्थानीय समुदाय की सांस्कृतिक, सामाजिक विशेषताओं आदि को ध्यान में रखकर बनाना चाहिये।
- पारिस्थितिक पर्यटन हेतु एक समग्र क्षेत्र विकास रणनीति के अंतर्गत कार्य करना चाहिये जिसमें अंतर-क्षेत्रीय संघर्ष समाधान, क्षेत्रीय एकीकरण, सार्वजनिक सेवा आदि भी शामिल हों।
- भारत में पारिस्थितिक पर्यटन अभी प्रारंभिक अवस्था में है लेकिन यह जैव विविधता के संरक्षण हेतु महत्त्वपूर्ण जागरूकता अभियान है।
क्रम संख्या |
कला |
कलाकार |
1. |
शास्त्रीय गायन |
पं. डी.वी. पुलस्कर, पं. ओंकारनाथ ठाकुर, उस्ताद आमिर खाँ, अब्दुल करीम खाँ, फैयाज खाँ, बड़े गुलाम अली खाँ, कृष्णराव शंकर, पं. जसराज, पं. भीमसेन जोशी, किशोरी अमोनकर, गंगुबाई हंगल, छन्नूलाल मिश्र, राजन-साजन मिश्र, पं. वेंकटेश कुमार, उस्ताद राशिद खाँ, पं.अजय चक्रवर्ती |
2. |
शहनाई |
उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, एस. बल्लेश, अनंत लाल, अली अहमद हुसैन खान, लोकेश आनंद, शैलेश भागवत, हरी सिंह |
3. |
संतूर |
पं. शिव कुमार शर्मा, भजन सोपारी, तरुण भट्टाचार्य |
4. |
सारंगी |
सुल्तान खाँ, राम नारायण, अब्दुल करीम खाँ, अब्दुल लतीफ़ खाँ, गुलाम सबीर खाँ, गोपाल मिश्र, साबरी खाँ, शकुर खाँ |
5. |
बाँसुरी |
पं. हरिप्रसाद चौरसिया, रानू मजूमदार, पन्नालाल घोष, विजय राघव राव, रघुनाथ सेठ, प्रकाश वडेरा, राजेंद्र प्रसन्ना, प्रकाश सक्सेना |
6. |
सितार |
पं. रविशंकर, इनायत खाँ, मुश्ताक अली खाँ, उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर, मणिलाल नाग, निशात खाँ, शुजात हुसैन खाँ, जया विश्वास, पं. शशि मोहन भट्ट |
7. |
तबला |
पं. किशन महाराज, उस्ताद कराम्तुल्लाह खाँ, उस्ताद ज़ाकिर हुसैन, उस्ताद अल्लाह रक्खा, पं. शंकर घोष, अनुराधा पाल, पं. विजय घाटे |
8. |
पखावज |
राजा छत्रपति सिंह, गुरु पुरुषोत्तम दास, पं. पागल दास(राम शंकर दास) |
9. |
सरोद |
उस्ताद अमज़द अली खाँ, अशोक कुमार राय, बृजनारायण, उस्ताद अलाउद्दीन खाँ, चंदन राय, उस्ताद अली अकबर खाँ |
10. |
वायलिन |
उस्ताद विलायत खाँ, डॉ. एन. राजम, शिशिर कनाधर चौधरी, लालगुडी जयरामन, बालमुरली कृष्ण |
11. |
वीणा |
रमेश प्रेम, एस. बालचंद्रन, कल्याण कृष्ण भगवातार, असद अली, ब्रह्मस्वरुप सिंह |
12. |
मोहन वीणा |
पं. विश्वमोहन भट्ट |
13. |
कत्थक |
पं. बिरजू महाराज, सितारा देवी, पं. लच्छू महाराज, जयंती माला, पं. शंभू महाराज, पं. कार्तिक राम, शोभना नारायण
|
क्रम संख्या |
परिसर |
संबंधित खेल |
1. |
डायमंड |
बेसबॉल |
2. |
कोर्स |
गोल्फ |
3. |
मैट |
जूडो-कराटे, ताइक्वांडो |
4. |
वेलोड्रम |
साइकिलिंग |
5. |
ट्रैक |
एथलेटिक्स |
6. |
रेंज |
निशानेबाज़ी, तीरंदाज़ी |
7. |
कोर्ट |
टेनिस, बैडमिंटन, टेबल टेनिस, नेटबॉल, खो-खो, स्क्वैश, कबड्डी, हैंडबॉल, वॉलीबॉल |
8. |
रिंग |
स्केटिंग, मुक्केबाज़ी |
9. |
पूल |
तैराकी |
10. |
ऐली |
बाउलिंग |
11. |
एरीना |
घुड़सवारी |
12. |
फील्ड |
पोलो, फुटबॉल, हॉकी |
13. |
पिच |
क्रिकेट, रग्बी |
14. |
रिंक |
आइस हॉकी |
15. |
ग्रीन्स |
बाउल्स |
पुन: प्रयोग (Re-Use)-
- पदार्थों का पुन: प्रयोग, संसाधनों के प्रयोग में कमी, प्रदूषण और अपशिष्ट के स्तर में कमी करने का एक महत्त्वपूर्ण तरीका है। पुन: प्रयोग का अर्थ है- सामग्री को बार-बार स्वच्छ करके उनके फिर से प्रयोग की प्रक्रिया द्वारा पदार्थों की जीवन अवधि को लंबा करना।
- अपशिष्टों के कम उत्पन्न करने की यह प्रणाली कच्ची सामग्री और ऊर्जा के प्रयोग में कमी और प्रदूषण की दर में गिरावट लाती है व स्थानीय रोज़गार ही नहीं उपलब्ध कराती बल्कि पैसे का अपव्यय भी रोकती है। उदाहरण- पुरानी गाड़ियों से उनके कुछ भागों को पुन:प्रयोग में लाना, पुराने घरों से ईंटों, दरवाज़ों, लकड़ी की वस्तुओं व स्टील को निकालना तथा उन्हें नई इमारतों के लिये पुन: प्रयोग में लाना।
- भारत में कपड़े के नैपकिनों, गिलासों और धातु के बर्तनों को लगातार प्रयोग में लाने की एक पुरानी प्रथा थी परंतु आजकल हम पुन: प्रयोग में लाए जाने वाले कपड़े के रूमालों की बजाय कागज़ के टिश्यू पेपर (Tissue Paper) का इस्तेमाल कर उसे तुरंत फेंक देते हैं। उसी तरह कम कपड़े की बजाय कागज़ के तौलियों का इसी प्रकार प्रयोग करते हैं, व धातु के बने बर्तनों की बजाय पेपर के प्लेटों-कपों का इस्तेमाल कर उन्हें तुरंत फेंक देते हैं। परंतु इस दौरान एल्युमीनियम की पन्नी (Aluminium Foil) व प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ गया है। अपशिष्टों को कम करने के उद्देश्य से हमें पुराने ज़माने की तरह सूत और धातुओं का पुन: प्रयोग शुरू कर देना चाहिये।
- वस्तुओं के पुन:प्रयोग के समय, हमें ध्यान देना चाहिये कि जो लोग ऐसी वस्तुओं के साथ कार्य करते हैं, उनके स्वास्थ्य का संरक्षण हो। उदाहरण- प्रयुक्त हुए टी.वी. सेट, कंप्यूटरों और सेल फोनों के पुनर्प्रयोग में लाए जाने वाले भागों को अलग-अलग करते समय लोग पारद व कैडमियम जैसे ज़हरीले तत्त्वों से जूझते हैं। अवशेष रही धातु को जब खुले मैदानों में फेंक दिया जाता है या जब उसे खुले में जलाया जाता है, तब श्रमिक डायोक्सिन के ज़हरीले धुएँ से प्रभावित होते हैं।
पुनर्चक्रण (Recycling)-
- पुनर्चक्रण, अपशिष्टों को एकत्र कर उन्हें उपयोगी पदार्थों में बदलने की प्रणाली है, जिन्हें फिर से बेचा जा सकता है या पुन:प्रयोग में लाया जा सकता है।
- पुनर्चक्रण अपशिष्टों की सामग्री को नए उपयोगी पदार्थों के रूप में परिवर्तित करने की प्रणाली है। इसके कुछ सामान्य उदाहरण इस प्रकार हैं- पुनर्चक्रित कागज़ (समाचार पत्र, मैगजीन, गत्ता, दफ्तर व स्कूल में प्रयोग में लाया गया कागज़) शीशा, एल्युमीनियम स्टील और कुछ प्लास्टिक।
- जैविक रूप से निम्नीकृत किये जाने वाले जैविक अपशिष्ट (रसोईघर के व अन्य जैविक अपशिष्ट) जीवाणुओं द्वारा सड़ाकर ‘कंपोस्ट’ के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं। इस प्रकार वे पुन:भूमि में खाद के रूप में पहुँच सकते हैं।
- प्राथमिक प्रकार का पुनर्चक्रण तब होता है, जब अपशिष्टों को उसी प्रकार के नए पदार्थों में परिवर्तित किया जाता है जैसे पुरानी रद्दी अखबारों का नए अखबारों की सामग्री में, पुराने एल्युमीनियम के डिब्बों का नए एल्युमीनियम के डिब्बों में, पुराने प्लास्टिक के लिफाफों का कूड़े को एकत्र करने वाले नए प्लास्टिक लिफाफों में परिवर्तन।
- द्वितीय प्रकार का पुनर्चक्रण तब होता है जब अपशिष्ट को अन्य प्रकार के पदार्थों में परिवर्तित किया जाता है। उदाहरण- जब गाड़ी के पहियों को काट-छाँटकर सड़क की ऊपरी तह की निर्माण सामग्री के रूप में प्रयोग किया जाता है, जब रद्दी समाचार पत्रों का सेल्यूलोस इन्सुलेशन (Insulation) के बचाव के लिये प्रयोग किया जाता है और जब कागज़ की लुग्दी के उद्योग से निकले छोटे-छोटे रेशों से कागज़ के बोर्ड (गत्ते) बनाए जाते हैं।
अपशिष्टों के प्रबंधन में तीन आर (R) की युक्ति का प्रयोग किया जाता है- मात्रा कम करना (Reduce), पुन: प्रयोग (Reuse) और पुन: चक्रण (Recycle)
घटना या कमी होना (Reducing)-
उपभोग की मात्रा में कमी व पदार्थों को नए ढाँचे में ढालने की प्रक्रियाएँ अपशिष्टों के उत्पादन को कम करने के उत्तम तरीके हैं।
उपलब्ध संसाधनों के प्रयोग में कमी लाने की कुछ मुख्य विधियाँ हैं-
- कम उपभोग करें, केवल तभी किसी वस्तु को खरीदें जब उसकी आवश्यकता हो।
- कम सामग्री व ऊर्जा के प्रयोग की दृष्टि से पदार्थों के निर्माण की प्रक्रियाओं को नई बनावट के ढाँचे में डालें। उदाहरण- ऊर्जा को कुशल रूप से प्रयोग करने वाले वे वाहन जो कि प्रति मील कम ऊर्जा का व्यय करते हैं।
- अपशिष्टों को न्यूनतम मात्रा में उत्पन्न करने की दृष्टि से निर्माण प्रक्रियाओं को नए ढाँचे में ढालना। उदाहरण- निर्माण प्रक्रियाओं में कागज़ को विरंजित करने के लिये विषैली क्लोरीन के बजाय हाइड्रोजन परॉक्साइड (H2O2) का प्रयोग करना।
- ऐसे पदार्थों को विकसित करना जिनका पुनर्चक्रण, पुनरावर्तन व मरम्मत सरल हो।
- ऐसे पदार्थों का निर्माण जो अधिक लम्बी अवधि तक कायम रहें। उदाहरण- गाड़ी के टायर जो कि नष्ट होने से पहले अधिक लम्बी अवधि तक दौड़ सकते हैं।
- अनावश्यक पैकिंग की सामग्री का कम प्रयोग, या पुन: प्रयोग या पुनर्चक्रण की जाने वाली पैकिंग का इस्तेमाल।
- यह वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत अपशिष्टों के उत्पादन के पश्चात उससे जूझने या उसके निपटान के विषय में ज्ञान दिया जाता है। अपशिष्टों के प्रबंधन में बहुत परिश्रम करना पड़ता है। यूँ तो इन्हें जला देना सबसे आसान हल है। किंतु पर्यावरण विरोधी होने से इसकी जगह अन्य विकल्प अपनाना अच्छा है।
- मुख्य लक्ष्य अपशिष्टों के उत्पादन को कम करना चाहिये। अपशिष्टों का घटन अपशिष्टों के उत्पादन से पहले ही उससे उत्पन्न होने वाली समस्या से जूझना है, न कि उसके बाद।
- अत: अपशिष्टों के प्रबंधन की समस्या से जूझने की दृष्टि से हमारी प्राथमिकताएँ निम्नलिखित श्रेणी में होनी चाहिये-
- पहली प्राथमिकता- अपशिष्टों का बचाव
- खतरनाक रसायनों के निर्माण को रोकने के लिये निर्माण की प्रक्रिया में परिवर्तन
- हानिकारक संसाधनों व सामग्री को कम करना
- पदार्थों को पैक करने के उपयोग में आने वाली सामग्री का कम प्रयोग
- ऐसे पदार्थों का निर्माण जो ज़्यादा लंबी अवधि तक रहें तथा जिनकी मरम्मत आसान हो
- द्वितीय प्राथमिकता- पुनः प्रयोग व पुनरावर्तन
- पदार्थों की मरम्मत
- पदार्थों का पुनः प्रयोग पुनरावर्तन
- कंपोस्ट (जैविक रूप से घटित)
- पुनर्स्थापित/पुनरावर्तित पदार्थ
- तृतीय प्राथमिकता- अपशिष्टों का प्रबंधन
- अपशिष्टों की सामग्री की विषाक्तता को कम करने की प्रक्रिया
- अपशिष्टों के निपटारे के लिये खोदे गए गड्ढों में कचरों को दफनाना
- अपशिष्टों को भस्म कर देना
- अपशिष्टों को वातावरण में लुप्त करने की दृष्टि में छोटी-छोटी मात्राओं में छोड़ देना
- पहली प्राथमिकता- अपशिष्टों का बचाव
नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार (Right to Education– RTE) अधिनियम, 2009 (यह 1 अप्रैल, 2010 से लागू हुआ) के बेहतर कार्यान्वयन के लिये शिक्षकों की शिक्षा को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है।
- भारत में शिक्षक शिक्षा नीति को समय के हिसाब से निरूपित किया जाता रहा है। यह कई शिक्षा समितियों/आयोगों की विभिन्न रिपोर्टों में निहित सिफारिशों पर आधारित है, जैसे-
- कोठारी आयोग (1966)
- चट्टोपाध्याय समिति (1985)
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एन.पी.ई., 1986/92)
- आचार्य राममूर्ति समिति (1990)
- यशपाल समिति (1993)
- राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ढाँचा (एन.सी.एफ. , 2005)
क्रम संख्या |
बैंक |
स्थापना वर्ष |
मुख्यालय |
1. |
एक्सिस बैंक |
1993 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
2. |
बंधन बैंक |
2015 |
कोलकाता, पश्चिम बंगाल |
3. |
सीएसबी बैंक |
1920 |
त्रिशूर, केरल |
4. |
सिटी यूनियन बैंक |
1904 |
कुंभकोणम, तमिलनाडु |
5. |
डीसीबी बैंक |
1930 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
6. |
धनलक्ष्मी बैंक |
1927 |
त्रिशूर, केरल |
7. |
फेडरल बैंक |
1931 |
अलुवा, कोच्चि |
8. |
एचडीएफसी बैंक |
1994 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
9. |
आईसीआईसीआई बैंक |
1994 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
10. |
आईडीबीआई बैंक |
1964 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
11. |
आईडीएफसी फर्स्ट बैंक |
2015 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
12. |
इंडसइंड बैंक |
1994 |
पुणे, महाराष्ट्र |
13. |
जम्मू और कश्मीर बैंक |
1938 |
श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर |
14. |
कर्नाटक बैंक |
1924 |
मंगलुरु, कर्नाटक |
15. |
करूर वैश्य बैंक |
1996 |
करूर, तमिलनाडु |
16. |
कोटक महिंद्रा बैंक |
2003 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
17. |
नैनीताल बैंक |
1922 |
नैनीताल, उत्तराखंड |
18. |
आरबीएल बैंक |
1943 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
19. |
साउथ इंडियन बैंक |
1929 |
त्रिशूर, केरल |
20. |
तमिलनाडु मर्चेंटाइल बैंक |
1921 |
तूतीकोरिन, तमिलनाडु |
21. |
यस बैंक |
2004 |
मुंबई, महाराष्ट्र |
- अधिगम की प्रक्रिया के संदर्भ में व्यक्ति लगातार प्रगति नहीं करता है। कुछ समय अधिगम की प्रगति कभी उच्च होती है एवं कुछ समय काफी कम। एक समय ऐसा भी आता है जब अधिगम की प्रगति अवरुद्ध या बिलकुल रुक जाती जाती है जिससे अधिगम वक्र समतल हो जाता है। इसी समतल या सपाट स्थल को अधिगम पठार कहते हैं।
- अधिगम पठार के उत्तरदायी कारकों में निम्नलिखित घटकों को शामिल किया जाता है-
- प्रेरणा का अभाव
- रुचि में कमी होना
- शारीरिक सीमा
- अधिगम की अनुचित विधियाँ
- कार्य की गहनता
- पुरानी आदतों व नई सीखी आदतों में संघर्ष
- प्राप्त ज्ञान को स्थायी बनाना
- जी. जैकब के अनुसार, ‘‘ सहयोगी अधिगम समूह में काम करने के मूल्य को बढ़ावा देने वाली अवधारणा एवं तकनीक है।’’
- सहयोगी अधिगम शिक्षकों को निम्नलिखित के लिये प्रोत्साहित करते हैं-
- ‘मूल्य’ सीखने-सिखाने की पारंपरिक आदर्श सोच से निकलने के लिये।
- बच्चों को सहयोग की भावना समझाने में सहायता करने के लिये।
- यह समझने के लिये कि व्यक्तियों में अंतर होते हैं तथा भिन्नताएँ लोकतंत्र हेतु आवश्यक हैं।
- बच्चों के सामाजिक संदर्भ का महत्त्व समझने के लिये।
सहयोगी अधिगम के नियम-
सहयोगी अधिगम के तीन अति महत्त्वपूर्ण सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
1. सकारात्मक रूप से एक-दूसरे पर निर्भरता : इसमें शामिल हैं- समूह का एक साझा उद्देश्य हो, सभी के संसाधन साझा हों, एक समूह की एक पहचान बनाई जाए। इसके द्वारा सकारात्मक भावनाओं एवं मनोवृत्तियों पर ज़ोर दिया जाता है।
2. व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी : यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक बच्चे को कुछ-न-कुछ काम दिया जाए तथा कुछ कार्य समूह के सभी सदस्य इकट्ठा होकर करें।
3. समान स्तर पर सहक्रियाएँ : समूह के सदस्यों के बीच समान स्तर पर सहक्रियाएँ समूह के सहज कार्य हेतु आवश्यक होती हैं। शिक्षक का कार्य होगा कि शिक्षार्थी एक दूसरे के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करें। कुछ सहक्रियाओं के लिये आवश्यक है कि शिक्षक प्रत्येक शिक्षार्थी को जानता हो।
सहयोगी अधिगम के उपयोग-
- सहयोगी अधिगम बच्चों में दूसरों के दृष्टिकोण एवं विचारों को समझने की योग्यता को बढ़ाता है।
- बच्चों में एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने के कौशल को विकसित करने में सहायता करता है।
- समस्याओं को सुलझाने के लिये फैसले लेने के कौशल का विकास करता है।
- सहयोगी अधिगम बच्चों को अलग प्रकार से लेकिन परिस्थिति के अनुसार उचित प्रक्रिया करने में योग्य बनाता है।
- सहयोगी अधिगम बच्चों को इस प्रकार के अवसर देता है कि वे बहुआयामी विचारों की छानबीन कर सकें तथा परिणामों का अंदाज़ा लगा सकें और साथ ही उन पर तर्क-वितर्क कर सकें।
- पर्यावरण अध्ययन शिक्षण अधिगम विश्लेषणात्मक सोच तथा समस्याओं के समाधान से संबंधित है। सहयोगी अधिगम काफी हद तक शिक्षार्थियों में इन कौशलों का विकास करने में सहायता कर सकता है।
- क्रिकेट की शुरुआत इंग्लैंड में हुई थी। दुनिया का पहला क्रिकेट क्लब 1760 के दशक में हैंबल्डन में बना।
- पहला टेस्ट मैच 1877 ई. में मेलबर्न में इंग्लैंड तथा ऑस्ट्रेलिया के बीच तथा पहला एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच भी 1971 ई. में इंग्लैंड तथा ऑस्ट्रेलिया के बीच मेलबर्न में आयोजित किया गया था।
- इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (ICC) क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था है, जिसका मुख्यालय दुबई (UAE) में है। जबकि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) भारत में क्रिकेट से संबंधित सर्वोच्च संस्था है।
- भारत में क्रिकेट की शुरुआत अंग्रेज़ों द्वारा 18वीं सदी में हुई। भारत ने पहला टेस्ट मैच इंग्लैंड के विरुद्ध 1932 ई. में खेला।
- भारत में रणजी ट्रॉफी की शुरुआत 1934 में हुई।
- शब्दावली- एशेज, विकेट कीपर, फील्डर, एल.बी.डब्ल्यू., रबर, बेल्स, बैट, डेड बॉल, स्विंग, फाइन लेग, हिट विकेट, मेडन, थ्रो, स्क्वायर लेग, स्विंग, कवर, स्ट्रोक, मिड ऑन, मिड विकेट, ऑफ स्पिनर, चाइना मैन, बैट्समैन, बॉलर, लॉन्ग ऑफ, थर्ड मैन, लॉन्ग ऑन, सिली प्वाइंट, कवर प्वाइंट, शॉर्ट पिच, राउंड द विकेट, स्लिप, हुक, रन आउट, पॉपिंग क्रीज, छक्का, चौका, कैच, गली, ओवर थ्रो, लेग स्पिनर, ओवर द विकेट, वाइड, फ्री हिट, डकवर्थ लुइस, सुपर ओवर, फॉलो-ऑन, पैड आदि।
- खिलाड़ियों की संख्या-11
परिमाप
- पिच की लंबाई- 22 गज (20.12 मीटर)
- गेंद का भार- 155.9-163 ग्राम
- (बल्ले) बैट की लंबाई- 96.52 सेमी (38 इंच) अधिकतम
- बल्ले की चौड़ाई- 10.8 सेमी (4.25 इंच अधिकतम)
- स्टंप की लंबाई- 71.12 सेमी
- ‘सैलिक्स परप्यूरिया’ [Salix Alba caerulea (Cricket Bat Willow)] लकड़ी द्वारा क्रिकेट के बल्ले का निर्माण किया जाता है। विलो (Willow) पेड़ की लकड़ी का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट बल्ले के निर्माण हेतु किया जाता है।
- संबंधित कप/ट्रॉफी
- घरेलू ट्रॉफी- रणजी ट्रॉफी, ईरानी कप, दिलीप ट्रॉफी, कूच बिहार ट्रॉफी, सी.के नायडू ट्रॉफी, देवधर ट्रॉफी, जे.के. बोस ट्रॉफी, शीशमहल ट्रॉफी, मोइनुद्दीन गोल्ड कप, विजय हज़ारे ट्रॉफी, विजय मर्चेंट ट्रॉफी, जी.डी. बिड़ला ट्रॉफी, रानी झाँसी ट्रॉफी (महिला क्रिकेट)।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं- ICC चैंपियंस ट्रॉफी, ICC पुरुष क्रिकेट विश्वकप, ICC पुरुष T20 विश्वकप।
तुषार या पाला
- जब कभी धरातल पर तापमान हिमांक से नीचे आ जाता है, तब वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प जल-बूंदों के रूप में न बदलकर हिम कणों के रूप में बदल जाता है तो इसे ही तुषार अथवा पाला कहते हैं।
- जो परिस्थितियां ओस के निर्माण में सहायक होती हैं, वही परिस्थितियां तुषार/पाला के लिये उपयुक्त होती हैं; बशर्ते तुषार/पाला बनने की प्रक्रिया के लिये इसका तापमान हिमांक पर या उससे नीचे हो।
- उच्च तथा मध्य अक्षांशों में तुषार एक सामान्य घटना है। उष्णकटिबंधों में कभी-कभी केवल उच्च भागों में ही पाला या तुषार पड़ता है जबकि ध्रुवीय क्षेत्रों में लगभग पूरे वर्ष तुषार के लिये अनुकूल स्थिति बनी रहती है।
- तुषार खड़ी फसलों एवं वनस्पतियों के लिये हानिकारक होती है।
- यदि तुषार की अवधि कम हो तो फसलों की सिंचाई करके भी फसलों को तुषार से बचाया जा सकता है।
पर्यावरणीय शिक्षा की परिभाषाएँ (Definitions of Environmental Education)-
विभिन्न विद्वानों ने पर्यावरणीय शिक्षा की निम्नलिखित परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं-
चैरमैन टेलर के अनुसार, ‘‘पर्यावरणीय शिक्षा द्वारा शिक्षार्थियों में पर्यावरण की समझ का विकास किया जाता है। इससे अध्येता में पर्यावरण के उत्तरदायित्व का भाव आता है।’’
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ एजुकेशन रिसर्च के अनुसार, ‘‘पर्यावरणीय शिक्षा का कार्य व्यक्ति का पर्यावरण से इस सीमा तक सामंजस्य स्थापित करना होता है जिससे व्यक्ति और समाज को स्थायी संतोष मिल सके।’’
बेसिंग महोदय के अनुसार, ‘‘पर्यावरणीय शिक्षा की परिभाषा देना सरल कार्य नहीं है। पर्यावरणीय शिक्षा के विषय क्षेत्र अन्य पाठ्यक्रमों की तुलना में कम परिभाषित हैं। फिर भी वह सर्वमान्य है कि पर्यावरणीय शिक्षा बहुविषयी होनी चाहिये जिसमें जैविक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और मानवीय संसाधनों से सामग्री प्राप्त होती है। इस शिक्षा के लिये संप्रत्यात्मक विधि सर्वोत्तम है।’’
पर्यावरणीय शिक्षा की आवश्यकता (Need of Environmental Education)-
पर्यावरण संकट की व्यापकता और विस्तार से ग्रस्त संपूर्ण मानवता को बचाने, उसकी रक्षा करने व भविष्य को सुखी बनाने हेतु पर्यावरणीय शिक्षा आज की प्राथमिक आवश्यकता है। यदि इसकी उपेक्षा कर दी जाए तो जन-जन में पर्यावरण अवबोध व गुणवत्ता बनाए रखने की चेतना जाग्रत नहीं होगी और पर्यावरण एवं पारिस्थितिक का असंतुलन निरंतर बढ़ता जाएगा जिससे ओज़ोन परत पर छिद्र बड़ा होने से सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर सीधी पड़ने लगेंगी, मृदा की उर्वरक धारण शक्ति कम हो जाने से उपज नहीं होगी। पीने के लिये शुद्ध जल नहीं मिलेगा और तापीय प्रदूषण उत्पन्न होने तथा कल-कारखाने व अन्य साधनों से इतना अधिक शोर होगा कि कान फटने लगेंगे। संक्षेप में, मानव अपंग व अशक्त हो जाएगा। अत: इन समस्त संकटों व समस्याओं से बचने के लिये तथा मानव को सुरक्षित रखने के लिये पर्यावरणीय शिक्षा अत्यंत आवश्यक है।
घरेलूकरण की प्रक्रिया-
- लोगों द्वारा पौधे उगाने और जानवरों की देखभाल करने को ‘बसने की प्रक्रिया’ का नाम दिया गया है। लोगों द्वारा अपनाए गए ये पौधे तथा जानवर अक्सर जंगली पौधों तथा जानवरों से भिन्न होते हैं।
- लोग उन्हीं पौधों तथा जानवरों का चयन करते हैं जिनके बीमार होने की संभावना कम हो। यही नहीं, लोग उन्हीं पौधे को चुनते हैं जिनसे बड़े दाने वाले अनाज पैदा होते हैं, साथ ही जिनकी मज़बूत डंठलें अनाज के पके दानों के भार को संभाल सकें।
- उन्हीं जानवरों को आगे प्रजनन के लिये चुना जाता है जो आमतौर पर अहिंसक होते हैं। इसलिये हम देखते हैं कि पाले गए जानवर तथा कृषि के लिये अपनाए गए पौधे, जंगली जानवरों तथा पौधों से धीरे-धीरे भिन्न होते गए। मिसाल के तौर पर जंगली जानवरों की तुलना में पालतू जानवरों के दाँत और सींग छोटे होते हैं।
- बसने की प्रक्रिया पूरी दुनिया में धीरे-धीरे चलती रही। यह करीब 12,000 वर्ष पूर्व शुरू हुई। वास्तव में आज हम जो भोजन करते हैं वह इसी बसने की प्रक्रिया का परिणाम है।
- कृषि के लिये अपनाई गई सबसे प्राचीन फसलों में गेहूँ तथा जौ आते हैं, उसी तरह सबसे पहले पालतू बनाए गए जानवरों में कुत्ते के बाद भेड़-बकरी आते हैं।
एक नवीन जीवन-शैली-
- जब लोग पौधे उगाने लगे तो उनकी देखभाल के लिये उन्हें एक ही जगह पर लंबे समय तक रहना पड़ा था। बीज बोने से लेकर फसलों के पकने तक, पौधों की सिंचाई करने, खरपतवार हटाने, जानवरों और चिड़ियों से उनकी सुरक्षा करने जैसे बहुत-से काम शामिल थे।
- कटाई के बाद, अनाज का उपयोग बहुत संभालकर करना पड़ता था। अनाज को भोजन और बीज, दोनों ही रूपों में बचाकर रखना आवश्यक था, इसलिये लोगों को इसके भंडारण की बात सोचनी पड़ी। बहुत-से इलाकों में लोगों ने अनाज के भंडारण के लिये मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तन बनाए, टोकरियाँ बुनीं या फिर ज़मीन में गड्ढा खोदा।
- जानवर चलते-फिरते ‘खाद्य-भंडार’ के समान होते हैं। जानवर बच्चे को जन्म देते हैं जिससे उनकी संख्या बढ़ती है। जानवरों से दूध तथा माँस प्राप्त होता है जो भोजन का एक अच्छा स्रोत है। दूसरे शब्दों में, पशुपालन भोजन के ‘भंडारण’ का एक तरीका है।
- बुर्ज़होम, मेहरगढ़, चिराँद, कोल्डिहवा, महागढ़ा, दोआजली हेडिंग, हल्लूर, पोचमपल्ली ऐसे नवपाषाणिक स्थल हैं जहाँ पुरातत्त्वविदों को शुरुआती कृषकों और पशुपालकों के होने के साक्ष्य मिले हैं।
- इन स्थलों से जो सबसे रोचक चीज़ मिली, वह है जले हुए अनाज के दानों के अवशेष। ऐसा लगता है कि ये गलती से या फिर जानबूझकर जलाए गए होंगे। इस तरह हमें पता चलता है कि भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में बहुत सारी फसलें उगाई जाती रही होंगी।
बदलती जलवायु-
- लगभग 12,000 वर्ष पूर्व दुनिया की जलवायु में बड़े बदलाव आए, जिनके परिणामस्वरूप वायुमंडल का तापमान बढ़ने लगा। कई क्षेत्रों में घास वाले मैदान बनने लगे। इससे हिरण, बारहसिंघा, भेड़, बकरी और गाय जैसे उन जानवरों की संख्या बढ़ी जो घास खाकर ज़िंदा रह सकते हैं। जो लोग इन जानवरों का शिकार करते थे, वे भी इनके पीछे आए और इनके खाने-पीने की आदतों एवं प्रजनन के समय की जानकारी प्राप्त करने लगे। हो सकता है कि तब लोग इन जानवरों को पकड़कर अपनी ज़रूरत के अनुसार पालने की बात सोचने लगे हों। साथ ही, इस काल में मछली भी भोजन का महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गई।
खेती एवं पशुपालन की शुरुआत-
- नवपाषाण काल के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के भिन्न-भिन्न इलाकों में गेहूँ, जौ और धान जैसे अनाज प्राकृतिक रूप से उगने लगे थे। शायद महिलाओं, पुरुषों और बच्चों ने इन अनाजों को भोजन के लिये बटोरना शुरू कर दिया था।
- वे यह भी सीखने लगे कि ये अनाज कहाँ उगते थे और कब पककर तैयार होते थे। ऐसा करते-करते लोगों ने इन अनाजों को खुद पैदा करना सीख लिया। इस प्रकार धीरे-धीरे वे कृषक बन गए।
- इसी तरह लोगों ने अपने घरों के आस-पास चारा रखकर जानवरों को आकर्षित कर उन्हें पालतू बनाया होगा। सबसे पहले जिस जंगली जानवर को पालतू बनाया गया वह ‘कुत्ते का जंगली पूर्वज’ था।
- धीरे-धीरे लोग भेड़, बकरी, गाय और सूअर जैसे जानवरों को अपने घरों के नज़दीक आने के लिये मजबूर करने लगे। ऐसे जानवर झुंड में रहते थे और ज़्यादातर घास खाते थे।
- अक्सर लोग अन्य जंगली जानवरों के आक्रमण से इनकी सुरक्षा किया करते थे और इस तरह धीरे-धीरे वे पशुपालक बन गए होंगे।
आरंभिक मानवों का आवास-
- भीमबेटका, हुंग्सी और कुर्नूल वे पुरास्थल हैं जहाँ पर आखेटक-खाद्य संग्राहकों के होने के प्रमाण मिले हैं।
- भीमबेटका (आधुनिक मध्य प्रदेश) एक ऐसा पुरास्थल है जहाँ गुफाएँ व कंदराएँ मिली हैं। लोग इन गुफाओं में इसलिये रहते थे क्योंकि यहाँ उन्हें बारिश, धूप और हवाओं से राहत मिलती थी। ये गुफाएँ नर्मदा घाटी के पास हैं।
- जिन गुफाओं में लोग रहते थे, उनमें से कुछ की दीवारों पर चित्र मिले हैं। इनमें कुछ सुंदर उदाहरण मध्य प्रदेश और दक्षिणी उत्तर प्रदेश की गुफाओं से मिले चित्र हैं। इनमें जंगली जानवरों का बड़ी कुशलता से सजीव चित्रण किया गया है।
- पत्थर के उपकरण बहुत महत्त्वपूर्ण थे इसलिये लोग ऐसी जगह ढूँढ़ते रहते थे जहाँ अच्छे पत्थर मिल सकें।
आरंभिक मानवों द्वारा आग का प्रयोग-
- कुर्नूल गुफा (आधुनिक आंध्र प्रदेश) से राख के अवशेष मिले हैं। इसका मतलब यह है कि आरंभिक मानव आग जलाना सीख गए थे। उनके द्वारा आग का प्रयोग प्रकाश के लिये, माँस को भूनने के लिये और खतरनाक जानवरों को दूर आदि भगाने के लिये किया जाता था।
सांस्कृतिक धरोहरों और इतिहास में समृद्ध देश भारत के पास विभिन्न राष्ट्रीय प्रतीक हैं जो इसकी पहचान, एकता और विविधता को दर्शाते हैं। ये प्रतीक राष्ट्र की परंपराओं, मूल्यों एवं आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं।
- राष्ट्रीय ध्वज- भारत का राष्ट्रीय ध्वज "तिरंगा" के नाम से जाना जाता है, राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में समान अनुपात में तीन क्षैतिज पट्टियां हैं- केसरिया रंग सबसे ऊपर, सफेद बीच में और हरा रंग सबसे नीचे है। ध्वज की लंबाई-चौड़ाई का अनुपात 3:2 है। सफेद पट्टी के बीच में नीले रंग का अशोक चक्र है। प्रत्येक रंग और चक्र का गहन अर्थ है- केसरिया देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है, सफेद शांति और सत्य का प्रतीक है, हरा रंग उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाता है तथा अशोक चक्र विधि और धर्म की शाश्वत गति दर्शाता है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गतिशील है और रुकने का अर्थ मृत्यु है।
- राष्ट्रीय चिह्न- भारत का राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ स्थित अशोक के सिंह स्तंभ की अनुकृति है, जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। मूल स्तंभ में शीर्ष पर चार सिंह हैं, जो एक-दूसरे की ओर पीठ किये हुए हैं। इसके नीचे घंटे के आकार के पदम के ऊपर एक चित्र वल्लरी में एक हाथी, चौकड़ी भरता हुआ एक घोड़ा, एक सांड तथा एक सिंह की उभरी हुई मूर्तियां हैं, इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं। एक ही पत्थर को काट कर बनाए गए इस सिंह स्तंभ के ऊपर 'धर्मचक्र' रखा हुआ है।नीचे "सत्यमेव जयते" वाक्य देवनागरी लिपि में लिखा हुआ है।
- राष्ट्रगान और गीत- राष्ट्रगान "जन गण मन," जिसे रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, विविधता में एकता का प्रतीक है। राष्ट्रीय गीत "वंदे मातरम्," जिसे बंकिम चंद्र चटर्जी ने लिखा था, मातृभूमि के प्रति समर्पण का भाव जागृत करता है।
- राष्ट्रीय पशु और पक्षी- बाघ (Panthera tigris tigris), जो अपनी गरिमा, शक्ति और फुर्तीलेपन के लिये जाना जाता है, भारत का राष्ट्रीय पशु है। भारतीय मोर (Pavo cristatus), जो अपने चमकीले पंखों और सुंदरता के लिये प्रसिद्ध है, राष्ट्रीय पक्षी है।
- राष्ट्रीय फूल- कमल (Nelumbo nucifera), भारत का राष्ट्रीय फूल, पवित्रता और निर्लिप्तता का प्रतीक है।
- राष्ट्रीय नदी- गंगा, जिसे सबसे पवित्र नदी माना जाता है, राष्ट्रीय नदी है, जो पवित्रता और पोषण का प्रतिनिधित्व करती है।
ये सभी प्रतीक भारत की विरासत के प्रति एकता एवं सम्मान को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और राष्ट्र की आत्मा तथा मूल्यों को मूर्त रूप में प्रकट करते हैं। ये प्रतीक भारतीयों के लिये प्रेरणा एवं गर्व का स्रोत हैं, जो देश की ऐतिहासिक यात्रा और भविष्य की आकांक्षाओं को दर्शाते हैं।
- पुरातत्त्वविदों ने आरंभिक काल को पुरापाषाण काल कहा है। यह दो शब्दों पुरा यानी ‘प्राचीन’ और पाषाण यानी ‘पत्थर’ से बना है। यह नाम पुरास्थलों से प्राप्त पत्थर के औज़ारों के महत्त्व को बताता है।
- पुरास्थल उस स्थान को कहते हैं जहाँ औज़ार, बर्तन और इमारतों जैसी वस्तुओं के अवशेष मिलते हैं। ऐसी वस्तुओं का निर्माण लोगों ने अपने काम के लिये किया था और बाद में वे उन्हें वहीं छोड़ गए। ये ज़मीन के ऊपर, अंदर, कभी-कभी समुद्र और नदी के तल में भी पाए जाते हैं।
- पुरापाषाण काल 20 लाख वर्ष पूर्व से 12,000 वर्ष पूर्व के दौरान माना जाता है। इस काल को तीन भागों में विभाजित किया गया है- ‘आरंभिक’, ‘मध्य’ एवं ‘उत्तर’ पुरापाषाण युग। मानव इतिहास की लगभग 99 प्रतिशत कहानी पुरापाषाण काल के दौरान घटित हुई।
- जिस काल में हमें पर्यावरणीय बदलाव मिलते हैं उसे ‘मेसोलिथ’ यानी मध्यपाषाण युग कहते हैं। इसका समय लगभग 12,000 वर्ष पूर्व से लेकर 10,000 वर्ष पूर्व तक माना गया है।
- इस काल के पाषाण औज़ार आमतौर पर बहुत छोटे होते थे। इन्हें ‘माइक्रोलिथ’ यानी लघुपाषाण कहा जाता है। प्रायः इन औज़ारों में हड्डियों या लकड़ियों के मुट्ठे लगे हँसिया और आरी जैसे औज़ार मिलते थे। साथ-साथ पुरापाषाण युग वाले औज़ार भी इस दौरान बनाए जाते रहे।
- अगले युग की शुरुआत लगभग 10,000 वर्ष पूर्व से होती है। इसे नवपाषाण युग कहा जाता है।
- महापाषाण काल उस काल को कहते हैं जिसमें महापाषाण कब्रों का निर्माण प्रारंभ हो गया था। इन कब्रों का निर्माण बड़े-बड़े पत्थरों से होता था। ये शिलाखंड महापाषाण (महा- बड़ा, पाषाण- पत्थर) नाम से जाने जाते हैं।
- महापाषाण कब्रें बनाने की प्रथा लगभग 3000 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई। यह प्रथा दक्कन, दक्षिण भारत, उत्तर-पूर्वी भारत और कश्मीर में प्रचलित थी। कुछ महापाषाण ज़मीन के ऊपर ही दिख जाते हैं। कुछ महापाषाण ज़मीन के भीतर भी होते हैं।
- सामान्यतः मृतकों को खास किस्म के मिट्टी के बर्तन के साथ दफनाया जाता था जिन्हें काले-लाल मिट्टी के बर्तनों (ब्लैक एंड रेड वेयर) के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा, कुछ महापाषाण कब्रों में लोहे के औज़ार और हथियार, घोड़ों के कंकाल, पत्थर और सोने के गहने भी प्राप्त हुए हैं।
- कभी-कभी महापाषाणों में एक से अधिक कंकाल मिले हैं। वे यह दर्शाते हैं कि शायद एक ही परिवार के लोगों को एक ही स्थान पर अलग-अलग समय पर दफनाया गया था।
- महापाषाणों के निर्माण के लिये लोगों को कई तरह के काम करने पड़ते थे, जैसे- गड्ढे खोदना, शिलाखंडों को ढोकर लाना, बड़े पत्थरों को तराशना और मरे हुए को दफनाना आदि।
आरंभिक मानव की गतिविधियाँ-
वे लोग, जो भारतीय उपमहाद्वीप में बीस लाख वर्ष पूर्व रहा करते थे, आज उन्हें आखेटक-खाद्य संग्राहक के नाम से जाना जाता है। भोजन का इंतज़ाम करने की विधि के आधार पर उन्हें इस नाम से पुकारा जाता है। आमतौर पर भोजन के लिये वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे, मछली और चिड़िया पकड़ते थे, फल-मूल, दाने, अंडे आदि इकट्ठा किया करते थे।
आखेटक-खाद्य संग्राहक समुदाय के लोग एक जगह से दूसरी जगह पर घूमते रहते थे। ऐसा वे निम्नलिखित कारणों से करते थे-
- अगर वे एक ही जगह पर ज़्यादा दिनों तक रहते तो आस-पास के पौधों, फलों और जानवरों को खाकर समाप्त कर देते थे। इसलिये और भोजन की तलाश में इन्हें दूसरी जगहों पर जाना पड़ता था।
- जानवर अपने शिकार के लिये या फिर हिरण और मवेशी अपना चारा ढूँढ़ने के लिये एक जगह से दूसरी जगह जाया करते हैं। इसलिये इन जानवरों का शिकार करने वाले लोग भी इनके पीछे-पीछे जाया करते होंगे।
- पेड़ों और पौधों में फल-फूल अलग-अलग मौसम में आते हैं इसलिये लोग उनकी तलाश में उपयुक्त मौसम के अनुसार अन्य इलाकों में घूमते होंगे।
- पानी के बिना किसी भी प्राणी या पेड़-पौधे का जीवित रहना संभव नहीं होता और पानी झीलों, झरनों तथा नदियों में ही मिलता है। यद्यपि कई नदियों और झीलों का पानी कभी नहीं सूखता, कुछ झीलों और नदियों में पानी बारिश के बाद ही मिल पाता है। इसलिये ऐसी झीलों और नदियों के किनारे बसे लोगों को सूखे मौसम में पानी की तलाश में इधर-उधर जाना पड़ता होगा।
आरंभिक मानवों के औज़ार-
- पुरातत्त्वविदों के अनुसार, आखेटक-खाद्य संग्राहक अपने कार्यों के लिये पत्थरों, लकड़ियों और हड्डियों के औज़ारों का उपयोग करते थे। इनमें से पत्थरों के औज़ार वर्तमान में भी उपलब्ध हैं।
- इनमें से कुछ औज़ारों का उपयोग फल-फूल काटने, हड्डियों और माँस को काटने तथा पेड़ों की छाल और जानवरों की खाल उतारने के लिये किया जाता था। कुछ औज़ारों में हड्डियों या लकड़ियों के मुट्ठे लगाकर भाले और बाण जैसे हथियार बनाए जाते थे।
- कुछ औज़ारों से लकड़ियाँ काटी जाती थीं। लकड़ियों का उपयोग ईंधन के साथ-साथ झोपड़ियाँ और औज़ार बनाने के लिये भी किया जाता था।
- पत्थर के औज़ारों का उपयोग इंसान के खाने योग्य जड़ों को खोदने के लिये किया जाता था, साथ ही जानवरों की खाल से बने वस्त्रों को सिलने के लिये भी इनका प्रयोग किया जाता था।
- आरंभिक मानवों में से कुछ कुशल संग्राहक थे, जो आस-पास के जंगलों की विशाल संपदा से परिचित थे। अपने भोजन के लिये वे जड़ों, फलों तथा जंगल के अन्य उत्पादों का यहीं से संग्रह किया करते थे। वे जानवरों का आखेट (शिकार) भी किया करते थे।
- घास और शाक खाने के लिये शाकाहारी जीवों के सामने के दाँत नुकीले, चौड़े और चपटे होते हैं। जैसे:- घोड़े, गाय, भेड़ और बकरी।
- वे घास और पत्तियों को काटने के लिये इस प्रकार के दाँतों का उपयोग करते हैं।
- उन्हें माँसाहारी पशुओं की तरह अपने भोजन को फाड़ने की ज़रूरत नहीं है।
- माँस खाने वाले पशु मुख्य रूप से माँसाहारी होते हैं, जैसे- सिंह, बाघ, चीता, भेड़िया आदि।
- इस प्रकार के पशुओं के लंबे, नुकीले दाँत होते हैं।
- वे इनका उपयोग माँस को फाड़ने, काटने और चीरने के लिये करते हैं।
- फल हॉर्नबिल, चमगादड़ और बंदरों के लिये प्राथमिक भोजन का स्रोत हैं।
- इस प्रकार के पशुओं के सामने के दाँत नुकीले, चपटे और चौड़े नहीं होते हैं।
- पक्षी और छोटे जानवर, जैसे- गिलहरी और चूहे मुख्य रूप से अनाज खाते हैं।
- अधिकतर मामलों में पक्षियों के दाँत नहीं होते हैं, इसलिये वे अपनी चोंच का इस्तेमाल अनाज खाने के लिये करते हैं।
- अन्य छोटे जानवरों के दाँत छोटे होते हैं, उन्हें अनाज खाने के लिये चौड़े, चपटे सामने वाले दाँतों की आवश्यकता नहीं होती है।
जंतु या प्राणि जगत को निम्नलिखित आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है-
- संगठन के स्तर (Levels of Organisation)
- सममिति (Symmetry)
- द्विकोरिकी तथा त्रिकोरकी संगठन (Diploblastic and Triploblastic Organisation)
- शरीर की गुहा या प्रगुहा या सीलोम (Coelom)
- खंडीकरण (Segmentation)
- पृष्ठरज्जु (Notochord)
- संगठन के स्तर- यद्यपि प्राणी जगत के सभी सदस्य बहुकोशिक हैं परंतु सभी एक ही प्रकार की कोशिका के संगठन को प्रदर्शित नहीं करते। कुछ में कोशिकीय स्तर का संगठन दिखता है तो कुछ में ऊतक स्तर का संगठन दिखाई पड़ता है। प्लेटीहेल्मिंथीज़ तथा अन्य उच्च संघों में अंग स्तर का संगठन दिखता है। एनेलिडा, आर्थोपोडा, मोलस्का, इकाइनोडर्मेटा तथा रज्जुकी में अंग मिलकर तंत्र के रूप में शारीरिक कार्य करते हैं जो अंगतंत्र के स्तर का संगठन कहलाता है।
विभिन्न प्राणी समूहों में अंगतंत्र विभिन्न प्रकार की जटिलताएँ प्रदर्शित करते हैं, जैसे- किसी में खुला परिसंचरण तंत्र पाया जाता है तो किसी में बंद परिसंचरण तंत्र। - सममिति- प्राणी को सममिति के आधार पर भी श्रेणीबद्ध किया जाता है। असममिति (Asymmetrical) स्पंज में पाई जाती है जिसमें किसी भी केंद्रीय अक्ष से गुज़रने वाली रेखा इन्हें दो बराबर भागों में विभाजित नहीं करती। सीलेंटरेट, टीनोफोर तथा इकाइनोडर्मेटा में अरीय सममिति (Radial Symmetry) पाई जाती है जिसमें किसी भी केंद्रीय अक्ष से गुज़रने वाली रेखा प्राणी के शरीर को दो समरूप भागों में विभाजित करती है।
एनेलिडा, आर्थोपोडा आदि में द्विपार्श्व सममिति (Bilateral Symmetry) पाई जाती है जिसमें एक ही अक्ष से गुज़रने वाली रेखा द्वारा शरीर दो समरूप दाएँ एवं बाएँ भाग में विभाजित हो जाता है। - द्विकोरिक या त्रिकोरकी संगठन- सिलेंटरेट जैसे प्राणियों में कोशिकाएँ दो भ्रूणीय स्तरों, जैसे- बाह्य एक्टोडर्म (बाह्य त्वचा) एवं आंतरिक एक्टोडर्म (अंत: त्वचा) में व्यवस्थित होती हैं, ये प्राणी द्विकोरिक कहलाते हैं।
वे प्राणी जिनके विकसित भ्रूण में तृतीय भ्रूण स्तर अर्थात् मीसोडर्म उपस्थित होता है, त्रिकोरकी कहलाते हैं। जैसे- प्लेटीहेल्मिंथीज़ से रज्जुकी तक के प्राणी। - प्रगुहा/शरीर की गुहा- शरीर भित्ति (Body Wall) तथा आहार नाल (Gut Wall) के बीच में गुहा (Cavity) की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति वर्गीकरण का महत्त्वपूर्ण आधार है। मध्य त्वचा (Mesoderm) से आच्छादित शरीर गुहा (Body Cavity) को देहगुहा या प्रगुहा (Coelom) कहते हैं। इससे युक्त प्राणी को प्रगुही प्राणी (Coelomates) कहते हैं। जैसे- एनेलिडा, मोलस्का, आर्थोपोडा, इकाइनोडर्मेटा तथा कॉर्डेटा।
कुछ प्राणियों में यह गुहा मीसोडर्म से आच्छादित नहीं होती (मध्य त्वचा, बाह्य त्वचा एवं अंत: त्वचा के बीच बिखरी हुई थैली के रूप में पाई जाती है), ऐसे शरीर कूटगुहा (Pseudocoelom) एवं ऐसे प्राणी कूटगुहिक (Pseudocoelomates) कहे जाते हैं। उदाहरण- ऐस्केल्मिंथीज़।
जिन प्राणियों में शरीर गुहा नहीं पाई जाती उन्हें अगुहीय (Acoelomates) कहते हैं। जैसे- प्लेटीहेल्मिंथीज़। - खंडीकरण- कुछ प्राणियों में शरीर बाह्य तथा आंतरिक रूप से श्रेणीबद्ध खंडों में विभाजित रहता है जिनमें कुछ अंगों की पुनरावृत्ति होती है। इस प्रक्रिया को खंडीकरण कहते हैं। उदाहरण- केंचुए का शरीर।
- पृष्ठरज्जु- पृष्ठरज्जु (Notochord) मध्य त्वचा (मीसोडर्म) से उत्पन्न होती है जो भ्रूण विकास के समय पृष्ठ सतह में बनती है। पृष्ठरज्जु युक्त प्राणी को रज्जुकी (Chordate) तथा पृष्ठरज्जु रहित प्राणी को अरज्जुकी (Non Chordate) कहते हैं।
- तना- तना प्रांकुर से बढ़ने वाला पादप अक्ष का वह वायवीय भाग है जो सामान्यत: भूमि के ऊपर स्थित होता है और शाखाएँ, पत्तियाँ एवं पुष्प धारण करता है। कमज़ोर तने वाले पौधे सीधे खड़े नहीं हो सकते हैं तथा ये भूमि पर फैल जाते हैं, इन्हें विसर्पी लता कहते हैं।
- तने के कार्य- तने का प्रमुख कार्य शाखाओं को फैलाना तथा पत्ती, फूलों एवं फलों को संभाले रखना है। यह जल, खनिज लवण तथा प्रकाश संश्लेषी पदार्थों का संवहन करता है। कुछ तने भोजन संग्रह करने, सहारा व सुरक्षा प्रदान करने तथा कायिक प्रवर्द्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- तने का रूपांतरण (Modification of Stem)- तने का रूपांतरण तीन प्रकार से होता है-
- भूमिगत (Underground)
- उपवायवीय (Sub-Aerial)
- वायवीय (Aerial)
- भूमिगत तना (Underground Stem)
- तने का वह भाग जो भूमि के अंदर पाया जाता है भूमिगत तना कहलाता है, यथा- हल्दी, अदरक, आलू इत्यादि। भूमिगत तने का रूपांतरण निम्न भागों में होता है-
- प्रकंद (Rhizome) - हल्दी, अदरक
- कंद (Tubers) - आलू
- शल्क कंद (Bulb) - प्याज, लहसुन
- घनकंद (Corm) - ज़मीकंद, अरबी
- पत्ती- पत्ती, तना या शाखा की पार्श्व बहिर्वर्द्धन है जो कली पर विकसित होती है।
- पत्ती का वह भाग जिसके द्वारा वह तने से जुड़ी होती हैं पर्णवृंत कहलाता है। पत्ती के चपटे हरे भाग को फलक कहते हैं।
- पत्ती की इन रेखित संरचनाओं को शिरा कहते हैं। पत्ती के मध्य में एक मोटी शिरा दिखाई देती है। इसे मध्य शिरा कहते हैं। पत्तियों पर शिराओं द्वारा बनाए गए डिज़ाइन को शिरा-विन्यास कहते हैं। यदि यह डिज़ाइन मध्य शिरा के दोनों ओर जाल जैसा है, तो यह शिरा-विन्यास जालिका रूपी कहलाता है। घास की पत्तियों में ये शिराएँ एक-दूसरे के समांतर हैं और ऐसे शिरा-विन्यास को समांतर शिरा-विन्यास कहते हैं।
- जल की ये बूंदें पत्ती से जलवाष्प के रूप में निकली हैं। इस क्रिया को वाष्पोत्सर्जन कहते हैं। इस प्रक्रम के द्वारा पौधे बड़ी मात्रा में जल को वायुमंडल में छोड़ते हैं।
पत्ती के कार्य
- पत्तियाँ प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा भोजन तैयार करती हैं।
- पत्तियाँ प्रतान अर्थात् लतातंतु में रूपांतरित होकर मटर जैसे पौधों को ऊपर चढ़ने में मदद करती हैं।
- कुछ पत्तियाँ भोजन संचयित करने का कार्य करती हैं, जैसे- प्याज़ तथा लहसुन में।
- पत्तियाँ प्रकाश-संश्लेषण एवं श्वसन के लिये विभिन्न गैसों का आदान-प्रदान करती हैं।
- ग्वारपाठा (Aloe Vera) एवं नागफनी में पत्तियाँ काँटा के रूप में परिवर्तित होकर रक्षा करती हैं।
- पत्तियाँ वाष्पोत्सर्जन को नियंत्रित करती हैं।
- कीटहारी पादपों में पत्तियाँ घड़े के आकार में रूपांतरित होकर पोषण में सहायता करती हैं, जैसे- घटपर्णी, वीनस फ्लाई।
जड़ (Root)
- पादपों में मूलरोमों द्वारा परासरण प्रक्रिया से जल अवशोषण होता है। पौधों की जड़ों का कार्य भूमि से जल व पोषक तत्त्वों का अवशोषण तथा पौधों को सहारा प्रदान करना है। जब किसी वृक्ष की छाल आधार के पास से गोलाकार चारों तरफ से हटा दी जाती है तो यह वृक्ष धीरे-धीरे सूखकर मर जाता है क्योंकि वृक्ष की जडे़ं ऊर्जा से वंचित रह जाती हैं। अत: किसी वृक्ष के छाल के नाश से उसे अधिकतम हानि पहुँचती है।
- द्विबीजपत्री पादपों में मूलांकुर (Radicle) के लंबे होने से प्राथमिक मूल (Primary Roots) बनती है जो मिट्टी में उगती है। प्राथमिक मूल से पार्श्वीय मूल (Lateral Roots) निकलती हैं जिन्हें द्वितीयक एवं तृतीयक मूल कहते हैं।
जड़ (मूल) के प्रकार
- जड़ तीन प्रकार की होती हैं-
- मूसला जड़ (Tap Root)- प्राथमिक मूल एवं इनकी शाखाएँ मिलकर मूसला मूलतंत्र बनाती हैं, जैसे- सरसों का पौधा।
- रेशेदार या झकड़ा जड़ (Fibrous Root)- जब प्राथमिक जड़ें अल्पजीवी होती हैं तो वे पतली जड़ों द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती हैं। ये जड़े तने के आधार से निकलती हैं। जैसे- गेहूँ का पौधा।
- अपस्थानिक जड़ (Adventitious Root)- इसमें मूल मूलांकुर की बजाय पौधों के अन्य भागों से निकलती है। जैसे- घास, बरगद।
- जड़ का रूपांतरण (Modifications of Root)
- कुछ पादपों में जड़ें जल तथा खनिज के अवशोषण के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करती हैं। इस दौरान उनके आकार एवं संरचना में परिवर्तन हो जाता है।
- मुख्य/मूसला जड़ों का रूपांतरण
- भोज्य पदार्थ के संचय के लिये-
- तर्वुरूप (Fusiform) - मूली
- वुंभीरूप (Napiform) - शलजम
- शंक्वाकार (Conical) - गाजर
- गाँठदार (Tuberous) - मिराबिलिस, शकरकंद
- अपस्थानिक जड़ों का रूपांतरण (कार्य के आधार पर)
- भोज्य पदार्थ के संचय के लिये-
- कंदिल जड़ें (Tuberous Roots) - शकरकंद
- पुलकित जड़ें (Fasciculated Roots) - डहेलिया, शतावर
- ग्रंथिल जड़ें (Nodulose Roots) - अम्बा हल्दी
- मणिकामय जड़ें (Moniliform/Beaded Roots) - अंगूर, करेला
- भोज्य पदार्थ के संचय के लिये-
- यांत्रिक सहारा प्रदान करने के लिये-
- स्तंभ मूल (Prop Roots) - बरगद
- अवस्तंभ मूल (Stilt Roots) - मक्का, गन्ना
- आरोही मूल (Climbing Roots) – पान
- अन्य जैविक क्रियाओं के लिये
- चूषण मूल (Sucking Roots) - अमरबेल
- श्वसनी मूल (Respiratory Roots) - राइज़ोफोरा
- अधिपादप मूल (Epiphytic Roots) - आर्किड
- स्वांगीकारक मूल (Assimilatory Roots) – सिंघाड़ा
जड़ के कार्य
- मूलतंत्र का मुख्य कार्य मिट्टी से जल तथा खनिज का अवशोषण करना, पौधों को जकड़कर रखना, खाद्य पदार्थों का संचय करना तथा पादप नियामकों का संश्लेषण करना है।
- पुष्प (Flower)- आकारिकीय दृष्टि से पुष्प एक रूपांतरित प्ररोह है जिसमें पर्व एवं पर्वसंधियाँ संयुक्त रूप से व्यवस्थित होती हैं।
- पुष्प पौधे का प्रजनन अंग होता है जिससे पौधों में लैंगिक प्रजनन की क्रिया होती है।
- एक प्रारूपिक पुष्प में पुष्प पत्रों के 4 भाग होते हैं जिन्हें पुष्प के चक्र भी कहते हैं और जो पुष्पासन पर एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित होते हैं। ये निम्नलिखित हैं- 1. बाह्यदलपुंज, 2. दलपुंज, 3. पुमंग (नर जनन अंग) और जायांग (मादा जनन अंग)।
- पुष्प के अंगों या चक्रों की उपस्थिति के आधार पर पुष्प दो प्रकार के होते हैं-
- पूर्ण पुष्प- इसमें चारों चक्र पाए जाते हैं।
- अपूर्ण पुष्प- इसमें चारों चक्र नहीं पाए जाते हैं।
- पुष्प के तंतु को पुंकेसर तथा पुष्प के केंद्र में स्थित भाग को स्त्रीकेसर कहते हैं।
- अंडाशय में छोटी-छोटी गोल संरचनाएँ दिखाई देती हैं। इन्हें बीजांड कहते हैं।
- खिले हुए पुष्प का प्रमुख भाग पुष्प की पंखुड़ियाँ हैं।
- फल (Fruit)- फल एक परिपक्व अथवा पूर्णत: निर्मित अंडाशय है जिसका निर्माण निषेचन के उपरांत होता है। सामान्यत: इसमें एक फलभित्ति (Pericarp) तथा बीज विद्यमान होते हैं। फलभित्ति शुष्क तथा गूदेदार हो सकती है। कभी-कभी कुछ पुष्पीय भाग भी फल के भाग में परिवर्तित हो जाते हैं। ये कूट फल (False Fruits) कहलाते हैं, यथा- सेब, काजू। इसके अतिरिक्त अन्य सभी अंडाशय से निर्मित होने वाले फलों को वास्तविक फल कहा जाता है। ज्ञात है कि लौंग पौधे की बंद कलियाँ होती हैं।
विवाह के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family on the Basis of Marriage)
विवाह के आधार पर परिवार के तीन प्रकार हो सकते हैं-
- एक विवाही परिवार- इस प्रकार के परिवार में एक पुरुष एक स्त्री से विवाह करता है। इसमें दोनों पक्ष बिना तलाक या किसी एक की मृत्यु तक दूसरा विवाह नहीं कर सकते हैं। परिवार का यह स्वरूप आज संसार में सर्वाधिक प्रचलित है।
- बहुपत्नी विवाही परिवार- ऐसे परिवार पितृसत्तात्मक एवं पितृवंशीय होते हैं। इनमें एक ही समय में एक पुरुष अनेक स्त्रियों से विवाह करता है। हमारे समाज में हिंदुओं में वैधानिक रूप से ऐसे परिवारों का संगठन समाप्त किया जा चुका है। मुसलमानों में बहुपत्नी विवाही परिवारों का वैधानिक रूप से आज भी प्रचलन है।
- बहुपति विवाही परिवार- इस प्रकार के परिवार में स्त्री एक ही समय में अनेक पुरुषों से विवाह करती है। कभी-कभी ये पुरुष आपस में भाई भी होते हैं। अत्यंत संघर्षपूर्ण तथा निर्धन जीवन के कारण बहुपति विवाही परिवार का जन्म होता है। इस प्रकार के परिवार अधिकतर मातृसत्तात्मक एवं मातृवंशीय होते हैं।
निवास स्थान के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family on the Basis of Residence)
निवास स्थान के आधार पर परिवार निम्नांकित चार प्रकार के होते हैं-
- मातृस्थानीय परिवार- इस प्रकार के परिवार में विवाह के पश्चात् पति स्थायी रूप से या आवश्यकता पड़ने पर पत्नी के साथ या पत्नी के परिवार के साथ रहता है। ये परिवार खासी, गारो तथा मालाबार के नायरों में प्राय: पाए जाते हैं।
- पितृस्थानीय परिवार- सामान्यत: विवाह के पश्चात् पत्नी, पति के यहाँ या पति के परिवार में निवास करती है। हिंदुओं में अधिकतर पितृस्थानीय परिवार ही पाए जाते हैं।
- नवस्थानीय परिवार- इस प्रकार के परिवार में विवाह के पश्चात् नव-दंपति अपने-अपने परिवारों से पृथक् अपना एक नया परिवार बसा लेते हैं। पश्चिमी देशों में नवस्थानीय परिवारों का अधिक प्रचलन है।
- मातुलस्थानीय परिवार- इस प्रकार के परिवार में विवाहित लड़का अपनी पत्नी के साथ अपने मामा के घर निवास करने लगता है। इस प्रकार वह अपने माता-पिता से दूर हो जाता है। मेलानेशिया की कुछ जनजातियों में परिवार का यह रूप प्रचलित है।
- अवगत है कि खेल कुछ बच्चों के लिये नैसर्गिक गुण होता है, तो दूसरों के लिये इसे शुरू करना और प्रोत्साहित करना पड़ता है।
- खेल बच्चों के लिये नैसर्गिक क्रियाकलाप होता है और जब वे इस नैसर्गिक क्रियाकलाप का प्रदर्शन नहीं करते, तब यह चिंता का विषय बन जाता है। इससे यह पता चलता है कि कहीं न कहीं समस्या है।
- समस्या विकास के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, चाहे वह शारीरिक दृष्टि से, मानसिक या वाणी, भाषा या संचार संबंधी ही क्यों न हो।
- उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि बच्चा अपने जीवन की उस आयु में अपेक्षित संपूर्ण अंत:शक्ति को हासिल नहीं कर पाया है या फिर उसके विकास में देरी हुई है। जब बच्चे में उसके एक या दो मील के पत्थरों की उपलब्धियों में देरी हुई हो तो वहाँ पर विकासीय देरी होती है। यह बच्चे की वाणी और भाषा, उत्तम और सकल प्रेरक/चालक कौशलों, व्यक्तिगत और/या सामाजिक कौशलों को प्रभावित कर सकता है।
- दिव्यांगता से ग्रसित बच्चों में विकासीय गति देरी से होती है। अत: ऐसे बच्चों को विकासीय देरी वाले बच्चे कहा जाता है। कुछ बच्चों को गर्भधारण के समय जोखिम लग जाता है और उनका जन्म मानवीय अस्तित्व की हानियों से भरा तथा उस पर्यावरण के अनुसार होता है जिसमें वे रहते हैं। बच्चों को उस समय जोखिम में पड़े समझा जाता है जब वे कुछ विपरीत जननीय, पूर्व प्रसव, प्रसव तथा प्रसवोपरांत या पर्यावरणीय स्थितियों से गुज़रते हैं, जिन्हें त्रुटियों का कारक माना जाता है और जिनका गहरा संबंध बाद में आने वाली असाधारणताओं के उजागर होने पर महसूस किया जाता है।
- विकासीय विलंबता के कारण बच्चों का जीवन जोखिम भरा होता है। समस्या की प्रकृति चाहे किसी भी प्रकार की हो, किसी भी बच्चे को खेल के अनुभव से वंचित नहीं किया जा सकता।
- खेल ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा बच्चे सीखते और आनंदित होते हैं, इसलिये किसी भी बच्चे को खेल से वंचित नहीं किया जाना चाहिये।
- विकासीय देरी वाले बच्चों के खेल की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये माता-पिता और देखभालकर्त्ताओं को चाहिये कि वे उनकी निगरानी करें और उन्हें सचेत करें ताकि वे अपनी सीमाओं में रहकर मन से सभी प्रकार के खेल क्रियाकलापों में भाग ले सकें।
- इन बच्चों को उनकी दिव्यांगता के अनुरूप छानबीन करने और पर्यावरण के साथ संपर्क करने में कठिनाई होगी। हालाँकि विकासीय विलंब से ग्रस्त कुछ बच्चे अपनी सीमाओं के अनुरूप अनुकूल बनते हैं और अपनी कठिनाइयों की प्रतिपूर्ति कर लेते हैं, फिर भी यह उनके विकास के लिये देखभाल करने के पर्याप्त प्रयास की मांग करता है।
- भारत में ब्रिटिश इतिहासकारों ने जो इतिहास लिखा उसमें प्रत्येक गवर्नर जनरल का शासनकाल महत्त्वपूर्ण रहा है। यह इतिहास प्रथम गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के शासन से शुरू होता है और आखिरी वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन के साथ खत्म होता है।
- अंग्रेज़ों द्वारा तैयार किये गए सरकारी रिकॉर्ड इतिहासकारों के लिये जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं। अंग्रेज़ों की मान्यता थी कि किसी भी घटनाक्रम को लिखना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।
- उनके लिये हर निर्देश, हर योजना, नीतिगत फैसले, सहमति और जाँच को साफ-साफ लिखना ज़रूरी था। ऐसा करने के बाद चीज़ों का अच्छी तरह अध्ययन और उन पर वाद-विवाद किया जा सकता है। अंग्रेज़ों की समझदारी के कारण ज्ञापन, टिप्पणी और प्रतिवेदन पर आधारित शासन की संस्कृति का विकास हुआ।
- अंग्रेज़ों को यह भी लगता था कि तमाम अहम दस्तावेज़ों और पत्रों को संभालकर रखना ज़रूरी है। लिहाज़ा उन्होंने सभी शासकीय संस्थानों में अभिलेख कक्ष भी बनवा दिये।
- तहसील के दफ्तर, कलेक्ट्रेट कमिश्नर के दफ्तर, प्रांतीय सचिवालय, कचहरी- सबके अपने रिकॉर्ड रूम होते थे। महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बचाकर रखने के लिये अभिलेखागार (आर्काइव) और संग्रहालय जैसे संस्थान भी बनाए गए।
- उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में दस्तावेज़ों की सावधानीपूर्वक नकलें बनाई जाती थीं। उन्हें खुशनवीसी के माहिर लोग लिखते थे। खुशनवीसी या सुलेखनवीस ऐसे लोग होते थे जो बहुत सुंदर ढंग से चीज़ें लिखते थे।
- उन्नीसवीं सदी के मध्य तक छपाई तकनीक का विस्तार होने लगा था। इस तकनीक के सहारे अब प्रत्येक सरकारी विभाग की कार्रवाइयों के दस्तावेज़ों की कई-कई प्रतियाँ बनाई जाने लगीं।
- उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक पूरे देश का नक्शा तैयार करने के लिये बड़े-बड़े सर्वेक्षण किये जाने लगे। गाँवों में राजस्व सर्वेक्षण किये गए। इन सर्वेक्षणों में धरती की सतह, मिट्टी की गुणवत्ता, वहाँ मिलने वाले पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं तथा फसलों का पता लगाया जाता था।
- उन्नीसवीं सदी के आखिर से हर दस साल में जनगणना भी की जाने लगी। जनगणना के ज़रिये भारत के सभी प्रांतों में रहने वाले लोगों की संख्या, उनकी जाति, इलाके और व्यवसाय के बारे में जानकारियाँ इकट्ठा की जाती थीं।
- आधुनिक काल को जानने के लिये लोगों की डायरियाँ, तीर्थयात्राओं और यात्रियों के संस्मरण, महत्त्वपूर्ण लोगों की आत्मकथाएँ और स्थानीय बाज़ारों में बिकने वाली लोकप्रिय पुस्तक-पुस्तिकाएँ भी महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।
- जैसे-जैसे छपाई की तकनीक का विस्तार हुआ, अखबार छपने लगे और विभिन्न मुद्दों पर जनता में विमर्श भी होने लगा। नेताओं और सुधारकों ने अपने विचारों को प्रसारित करने के लिये लिखा, कवियों और उपन्यासकारों ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिये लिखा।
- लेकिन ये सारे स्रोत उन लोगों ने रचे हैं जो पढ़ना-लिखना जानते थे। इनसे हम यह पता नहीं लगा सकते कि आदिवासी और किसान, खदानों में काम करने वाले मज़दूर या सड़कों पर ज़िंदगी गुज़ारने वाले गरीब किस तरह के अनुभवों से गुज़र रहे थे।
- इतिहासकार मध्यकाल के बारे में सूचना एकत्रित करने के लिये सिक्कों, शिलालेखों, स्थापत्य (भवन निर्माण कला) तथा लिखित सामग्रियों पर निर्भर रहते हैं। इस काल में प्रामाणिक लिखित सामग्री की संख्या और विविधता आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गई। इसका कारण यह था कि इस दौरान कागज़ काफी सस्ता होता गया और बड़े पैमाने पर उपलब्ध भी होने लगा।
- लोग धर्मग्रंथ, शासकों के वृत्तांत, संतों के लेखन तथा उपदेश, अर्जियाँ, अदालतों के दस्तावेज़, हिसाब तथा करों के खाते आदि लिखने में कागज़ का प्रयोग करने लगे।
- धनी व्यक्ति, शासक वर्ग, मठ तथा मंदिर, पांडुलिपियाँ एकत्रित किया करते थे। इन पांडुलिपियों को पुस्तकालयों तथा अभिलेखागारों में रखा जाता था। इन पांडुलिपियों और दस्तावेज़ों से इतिहासकारों को विस्तृत जानकारी मिलती है।
- अभिलेखागार एक ऐसा स्थान होता है जहाँ दस्तावेज़ों और पांडुलिपियों को संगृहीत किया जाता है। आज सभी राष्ट्रीय और राज्य सरकारों के अभिलेखागार होते हैं जहाँ वे अपने तमाम पुराने सरकारी अभिलेख और लेन-देन के ब्यौरों का रिकॉर्ड रखते हैं।
- मध्यकाल में छापेखाने नहीं थे, इसलिये लिपिक या नकलनवीस हाथ से ही पांडुलिपियों की प्रतिकृति बनाते थे। पांडुलिपि की प्रतिलिपियाँ बनाते हुए लिपिक छोटे-मोटे फेरबदल करते चलते थे, कहीं कोई शब्द तो कहीं कोई वाक्य।
- सदी-दर-सदी प्रतिलिपियों की भी प्रतिलिपियाँ बनती रहीं और अंततः एक ही मूल ग्रंथ की भिन्न-भिन्न प्रतिलिपियाँ एक-दूसरे से बहुत ही अलग हो गईं। इससे बड़ी गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई, क्योंकि आज हमें लेखक की मूल पांडुलिपि शायद ही कहीं मिलती है।
- इतिहासकारों को लिपिकों द्वारा बनाई गई प्रतिलिपियों पर ही पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता है। इसलिये इस बात का अंदाज़ा लगाने के लिये कि मूलतः लेखक ने क्या लिखा था, इतिहासकारों को एक ही ग्रंथ की विभिन्न प्रतिलिपियों का अध्ययन करना पड़ता है।
- कई बार लेखक स्वयं भी समय-समय पर अपने मूल वृत्तांत में संशोधन करते रहते थे। चौदहवीं शताब्दी के इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी ने अपना वृत्तांत पहली बार 1356 ई. में और दूसरी बार इसके दो वर्ष बाद लिखा था। दोनों में वृत्तांतों में पर्याप्त अंतर है, लेकिन 1971 तक इतिहासकारों को पहली बार वाले वृत्तांत की जानकारी ही नहीं थी। यह पुस्तकालयों के विशाल संग्रहों में कहीं दबा पड़ा था।
- लिखावट की भिन्न प्रकार की शैलियों के कारण फ़ारसी और अरबी पढ़ने में कठिनाई होती है। नस्तलिक लिपि (बाईं ओर) में वर्ण जोड़कर तेज़ी से लिखे जाते हैं। फारसी और अरबी के जानकारों के लिये इस लिपि को पढ़ना आसान होता है। शिक्स्त लिपि (दाईं ओर) अधिक सघन, संक्षिप्त और कठिन है।
परिवार की कुछ कतिपय विशिष्ट विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
- भावात्मक आधार (Formative Basis)- परिवार के सभी सदस्य भावनाओं में बंधे हुए हैं। ये संबंध भाई-बहन, पति-पत्नी, पिता-पुत्र, माँ-पुत्री या किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। इस कारण व्यक्तिगत स्वार्थ को प्रश्रय नहीं मिलता है। सभी सदस्यों के सामने पारिवारिक सुख, समृद्धि तथा शक्ति का लक्ष्य रहता है। नि:स्वार्थ स्नेह, प्रेम एवं वात्सल्य केवल परिवार में ही पाया जाता है।
- रचनात्मक प्रभाव (Constructive Influence)- कूले (Cooley) ने परिवार को प्राथमिक समूह कहा है क्योंकि मानव का जन्म तथा विकास परिवार में ही होता है। परिवार द्वारा ही मानव के चरित्र, व्यक्तित्व, सामाजिक व्यवहार के ढंग आदि का निर्माण होता है। परिवार का लक्ष्य सभी सदस्यों को समान लाभ पहुँचाना है। यह व्यक्तित्व के विकास में अपना निर्माणात्मक प्रभाव डालता है तथा समाज के विचारों, विश्वासों एवं मूल्यों का विकास बच्चों में करता है।
- सदस्यों का उत्तरदायित्व (Responsibility of Members)- परिवार में प्रत्येक व्यक्ति की प्रस्थिति तथा भूमिका निश्चित होती है। परिवार के सभी सदस्य अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं और आवश्यकता पड़ने पर बड़े-से-बड़ा त्याग करने से नहीं हिचकते हैं। परिवार एक ऐसा स्थान है जहाँ व्यक्ति निजी स्वार्थ को कोई महत्त्व नहीं देता।
- सीमित आकार (Limited Size)- परिवार छोटा हो या बड़ा इसका आकार सीमित होता है। कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी परिवार का सदस्य नहीं बन सकता है। बर्गेस एवं लॉक (Burgess and Locke) के अनुसार परिवार की सदस्यता जन्म, विवाह तथा गोद लेने से ही मिलती है। इसी कारण परिवार का आकार छोटा होता है।
- सामाजिक नियमन (Social Regulation)- व्यक्ति साधारणत: परिवार की प्रथाओं, रूढ़ियों, मूल्यों, संस्कारों आदि का उल्लंघन नहीं करता। परिवार अपने सदस्यों को समाज के अनुरूप बनाता है। वह उन्हें इस बात के लिये बाध्य करता है कि वे समाज के नियमों को मानें। मनुष्य को व्यवहार, शिक्षा, धर्म, कर्त्तव्य-बोध आदि अनेक सामाजिक तथ्यों का ज्ञान परिवार से ही होता है।
- स्थायी व अस्थायी प्रकृति (Permanent and Texporary Nature)- परिवार समिति भी है और संस्था भी। सदस्यों के आधार पर परिवार एक समिति है व अस्थायी है। नियमों तथा कार्यप्रणालियों के रूप में परिवार एक स्थायी संस्था है।
- अतीत की जानकारी हम कई तरह से प्राप्त कर सकते हैं। इनमें से एक तरीका अतीत में लिखी गई पुस्तकों को ढूँढ़ना और पढ़ना है। ये पुस्तकें हाथ से लिखी होने के कारण पांडुलिपि कही जाती हैं।
- अंग्रेज़ी में ‘पांडुलिपि’ के लिये प्रयुक्त होने वाला ‘मैन्यूस्क्रिप्ट’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘मेनू’ से निकला है, जिसका अर्थ है- हाथ। पांडुलिपियाँ प्रायः ताड़पत्रों अथवा हिमालय क्षेत्र में उगने वाले भूर्ज नामक पेड़ की छाल से विशेष तरीके से तैयार भोजपत्र पर लिखी मिलती हैं।
- प्रायः पांडुलिपियाँ मंदिरों और विहारों से प्राप्त होती हैं। इनमें धार्मिक मान्यताओं व व्यवहारों, राजाओं के जीवन, औषधियों तथा विज्ञान आदि विषयों की चर्चा मिलती है।
- भारत में महाकाव्य, कविताओं तथा नाटकों की भी पांडुलिपियाँ मिलती हैं। इनमें से अधिकतर संस्कृत में लिखी हुई मिलती हैं जबकि कुछ प्राकृत और तमिल में हैं। प्राकृत भाषा का प्रयोग आम लोग करते थे।
- पांडुलिपि वाले ग्रंथों को निर्मित करने के लिये ताड़ के पत्तों को काटकर उनके अलग-अलग हिस्सों को एक साथ बांध दिया जाता था।
- अभिलेख प्राचीन भारत के इतिहास को जानने के लिये एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। ये पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण मिलते हैं।
- कभी-कभी शासक अथवा अन्य लोग अपने आदेशों को अभिलेख के रूप में इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे ताकि लोग उन्हें देख सकें, पढ़ सकें तथा उनका पालन कर सकें।
- पांडुलिपि और अभिलेख के अतिरिक्त अन्य कई वस्तुएँ अतीत में बनीं और प्रयोग में लाई जाती थीं। ऐसी वस्तुओं का अध्ययन करने वाला व्यक्ति पुरातत्त्वविद् कहलाता है। पुरातत्त्वविद् पत्थर और ईंट से बनी इमारतों के अवशेषों, चित्रों तथा मूर्तियों आदि का अध्ययन करता है।
- पुरातत्त्वविद् औज़ारों, हथियारों, बर्तनों, आभूषणों तथा सिक्कों की प्राप्ति के लिये छानबीन और खुदाई भी करते हैं। इनमें से कुछ वस्तुएँ पत्थर, पकी मिट्टी तथा धातु की बनी होती हैं।
- पुरातत्त्वविद् जानवरों, चिड़ियों तथा मछलियों की हड्डियाँ भी ढूँढ़ते हैं। इससे उन्हें यह जानने में भी मदद मिलती है कि अतीत में लोग क्या खाते थे।
- जब हम कुछ लिखते हैं तब हम किसी लिपि का प्रयोग करते हैं। लिपियाँ अक्षरों अथवा संकेतों से बनी होती हैं। जब हम कुछ बोलते अथवा पढ़ते हैं तब हम एक भाषा का प्रयोग करते हैं। वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार से प्राप्त लगभग 2250 वर्ष पुराना अशोक का एक अभिलेख इस क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली यूनानी तथा अरमाइक नामक दो भिन्न लिपियों और भाषाओं में है।
- वर्ष 1817 में स्कॉटलैंड के अर्थशास्त्री और राजनीतिक दार्शनिक जेम्स मिल ने तीन विशाल खंडों में ‘ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ (ब्रिटिश भारत का इतिहास) नामक एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने भारत के इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश, इन तीन कालखंडों में बाँटा था।
- जेम्स मिल द्वारा किया गया यह विभाजन इस विचार पर आधारित था कि शासकों के लिये धर्म ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक परिवर्तन का क्षेत्र है। अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति में कोई भी महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं आता।
- जेम्स मिल को लगता था कि सभी एशियाई समाज सभ्यता के मामले में यूरोप से पीछे हैं। इतिहास की उनकी समझ यह थी कि भारत में अंग्रेज़ों के आने से पहले यहाँ हिंदू और मुसलमान तानाशाहों का ही राज चलता था। यहाँ चारों ओर केवल धार्मिक बैर, जातिगत बंधनों और अंधविश्वासों का ही बोलबाला था।
- मिल की राय में ब्रिटिश शासन भारत को सभ्यता की राह पर ले जा सकता था। इस काम के लिये ज़रूरी था कि भारत में यूरोपीय शिष्टाचार, कला, संस्थानों और कानूनों को लागू किया जाए।
- मिल ने तो यहाँ तक सुझाव दिया था कि अंग्रेज़ों को भारत के सारे भूभाग पर कब्ज़ा कर लेना चाहिये ताकि भारतीय जनता को ज्ञान और सुखी जीवन प्रदान किया जा सके। उनका मानना था कि अंग्रेज़ों की मदद के बिना हिंदुस्तान प्रगति नहीं कर सकता।
- अंग्रेज़ों द्वारा सुझाए गए वर्गीकरण से अलग हटकर अन्य इतिहासकार भारतीय इतिहास को आमतौर पर ‘प्राचीन’, ‘मध्यकालीन’ तथा ‘आधुनिक’ काल में बाँटकर देते हैं। यह संकल्पना पश्चिम से ली गई, जहाँ आधुनिक काल विज्ञान, तर्कणा, लोकतंत्र, स्वतंत्रता और समानता पर आधारित है।
ये वे कार्य हैं जिनका निर्धारण समाज-विशेष की प्रथाओं व मान्यताओं द्वारा होता है। परंपरागत कार्यों को हम निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं-
- सामाजिक कार्य (Social Functions)- परिवार के प्रमुख सामाजिक कार्य अग्रांकित हैं-
- सामाजिक प्रस्थिति प्रदान करना (To Provide Social Status)- परिवार अपने सदस्यों की प्रस्थिति (स्थिति) तथा भूमिकाएँ (कार्य) स्पष्ट करता है। इस प्रकार परिवार सामाजिक संरचना में उनका पद स्पष्ट करने में सहायता प्रदान करता है।
- समाजीकरण (Socialisation)- समाजीकरण में परिवार का योगदान महत्त्वपूर्ण है। परिवार में मानव का जन्म होता है और पूरा जीवन इसी में व्यतीत होता है। इसे बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा गया है। इसी के माध्यम से सामाजिक मूल्यों एवं सांस्कृतिक दुनिया से उसका परिचय कराया जाता है। परिवार मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियों (यथा- लोभ, क्रोध व हिंसा आदि) को नियंत्रित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- सामाजिक नियंत्रण (Social Control)- परिवार अपने सदस्यों को शिशुकाल से ही सामाजिक मान्यताओं के अनुकूल व्यवहार करने के लिये प्रेरित करता है। यह समाजीकरण द्वारा उनका व्यक्तित्व इस प्रकार ढालता है कि वे समाज विरोधी कार्यों से दूर रहें तथा समाज की प्रगति में योगदान दें।
- मनोरंजन (Recreation)- परिवार अनौपचारिक एवं प्राकृतिक मनोरंजन का केंद्र है। परिवार सदस्यों को विविध प्रकार से मनोरंजन के अवसर प्रदान करता है; जैसे- आपस के वार्तालाप से या बच्चों की तोतली बोली से। त्योहार के समय सब इकट्ठे होकर भी मनोरंजन करते हैं। कई बार अकेले दादी के पास बैठकर कहानी सुनकर भी बच्चों का मनोरंजन होता है।
- शैक्षणिक कार्य (Educational Functions)- प्लेटो ने परिवार को जीवन की प्रारंभिक पाठशाला कहा है। यहाँ पर जो पाठ उसे पढ़ाया जाता है वह जीवन भर अमिट रहता है। यह अनौपचारिक शिक्षा का प्रमुख माध्यम है।
- आर्थिक कार्य (Economic Functions)- परिवार निम्नलिखित आर्थिक कार्यों को भी संपादित करता है-
- उत्पादक इकाई (Production Unit)- आदिम तथा कृषि प्रधान समाजों में परिवार एक प्रमुख उत्पादक इकाई है। कुटीर उद्योगों में भी परिवार को एक महत्त्वपूर्ण उत्पादन इकाई माना जाता है।
- श्रम-विभाजन (Division of Labour)- सभी परिवारों में श्रम-विभाजन पाया जाता है। श्रम-विभाजन के दो प्रमुख आधार हैं- (अ) आयु तथा (ब) लिंग। जिस प्रकार प्रत्येक परिवार में बच्चे, युवक व वृद्ध के कार्यों में अंतर मिलता है ठीक उसी प्रकार स्त्री और पुरुष के कार्यों में भिन्नता पाई जाती है।
- उत्तराधिकार की व्यवस्था (System of Inheritance)- परिवार उन नियमों को बनाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वंशानुगत संपत्ति प्राप्त हो सके। यदि यह उत्तराधिकार के नियमों की व्यवस्था न हो तो जिसके पास अधिक अधिकार तथा शक्ति होगी वही सारी संपत्ति को अपने अधिकार में ले लेगा।
- संपत्ति (Property)- प्रत्येक परिवार का अपनी संपत्ति पर नियंत्रण होता है। संपत्ति चाहे चल हो या अचल, उसका सही ढंग से बँटवारा परिवार ही करता है। परिवार ही यह निश्चित करता है कि कौन संपत्ति का स्वामी होगा।
- मनोवैज्ञानिक कार्य (Psychological Functions)- परिवार सदस्यों को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करने का भी प्रमुख माध्यम है। यह निम्नलिखित तीन प्रमुख मनोवैज्ञानिक कार्यों का संपादन भी करता है।
- व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)- परिवार बच्चों की ठीक प्रकार से देख-रेख करके उनमें अहम् का विकास करता है। अहम् उनके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायता प्रदान करता है। बच्चों का व्यक्तित्व परिवार पर निर्भर करता है।
- मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करना (To Provide Psychological Security)- परिवार अपने सदस्यों में पारस्परिक प्रेम एवं सद्भावना का विकास करके उन्हें वात्सल्य प्रदान करता है। परिवार असहाय एवं दिव्यांग बच्चों को भी पूर्ण मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करता है। यह उन्हें कोई कठिन कार्य नहीं सौंपता। हर प्रकार से भी उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाती है।
- मूलभूत मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति (Satisfaction of Basic Psychological Needs)- परिवार अपने सदस्यों की मौलिक मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ (जैसे स्नेह एवं प्रेम इत्यादि) भी पूरी करता है। वास्तव में, व्यक्ति की अधिकांश आवश्यकताएँ परिवार में ही पूरी होती हैं।
- धार्मिक कार्य (Religious Functions)- परिवार धार्मिक कार्यों के संपादन में विशेष स्थान रखता है। प्रत्येक परिवार में किसी-न-किसी धर्म को महत्त्व दिया जाता है। परिवार में ही मानव किसी-न-किसी धर्म को मानता है तथा उसका अनुयायी बनता है। परिवार अपने सदस्यों को धार्मिक विश्वासों, मूल्यों व दृष्टिकोणों से परिचित कराता है। माता-पिता के धार्मिक विचारों एवं दृष्टिकोणों का भी बच्चों के जीवन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ता है।
- सांस्कृतिक कार्य (Cultural Functions)- प्रत्येक समाज की अपनी एक संस्कृति होती है। परिवार संस्कृति के हस्तांतरण का भी प्रमुख माध्यम है। परिवार सांस्कृतिक कार्यों की शिक्षा अपने सदस्यों को देता है। परिवार समाज के रीति-रिवाज़ों, नियमों, परंपराओं व जनरीतियों आदि को सुरक्षित रखता है। परिवार अपनी संस्कृति से संबंधित आदर्शों, प्रथाओं व परंपराओं को बच्चों को सिखाता है।
- राजनीतिक कार्य (Political Functions)- परिवार का राजनीतिक कार्यों के संपादन में भी प्रमुख स्थान है। मजूमदार का कथन है कि कर्त्ता परिवार का वास्तविक शासक होता है। वही सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रित करता है। परिवार जिस प्रकार समाज की सबसे छोटी इकाई है, उसी प्रकार वह राज्य की भी सबसे छोटी इकाई है। इसलिये परिवार को कभी-कभी लघु राज्य की संज्ञा दी जाती है। परिवार मनुष्य में उन गुणों का विकास करता है, जिससे वह राजनीतिक जीवन में भी सफल हो सके। अच्छे नागरिक के लिये अनुशासन, समानता एवं मित्रता आदि के भावों को जानना अत्यंत आवश्यक है। इन महत्त्वपूर्ण गुणों का विकास परिवार में ही होता है।
यद्यपि विभिन्न समाजों में परिवार की प्रकृति एवं स्वरूप में भिन्नता पाई जाती है, परंतु निम्नलिखित कतिपय प्रमुख विशेषताएँ प्रत्येक प्रकार के परिवार में पाई जाती हैं-
परिवार की सामान्य विशेषताएँ अग्रांकित हैं-
- सार्वभौमिकता (Universality)- परिवार एक ऐसा समूह है जो सभी समाजों एवं सभी युगों में पाया जाता है। आज भी समाज चाहे सभ्य हो, चाहे आदिम, परिवार किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही पाया जाता है। मरडॉक (Murdock) ने पूरे विश्व में 250 जनजातीय समाजों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया है कि परिवार विश्वव्यापी सामाजिक व्यवस्था है।
- वैवाहिक संबंध (Marital Relationships)- परिवार का उद्भव स्त्री-पुरुष के वैवाहिक संबंधों से होता है। अत: विवाह परिवार के निर्माण का प्रथम आधार है। मरडॉक ने विवाह द्वारा यौन व्यवहार पर नियंत्रण एवं प्रजनन को परिवार का मौलिक कार्य माना है।
- विभिन्न स्वरूप (Different Forms)- परिवार का स्वरूप एक विवाह, बहुपति विवाह, बहुपत्नी विवाह या समूह विवाह के रूप में संभव है। यह भिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न होता है।
- वंश नाम या नामावली की व्यवस्था (System of Nomenclature)- प्रत्येक परिवार में वंश नाम की एक व्यवस्था पाई जाती है। वंश नाम मातृवंशीय अथवा पितृवंशीय हो सकता है।
- सामान्य निवास (Common Residence)- सामान्यत: परिवार का एक निश्चित निवास अथवा घर होता है अर्थात् परिवार के सदस्य एक साथ निवास करते हैं।
- सामाजिक संरचना में केंद्रीय स्थिति (Social Regulation)- समाज की संरचना परिवार पर ही निर्भर है। इसका कारण यह है कि परिवार ही नए सदस्यों के जन्म तथा उन्हें समाज के अनुसार सामाजिक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मानव किस सीमा तक समाज के ढंग, मान्यताओं या कार्यप्रणाली को अपनाएगा यह सभी परिवार पर ही निर्भर करता है।
- किसी भी व्यक्ति के लिये घर के भीतर और बाहर पर्यावरण की गुणवत्ता बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है। फिर भी, शिशुओं और बच्चों के लिये घर के भीतर का पर्यावरण अधिक संवेदनशील होता है, क्योंकि घर के बाहरी पर्यावरण में प्रवेश करने से बहुत पहले ही वे इस पर्यावरण में पले-बढ़े हुए होते हैं। अत: घर का पर्यावरण बच्चे की विकासमान स्थितियों से सीधे ही जुड़ा हुआ होता है। घर का अनुकूल पर्यावरण सीखने के बेहतर अनुभवों और प्रेरणा को प्रोत्साहित करता है जो बच्चे के विकास में योगदान प्रदान करता है।
- बच्चे को सीमा से अधिक उत्तेजक न होने दें। जब बच्चा रोता है या देखता हो तो बच्चे के संकेतों के प्रति संवेदनशील बनें। समझ लें कि बच्चा उस विशेष क्रियाकलाप का आनंद नहीं ले पा रहा है या उसके मन में उस खेल के प्रति अब कोई दिलचस्पी नहीं रही है।
- बच्चे की आयु और योग्यता के अनुसार खिलौनों का चयन सुनिश्चित कर लें। उदाहरण- बच्चे को यदि बड़े के लिये डिज़ाइन किये गए खिलौने प्रदान करेंगे तो वह चुनौती स्वीकार करने के स्थान पर असहाय महसूस करेगा।
- अपने बच्चे के खेल का मूल्यांकन करें। यह समझ लें कि यह बच्चे के सीखने का एक साधन है और परिचय प्राप्त कर रहा है।
- बच्चे को विविध प्रकार के खिलौने दें।
- बच्चों के लिये ऐसे ही खिलौने प्रदान करें जो उनकी कल्पनाशक्ति में सुधार करेंगे। उदाहरण- गुड़िया को नहलाने या खिलाने-पिलाने का स्वांग रचें।
- बच्चे के खेल के प्रति प्रोत्साहन देने की प्रतिक्रिया जताएँ। इससे बच्चे को अपने खेल पर गर्व करने में मदद मिलेगी तथा उसे और अधिक खेलने की प्रेरणा प्राप्त होगी।
- खेल बच्चों के बौद्धिक, सामाजिक, भावनात्मक, शारीरिक और सृजनात्मकता के विकास को प्रोत्साहन प्रदान करेगा। जब बच्चे खेल के ज़रिये अपने आस-पास के वातावरण की छानबीन करते हैं, ये बच्चों के केंद्रीय स्नायु प्रणाली के स्तरों को अधिकतम उत्थान कर उसे बनाए रखने में मदद करते हैं। चूँकि बहुत बच्चे नैसर्गिक रूप से खेल के द्वारा ही सीखते हैं, अत: ऐसा पर्यावरण जो अवसरों से भरा पड़ा हो वह उनमें सक्षमताओं का निर्माण करने में मदद करेगा।
- यह पर्यावरण भौतिक पर्यावरण भी हो सकता है जिसमें खिलौने, फर्नीचर आदि शामिल हैं; भावात्मक पर्यावरण वह है जिसमें प्यार, अपनत्व और खुशी आदि शामिल हैं; सामाजिक पर्यावरण वह है जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी आदि शामिल हैं। ये पर्यावरण बच्चे के खेल के अनुभवों पर सीधे या प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं, इसलिये खेल के अनुभवों को समृद्धता प्रदान करने के द्वारा यह प्रेरक पर्यावरण सीखने का वर्द्धन करेगा। परंतु यदि खेल क्रियाकलाप बहुत ही अधिक आसान हो तो बहुत जल्दी ही असहनीय हो जाता है; यदि यह बहुत अधिक कठिन हो तो बहुत जल्दी ही यह कुंठित करने वाला हो जाता है। यदि माता-पिता इसे देखने के लिये समय निकालें, तो बच्चे आमतौर से उन्हें यह बताएंगे कि वे कौन-से क्रियाकलाप हैं, जिन्हें वे दिलचस्पी भरे और समुचित रूप से चुनौतीपूर्ण पाते हैं। उचित प्रेरणा के अभाव वाले पर्यावरण व्यक्ति के भीतर ऊब/उकताहट पैदा कर देते हैं जबकि पर्यावरण से सीमा से अधिक प्रेरणा प्राप्त होती है जो अनिश्चितता और अव्यवस्था पैदा कर देती है।
- खेल का पर्यावरण बच्चों में आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्म गौरव को विकसित करना चाहिये और इसके साथ-साथ उनकी दुनिया के पक्षों पर अधिकार पाने में उनकी मदद करे।
बच्चों के खेल के साथी अधिकांशत: उनके परिवार के सदस्य ही होते हैं। बच्चे अपने देखभालकर्त्ताओं/प्रौढ़ों के साथ खेल का आनंद उठाते हैं और पकाने या बागबानी करने जैसे क्रियाकलापों की नकल करते रहते हैं। परिवार के सदस्यगण ही बच्चों का पहला पर्यावरण तथा उनके प्रारंभिक विकास वर्षों के दौरान अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होते हैं। बच्चों की निम्नलिखित तीन खेल अवस्थाएं होती हैं- एकाकी खेल, समांतर खेल तथा सहचारी/सामूहिक खेल
- एकाकी खेल- एकाकी खेल से तात्पर्य है ऐसा खेल जिसमें पहले छोटे बच्चे ही लगे रहते हैं। यह सबसे कम परिपक्व खेल का प्रकार है। जैसे कि नाम से ही पता चलता है, इस अवस्था में बच्चे अपने आप से ही खेलते हैं। जैसे- क्रियाओं को दोहराना, वस्तुओं का उठाना, फिर नीचे रखना, बर्तनों को फेंकना या उनमें पानी भरना।
- समानांतर खेल- यह खेल चित्ताकर्षक आभास है समानांतर खेल में अक्सर दो ही बच्चे लगे रहते हैं जो आपस में एक-दूसरे के साथ ही खेलते हैं। दो वर्ष की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते बच्चे समानांतर खेल की अवस्था में पहुँच जाते हैं। जब कोई यह देखने का प्रयास करता है कि वहाँ क्या हो रहा है, तब उसे पता चलता है कि वहाँ हर बच्चा भिन्न खेल खेल रहा है। बच्चे एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के स्थान पर अपने आप से ही बात करते पाए जाएंगे।
- समानांतर खेल के दौरान के क्रियाकलाप-
- आरंभ में बच्चा दूसरे बच्चों के पास खेलता है और केवल खेल की वस्तुओं या सामग्रियों को उलट-पलट करता है।
- बाद में अन्य बच्चों के पास उन्हीं सामग्रियों से खेलता है, परंतु भिन्न खेल खेल रहा होता है।
- अंत में नाटकीय या काल्पनिक खेल में शामिल होकर एक से अधिक बच्चों के साथ खेलता है, परंतु हर बच्चा अपना स्वतंत्र खेल खेलता है।
- समानांतर खेल से बच्चा अति परिपक्व किस्म के खेल यानी सामूहिक/ सहचारी खेल में भाग लेने लगता है।
- सहचारी खेल- सहचारी/सामूहिक खेल बच्चों के समूह को किसी चीज़ के निर्माण, सृजन करने या काल्पनिक नाटक में स्वैच्छिक भूमिकाएँ, जैसे डॉक्टर/शिक्षक आदि निभाने के लिये एक जगह लाता है। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती है यह आवश्यक हो जाता है कि बच्चे खेल की इन अवस्थाओं से गुज़रें। सहचारी/सामूहिक खेल न केवल बच्चों के समाजीकरण (एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने) में मदद करता है बल्कि बुद्धि, मनोभावनाओं व भाषा आदि जैसे अन्य क्षेत्रों में बच्चों के विकास के लिये भी ज़िम्मेदार होता है।
- सहचारी/सामूहिक खेल के दौरान के क्रियाकलाप-
- आपस में एक-दूसरे के साथ मिलकर बच्चे सामूहिक खेल खेलते हैं और अन्य बच्चों के साथ सहभागी बनते हैं।
- मौज और प्रतीकात्मक खेल।
- सृजनात्मक खेल।
- सर्वज्ञात है कि भारतवासी अपने देश के लिये प्रायः ‘इंडिया’ तथा ‘भारत’ नाम का प्रयोग करते हैं। इंडिया शब्द ‘इंडस’ से निकला है जिसे संस्कृत में सिंधु कहा जाता है।
- लगभग 2500 वर्ष पूर्व भारत की उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर से आने वाले ईरानियों और यूनानियों ने सिंधु को हिंदोस अथवा इंदोस और इस नदी के पूर्व में स्थित भूमि प्रदेश को इंडिया कहा।
- ‘भरत’ नाम का प्रयोग उत्तर-पश्चिम में रहने वाले लोगों के एक समूह (कबीला) के लिये किया जाता था। इस समूह का उल्लेख संस्कृत की आरंभिक (लगभग 3500 वर्ष पुरानी) कृति ऋग्वेद में भी मिलता है। बाद में ‘भरत’ का प्रयोग भारत देश के लिये किया जाने लगा।
- वर्तमान में ‘हिंदुस्तान’ शब्द का प्रयोग आधुनिक राष्ट्र राज्य ‘भारत’ के लिये होता है। तेरहवीं सदी में जब फारसी के इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज ने हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग किया था तो उसका आशय पंजाब, हरियाणा और गंगा-यमुना के बीच में स्थित इलाकों से था।
- मिन्हाज-उस-सिराज ने हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग राजनीतिक अर्थ में उन इलाकों के लिये किया जो दिल्ली के सुल्तान के अधिकार क्षेत्र में आते थे। सल्तनत के प्रसार के साथ-साथ इस शब्द के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र भी बढ़ते गए, लेकिन हिंदुस्तान शब्द में दक्षिण भारत का समावेशन नहीं हो पाया।
- सोलहवीं सदी के आरंभ में बाबर ने ‘हिंदुस्तान’ शब्द का प्रयोग भारतीय उपमहाद्वीप के भूगोल, पशु-पक्षियों और यहाँ के निवासियों की संस्कृति का वर्णन करने के लिये किया।
- बाबर द्वारा किया गया यह प्रयोग चौदहवीं सदी के कवि अमीर खुसरो द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘हिंद’ के ही कुछ-कुछ समान था। मगर जहाँ ‘भारत’ को एक भौगोलिक और सांस्कृतिक तत्त्व के रूप में पहचाना जा रहा था वहाँ हिंदुस्तान शब्द से वे राजनीतिक और राष्ट्रीय अर्थ नहीं जुड़े थे, जो हम आज जोड़ते हैं।
परिवार की एक संक्षिप्त, स्पष्ट व समस्त विशेषताओं को सम्मिलित करने वाली परिभाषा देना अत्यंत कठिन है। कुछ विद्वानों ने परिवार को एक समूह के रूप में, कुछ ने एक समिति के रूप में, कुछ ने एक संस्था के रूप में तथा कुछ अन्य विचारकों ने इसे सामाजिक इकाई के रूप में परिभाषित किया है। प्रमुख विद्वानों ने परिवार को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया है-
- बर्गेस एवं लॉक (Burgess and Locke) के अनुसार, ‘‘परिवार व्यक्तियों का एक समूह है जो विवाह, रक्त एवं गोद लेने वाले संबंधों से जुड़े होते हैं, जो एक गृहस्थी का निर्माण करते हैं, जो पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री तथा भाई-बहन के रूप में अपनी-अपनी सामाजिक भूमिकाओं को निभाते हुए एक-दूसरे से अंत:संचार तथा अंतर्क्रिया करते रहते हैं तथा एक सामान्य संस्कृति का निर्माण करते हैं।’’
- ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार, ‘‘परिवार पति और पत्नी की संतान रहित या संतान सहित या केवल पुरुष या स्त्री की बच्चों सहित, कम या अधिक स्थायी समिति है।’’
- मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, ‘‘परिवार पर्याप्त निश्चित एवं टिकाऊ यौन संबंध द्वारा परिभाषित एक समूह है, जो प्रजनन (बच्चों के जन्म) तथा बच्चों के पालन-पोषण की व्यवस्था करने की क्षमता रखता है।’’
- इलियट एवं मैरिल (Elliott and Merrill) के अनुसार, ‘‘परिवार को पति-पत्नी तथा बच्चों की एक जैविक सामाजिक इकाई के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। परिवार एक सामाजिक संस्था भी है और समाज द्वारा मान्य एक ऐसा संगठन भी है जिसके द्वारा कुछ मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।’’
परिवार की विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि परिवार को एक ऐसे समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके सदस्य विवाह, रक्त या विधिवत गोद लिये जाने के द्वारा मान्य संबंधों के परिणामस्वरूप परस्पर जुड़े होते हैं। उनमें परस्पर स्नेह, सहानुभूति, सेवा और त्याग की भावना पाई जाती है। वस्तुत: परिवार को तीन परिप्रेक्ष्यों द्वारा देखा गया है-
- संरचनावादी (Structuralist) विद्वान परिवार को ऐसे संबंधों की संरचना के रूप में देखते हैं जिसमें अंतर्संबंधित प्रस्थितियों व भूमिकाओं तथा सदस्यों के बीच सुव्यवस्थित अधिकारों व उत्तरदायित्वों की व्यवस्था पाई जाती है।
- प्रकार्यवादी (Functionalist) परिवार को एक ऐसी इकाई मानते हैं जिसके सदस्यों में प्रकार्यात्मक संबंध पाए जाते हैं तथा यह देखने का प्रयास करते हैं कि परिवार संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में क्या योगदान देता है।
- अंतर्क्रियावादी (Interactionist) परिवार को सदस्यों के बीच पाई जाने वाली परस्पर अर्थपूर्ण अंतर्क्रिया की व्यवस्था के रूप में देखते हैं तथा परिवार की संरचना एवं भूमिकाओं की विविधताओं को समझने का प्रयास करते हैं।
- समाज में व्यवस्था एवं मर्यादा बनाए रखने के लिये कुछ व्यवहारों को आवश्यक व्यवहार के रूप में सामाजिक मान्यता एवं स्वीकृति प्राप्त होती है, हँसी-मज़ाक का संबंध भी इसी प्रकार का एक मान्यता प्राप्त व्यवहार है। हँसी-मज़ाक के संबंध में दो संबंधियों के बीच एक प्रकार की समानता एवं पारस्परिकता का संबंध होता है। उदाहरण के लिये, एक पुरुष का अपनी पत्नी की छोटी बहन (जीजा-साली) एवं एक स्त्री का अपने पति के छोटे भाई के साथ के संबंध (भाभी-देवर) को हँसी-मज़ाक का संबंध कहा जाता है। कुछ कृषक जातियों में पति की असामयिक मृत्यु के बाद भाभी का देवर से विवाह उत्तर भारत में देखा गया है। पत्नी की असामयिक मृत्यु के बाद जीजा-साली का विवाह तो उससे भी ज़्यादा लोकप्रिय प्रथा है।
- अन्य प्रकार के हँसी-मज़ाक के संबंध भी महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिये, कुछ समुदायों में दादा-दादी के साथ और नाना-नानी के साथ भी बच्चों का हँसी-मज़ाक का संबंध होता है। यहाँ हँसी-मज़ाक के संबंध अनौपचारिकता, आत्मीयता एवं असीमित स्वतंत्रता के माहौल में बच्चों के विकास में मदद करते हैं।
- हँसी-मज़ाक के संबंध में एक प्रकार के निषेध का संबंध भी नातेदारी के बीच पाया जाता है। उदाहरण के लिये, एक स्त्री का अपने पति के बड़े भाई या पिता से निषेध का संबंध होता है। पति के पिता को श्वसुर (ससुर) एवं पति के बड़े भाई को जेठ या भसुर कहा जाता है।
- भारत के कई ग्रामीण समुदायों में टेकनोनामी (Teknonymy) की प्रथा काफी लोकप्रिय है। यह बच्चों के नाम के आधार पर माता-पिता के नामकरण की प्रथा है, जैसे- श्याम की माँ (या राधा के पिताजी) इस प्रथा का एक निहितार्थ यह है कि कई समुदायों में एक स्त्री अपने ससुराल में अपनी पहली संतान के बाद ही पूर्ण सदस्य बन पाती है। फलस्वरूप उसकी पहचान में (प्रथम) संतान का नाम जुड़ना स्वाभाविक बन जाता है।
वंश या नामावली के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family on the Basis of Nomenclature)
वंश के आधार पर परिवार दो प्रकार के होते हैं-
- मातृवंशीय परिवार- इसके अंतर्गत वंश का नाम माता के नाम से चलता है। इसमें वंश परंपराएँ, उत्तराधिकार के नियम आदि भी माता के नाम से ही चलते हैं। संपत्ति पर अधिकार माता के पश्चात पुत्री को प्राप्त होता है।
- पितृवंशीय परिवार- इस प्रकार के परिवार में पुरुषों की प्रधानता होती है। वंश का नाम पिता के नाम से चलता है। उत्तराधिकार के नियम एवं वंश परंपराएँ भी पिता के नाम से चलती हैं। संपत्ति का हस्तांतरण पिता से पुत्र को होता है।
सदस्यों की संख्या और संरचना के आधार पर परिवार के प्रकार (Types of Family on the Basis of Number of Members and Structure)
सदस्यों की संख्या तथा परिवार की संरचना के आधार पर परिवार को निम्नलिखित दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
- केंद्रीय या एकाकी परिवार (Nuclear Family)- इस प्रकार के परिवार में सदस्यों की संख्या कम होती है। परिवार के सदस्यों में पति-पत्नी तथा उनकी अविवाहित संतानें ही होती हैं। मरडॉक के अनुसार, ‘एकाकी परिवार’ विवाहित पुरुष तथा स्त्री व उनकी संतानों से बनता है, यद्यपि कुछ व्यक्तिगत स्वरूपों में इसमें एक या अधिक व्यक्ति रह सकते हैं। अमेरिका और यूरोप में इस प्रकार के परिवारों का बहुत अधिक प्रचलन है।
- संयुक्त परिवार (Joint Family)- संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है (माता-पिता, छोटे भाई, दादा-दादी, चाचा-चाची एवं उनका परिवार) जो एक ही छत के नीचे रहते हैं तथा एक ही रसोई में पका भोजन करते हैं। वे सामान्य संपत्ति के अधिकारी होते हैं, सामान्य पूजा में भाग लेते हैं तथा परस्पर एक-दूसरे से विशिष्ट नातेदारी से संबंधित होते हैं। इस प्रकार के परिवार में अधिकतर सदस्य एक साथ रहते हैं। इस कारण परिवार का आकार बड़ा हो जाता है। आई.पी. देसाई (I.P. Desai) के अनुसार, ‘‘हम उस परिवार को संयुक्त परिवार कहते हैं जिसमें एकाकी परिवार की अपेक्षा अधिक पीढ़ियों (तीन या उससे अधिक) के सदस्य सम्मिलित होते हैं और जो एक-दूसरे से संपत्ति, आय एवं परस्पर अधिकारों तथा कर्त्तव्यों द्वारा बंधे होते हैं।’’ संयुक्त परिवार को विस्तृत परिवार की संज्ञा भी दी जाती है। विस्तृत परिवार पीढ़ियों एवं सदस्यों की संख्या की दृष्टि से संयुक्त परिवार से बड़े होते हैं।
खेल अनुभव-
- छोटे बच्चों के ध्यानाकर्षण की अवधि बहुत कम होती है यानी वे अधिक समय तक किसी वस्तु पर ध्यान टिका नहीं सकते।
- इसलिये माता-पिता द्वारा सरल, दोहराया जाने वाला और संवेदनशील खेल एवं समुचित प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करना सर्वोत्तम है, क्योंकि वे ध्यानाकर्षण को लंबी अवधि वाला और गुणात्मक बनाने में सुधार कर सकते हैं। शिशुओं को नए पर्यावरण पर नियंत्रण पाने की ज़रूरत होती है। खेल के अनुभव इन चीज़ों के घटक द्वारा बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं। इससे बच्चों में आत्मविश्वास और विश्वास का मज़बूत आधार बनेगा। जब बच्चे के हाथों से गेंद छूटकर गिर जाती है या वह चींचीं करने वाले खिलौने को दबाता है तो क्या होता है उसकी अपेक्षा करना वह सीखता है। बच्चों को माँ-बाप द्वारा किसी चीज़ को बार-बार कराने में खुशी हासिल होती है, जैसे उसके हाथ से छूटे खिलौने को वे बार-बार उठाकर देते हैं।
- जब बच्चे एक वर्ष की आयु पार कर लेते हैं तो वे अपने आस-पास की हर चीज़ की छानबीन करते हैं। वे हर चीज़ का कौतूहल या जिज्ञासा के साथ अन्वेषण करते हैं और लगातार यह जानने का प्रयास करते हैं कि खिलौना कैसे बना है और उसे फेंकने से क्या होता है।
- यद्यपि बच्चों को पर्यवेक्षण की अत्यंत ज़रूरत होती है, फिर भी उन्हें खुशी के साथ अकेले ही खेलने की आवश्यकता भी होती है।
सीखने में सहायता-
- सर्वविदित है कि शिशुओं को अत्यंत गहरे यानी संपूर्ण व निरंतर पर्यवेक्षण की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, जब बच्चे और माता-पिता अपने घरेलू कामों में जुटे होते हैं तो बच्चे परिवार को अपना अर्थपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं और इससे उनमें उद्देश्य की भावना जाग्रत होकर वे अपने आप को परिवार का एक बहुत बड़ा हिस्सा समझने लगते हैं। बच्चे स्व-अनुसंधान की कठिन प्रक्रिया में लग जाते हैं और देखने, सुनने, चबाने, सूंघने व आत्मसात करने आदि के द्वारा अपनी नई दुनिया के साथ अपना संपर्क बनाते रहते हैं।
- बच्चों के सीखने की बड़ी मात्रा खेल के ज़रिये ही प्राप्त होती है। ज्ञात हो कि खेल केवल तमाशा या मनोरंजन नहीं है अपितु बच्चों का खेल उनके दिमाग में हो रही प्रतिक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करता है। अपने मधुर और कटु अनुभवों की पुनरावृत्ति के लिये वे खेल का उपयोग करते हैं और कार्यों को करने के लिये विभिन्न मार्गों का उपयोग करते हैं। खेल उन्हें वस्तुओं, घटनाओं और उनकी अपनी जानकारियों को सुधारने में मदद देता है।
- शिशु अपने जीवन की किसी भी अवधि की अपेक्षा अपने जीवन के प्रथम वर्ष के दौरान बहुत शीघ्रता से सीखते हैं। हर खेल का क्रियाकलाप चाहे जितना भी सरल हो विकास की पेचीदा कड़ी में संपर्क स्थापित करता है। वह चाहे श्रवण के कौशलों के लिये आवाज़ करने वाला खिलौना हो या स्पर्श ज्ञान (छूने का ज्ञान) के लिये रूआँमय वस्तु या दृष्टि के लिये चलता-फिरता खिलौना। खिलौने सीखने के लिये बच्चों के आवश्यक साधन होते हैं। खेल, जिसमें छाती से लगाने, गुदगुदाने या गोद में लेकर डुलाने जैसी क्रियाएँ होती हैं, बच्चों को अपने आप के बारे में तथा अन्य लोगों के बारे में सीखने में मदद देता है।
- खेल के लिये बच्चे के मन को आकर्षित बनाना-
- बच्चे को हल्का महसूस करने दें।
- बच्चे के लिये गाएँ : लोरी सुनाना।
- शिशु को डुलाएँ।
- शारीरिक विकास के प्रोत्साहन के लिये-
- आयु के अनुसार शारीरिक क्रियाकलापों के लिये प्रोत्साहित करें।
- हाथों और पैरों के उपयोग के लिये बहुत सारे खिलौने दें।
- बच्चे के साथ चेष्टा वाले खेल खेलें।
- बच्चे को उछलने के लिये प्रोत्साहित कीजिये।
- बच्चे को तिपहिया साइकिल चलाने में मदद दें।
- घसीटने के क्रियाकलाप करवाएँ।
- वाणी और भाषा विकास के लिये प्रोत्साहित करना-
- बच्चे से बातचीत करें।
- शिशु से स्पष्ट व साफ आवाज़ में बातचीत करें।
- शिशु को नाम लेकर बुलाएँ।
- वस्तुएँ और चित्र दिखाएँ।
- क्रियाकलापों को व्यक्त करते हुए बच्चे से बातचीत करें।
- बच्चे को तुकांत शब्द/बातें बोलने दें।
- बच्चे के सामने कहानियाँ पढ़ें।
- संज्ञानात्मक विकास के लिये प्रोत्साहन-
- अपने आस-पास के खिलौनों, चीज़ों से खेलने के अवसर दें।
- अन्वेषण और व्यावहारिक किस्मों के खिलौने एवं वस्तुएँ दें, जैसे- पहेलिया, नेस्टिंग के खिलौने, आगे-पीछे ढकने के खिलौने दें।
- विभिन्न संकल्पनाओं के बारे में बच्चे को सिखाएँ- जैसे आकार, आकृति और रंग।
- सामाजिक विकास के लिये प्रोत्साहन-
- बच्चे से बातचीत करें।
- बच्चे को भिन्न-भिन्न स्थानों पर ले जाएँ।
- बच्चे को अन्यों के साथ घुलने-मिलने की प्रेरणा दें।
- उन्हें अभिवादन आदि के समुचित संकेत सिखाएँ।
- बच्चे को सरल आदेशों का पालन करने में मदद दें।
- प्रेरणात्मक वातावरण प्रदान करना-
- खेल के मौके पैदा करें।
- खेल के क्रियाकलाप शुरू करने के लिये बच्चे को प्रोत्साहित करें।
- क्रियाकलापों में विविधताएँ लाएँ।
- खेल में सफल प्रयासों के लिये बच्चे को सराहें।
- पर्यावरण/आसपास के वातावरण को सुरक्षित बनाएँ। यद्यपि शिशु और बच्चे एक ही प्रकार की सामान्य सामग्रियों से खेलते हैं, फिर भी जिस ढंग से वे खेलते हैं शिशुत्व और बचपन व लड़कपन में विविधता होती है।
- खेल के अवसर प्रदान करने के लिये प्रेरणात्मक वातावरण प्रदान करना भी आवश्यक है।
परिवार के कार्यों की विवेचना निम्नलिखित दो श्रेणियों में की जा सकती है- मौलिक एवं परंपरागत कार्य।
मौलिक एवं सार्वभौमिक कार्य (Basic and Universal Functions)- मौलिक कार्य विश्व के सभी देशों के परिवारों में पाए जाते हैं। इन्हें प्रत्येक परिवार के प्राणिशास्त्रीय कार्य (Biological Function) भी कह सकते हैं। ये कार्य निम्नांकित हैं-
- यौन इच्छाओं की पूर्ति का कार्य (Function of Satisfying Sexual Needs)- परिवार विवाह प्रथा के माध्यम से स्त्री व पुरुष को पत्नी व पति के रूप में यौन संबंध स्थापित करने का अवसर प्रदान करता है। इस प्रकार यह उनकी प्राणिशास्त्रीय आवश्यकता (यौन संतुष्टि) की पूर्ति करने में सहायता देता है। यदि कोई व्यक्ति विवाह न कर ऐसे संबंध स्थापित करता है तो ऐसा करना उचित नहीं समझा जाता है। विवाह के द्वारा ही समाज स्त्री-पुरुष के यौन-संबंधों को सामाजिक स्वीकृति प्रदान करता है।
- संतानोत्पत्ति (Reproduction)- समाज की निरंतरता के लिये यह आवश्यक है कि समाज में नए सदस्यों का जन्म हो। इस महत्त्वपूर्ण कार्य को परिवार संतानोत्पत्ति द्वारा करता है।
- सुरक्षा (Safety)- मनुष्य समस्त जीवधारियों में एक ऐसा प्राणी है जिसे जन्म से लेकर काफी वर्षों तक दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है। यदि उसे यह सहायता न मिले तो वह समाप्त हो जाएगा। यह सहायता परिवार अपने सदस्यों को सुरक्षा के रूप में देता है। परिवार निश्चित आयु तक उनका भरण-पोषण करके उन्हें इस योग्य बनाता है कि वे भौगोलिक तथा सामाजिक पर्यावरण में रह सकें। सुरक्षा की प्रकृति मात्र प्राणिशास्त्रीय ही नहीं अपितु मानसिक भी होती है।
बाल विकास के क्षेत्र को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है-
- बाल विकास के अंतर्गत बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं (गर्भकालीन अवस्था से किशोरावस्था तक) का अध्ययन शामिल होता है।
- इसके अंतर्गत विकास के विभिन्न पहलुओं (शारीरिक विकास से लेकर व्यक्तित्व विकास तक) का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया जाता है।
- बाल विकास के अंतर्गत बालकों के जीवन-विकासक्रम में होने वाली असामान्यताओं और विकृतियों का अध्ययन किया जाता है।
- इसके अंतर्गत मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन किया जाता है। मनोचिकित्सा बाल विकास एवं बाल मनोविज्ञान की ही देन है।
- इसके अंतर्गत बालकों की विभिन्न अंत:क्रियाओं का अध्ययन कर यह जानने का प्रयत्न किया जाता है कि इन क्रियाओं से बालकों के व्यवहार में क्या परिवर्तन होते हैं।
- बाल विकास के अंतर्गत बालकों की रुचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान किया जाता है।
- इसके अंतर्गत अधिगम, कल्पना, चिंतन, तर्क, स्मृति तथा प्रत्यक्षीकरण जैसी विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
- बाल विकास के अंतर्गत बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है।
- इसके अंतर्गत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्याताओं का मापन व मूल्यांकन किया जाता है।
- बाल विकास के अंतर्गत बालक-अभिभावक संबंधों का अध्ययन किया जाता है। माता-पिता का बालकों के व्यक्तित्व-निर्धारण और समुचित विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
- जिन बालकों के संबंध अपने माता-पिता के साथ अच्छे नहीं होते हैं वे कुसमायोजित और अपराधी प्रवृत्ति के हो जाते हैं।
- बाल विकास के अध्ययन से माता-पिता तथा बालकों के बीच अच्छे संबंध विकसित करने का प्रयास किया जाता है।
- खेल ही ऐसा प्राथमिक मार्ग है जिसके द्वारा बच्चे सीखते हैं। खेल के द्वारा बच्चे अपने शरीर, अपने माता-पिता और अपने समकक्ष व्यक्तियों तथा अपने चारों ओर की दुनिया के साथ अपने संबंधों की छानबीन करते हैं। जो बच्चा अपने हाथों से किसी लकड़ी के टुकड़े को बार-बार गिराता है, तो वह न केवल उसके साथ खेल रहा होता है बल्कि उसके साथ प्रयोग करते हुए उसका विवेचन करने का प्रयास कर रहा होता है। नीचे गिरे हुए कुंदे का क्या होगा?
- क्या वह गायब हो जाएगा या वहीं रहेगा? क्या मेरी माँ उस कुंदे को उठा लेगी? क्या मेरी माँ इसे देख मुस्कराएगी या नाराज़ होगी जैसे विचार उसके मन में उठते रहते हैं।
- बच्चे को, अपने खेल के साथियों के साथ बातचीत करने के अतिरिक्त उसे छानबीन करने में प्रोत्साहन और अपने संबंधों को विकसित करने का अवसर मिलेगा। खेल बच्चों की बोलने की शक्ति के साथ-साथ सोचने के कौशलों को भी विकसित करता है। बच्चों के मौज-मस्ती के खेल उन्हें नई संभावनाओं और उनके द्वारा देखी गई उनकी अपनी आदर्श भूमिकाओं का अनुसंधान करने में मदद करते हैं, उदाहरणस्वरूप- किसी गुड़िया की निगरानी करना जैसे कि वह कोई जीता-जागता शिशु हो। यदि माता-पिता अपने बच्चे के खेल में सक्रिय भूमिका निभाएँ तो इससे वे बच्चे के आत्माभिमान का निर्माण करते हैं।
- जब माता-पिता बच्चे के चहकने के प्रति समान प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, तो बच्चा यह सीख लेता है कि वह जो कुछ कर रहा वह दिलचस्प है और इससे उसके आस-पास फैली दुनिया का मनोरंजन हो रहा है। तात्पर्य यह कि बच्चे की चेष्टाओं के प्रति यदि माता-पिता या देखभाल करने वाले सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हों तो इससे बच्चों में और अधिक उच्चतर आत्माभिमान जाग्रत होगा। सामान्य बच्चों में खेल के प्रति जो समझ है वह खेल को समझने में ऐसे बच्चों की सहायता करेगी जो शारीरिक, दृष्टि, श्रवण या संज्ञानात्मक क्षेत्र की समस्या से ग्रस्त बच्चों के अपेक्षानुसार विकसित न होने के कारणों को समझने में सहायक होगी।
खेल की विशेषताएँ (Characteristics of Play)
- खेल बच्चों का प्राकृतिक क्रियाकलाप है।
- खेल वह स्वाभाविक आचरण है जो बच्चों को भावी पीढ़ियों के आचरणों का अभ्यास करने का अवसर देता है।
- खेल वह बहुसंवेदनीय अनुभूति है जिससे देखने, सुनने और छूने के साथ-साथ पेचीदा क्रियाकलापों या गतिविधियों को करने की अनुभूतियाँ जुड़ी होती हैं।
- खेल बच्चों के स्व-अभिव्यक्त करने का नैसर्गिक माध्यम है।
- खेल आपसी संबंधों को बनाने में सहायता देता है।
- खेल बच्चों को अपने भीतर दबे मनोभावों को उजागर करने में मदद करता है।
- खेल पर्यावरण पर नियंत्रण करने में सहायता देता है।
- खेल सीखने की प्रक्रिया के रूप में सेवा प्रदान करता है।
- खेल शरीर को हल्का करने व आराम पहुँचाने का माध्यम है।
बच्चे के कार्यों में उसका सहयोग करने वाला अथवा उसके साथ खेलने वाला बच्चा उसका मित्र कहलाता है। यह आवश्यक नहीं कि समुदाय के सभी बच्चों के साथ उसके संबंध अच्छे हों। जिन बच्चों के साथ उसका संबंध अच्छा होता है एवं जिनके साथ वह रहना, कार्य करना एवं खेलना पसंद करता है उन्हें हम उसका मित्र (Friend) कहते हैं।
- मित्रता एक ऐसा रिश्ता है जो अन्य रिश्तों की भाँति थोपा नहीं जा सकता। अपनी सुविधा एवं रुचि के अनुसार देख-परखकर मित्र चुनने की स्वतंत्रता होती है। यह एक ऐसा बंधन होता है जो लोगों के मन को जोड़ता है और इसी के आधार पर वे एक-दूसरे के लिये कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। मित्रों के बीच के आपसी संबंधों को मित्रता कहते हैं।
मित्रता का वर्गीकरण (Classification of Friendship)
अरस्तू ने मित्रता का वर्गीकरण तीन भागों में निम्नलिखित प्रकार से किया है-
1. उपयोगिता की मित्रता- इस प्रकार की मित्रता में मित्र वही होता है जिसकी मित्रता में अपना हित दिखाई देता है।
2. आनंद की मित्रता- इस प्रकार की मित्रता में मित्रों के बीच आपसी हित को लेकर सहमति होती है एवं जो अपनी आपसी खुशी मित्रों के बीच बाँटते हैं।
3. अच्छी मित्रता- इस प्रकार की मित्रता में दो मित्रों के बीच आपसी सम्मान का भाव होता है और वह एक-दूसरे के साथ का आनंद लेते हैं। इसमें मित्रता हित पूर्ति व आनंद के लिये नहीं होती है।
मित्रता का महत्त्व
मित्र व मित्रता का महत्त्व बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार से मित्रता के कुछ महत्त्व निम्नलिखित हैं-
- एक मित्र बालक के खेल-कूद व अन्य कार्यों को संपन्न करने में सहायक होता है।
- एक अच्छा मित्र बालक को कुसंगति से बचाने की कोशिश करता है। एक अच्छा मित्र ही सामाजिक आदर्शों एवं मूल्यों को सिखाता है। अच्छा मित्र बच्चों को पाश्विक प्रवृत्ति अपनाने से बचाता है।
- बच्चों के मानसिक विकास में भी मित्रता व मित्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
अधिकार के आधार पर परिवार निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-
1. मातृसत्तात्मक परिवार- जिस परिवार का नियंत्रण माँ अथवा पत्नी में केंद्रित होता है उस परिवार को मातृसत्तात्मक परिवार कहते हैं। ब्रिफाल्ट ने माता के स्थान को अधिक महत्त्वपूर्ण बतलाया है।
- मैकाइवर एवं पेज ने मातृसत्तात्मक परिवार की चार विशेषताओं का उल्लेख किया है-
- वंश का नाम माता से चलता है, पिता से नहीं।
- सामान्यत: बच्चों का लालन-पालन माता के घर होता है। विवाह के बाद पति को पत्नी के निवास स्थान पर रहना पड़ता है तथा पति का स्थान द्वितीयक होता है।
- पारिवारिक सत्ता स्त्री या पत्नी-पक्ष के किसी पुरुष के हाथ में होती है तथा संपत्ति का अधिकार माता द्वारा पुत्रियों को प्राप्त होता है।
- विशेष पद भी स्त्री की मृत्यु के बाद स्त्री के भाई की पुत्री को ही मिलेगा, पुत्र को नहीं। असम के खासी, मालाबार के नायर आदि लोगों में इस प्रकार के मातृसत्तात्मक परिवार पाए जाते हैं।
2. पितृसत्तात्मक परिवार- इसमें परिवार की सत्ता अथवा बागडोर पिता अथवा पुरुष के हाथ में होती है। पितृसत्तात्मक परिवारों में वंशनाम पिता से चलता है। सिंधु घाटी की सभ्यता तथा दलजा-फरात की सभ्यता में भी परिवार का पितृसत्तात्मक स्वरूप प्रचलित था।
- पितृसत्तात्मक परिवारों के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं-
- वंश का नाम पिता के नाम पर चलता है।
- विवाह के बाद स्त्री (पत्नी) पति के घर में आकर रहती है, बच्चों का पालन-पोषण भी पति के घर में ही होता है।
- पिता परिवार का सर्वोच्च कर्त्ता होता है।
- सम्मान एवं संपत्ति का हस्तांतरण पिता से उसके पुत्रों को होता है।
भाषा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। इंसान अपने विचारों तथा भावनाओं को दूसरे तक पहुँचाने के लिये भाषा का इस्तेमाल करता है। हम जितने ज़्यादा लोगों के संपर्क में आते हैं, उनसे विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, उतना ही हमारे अनुभवों में वृद्धि होती है एवं भाषायी अभिव्यक्ति में निखार आता है। भाषायी कौशल के चार आयाम हैं- सुनना, बोलना, पढ़ना एवं लिखना। इनमें बोलना मौखिक अभिव्यक्ति और लिखना लिखित अभिव्यक्ति के अंतर्गत है। लिखित अभिव्यक्ति अपनी प्रकृति में स्थायी होती है जबकि मौखिक अभिव्यक्ति अस्थायी।
भाषा अभिव्यक्ति के प्रकार :
मौखिक अभिव्यक्ति
मौखिक अभिव्यक्ति का अर्थ होता है वक्ता के मुख से निकली ध्वनि का श्रोता के कानों तक पहुँचना। अत: मौखिक अभिव्यक्ति के दो पक्ष अपेक्षित हैं- वक्ता और श्रोता। चिंतन करता हुआ व्यक्ति एक ही साथ वक्ता और श्रोता दोनों ही भूमिका में रहता है।
मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक ध्वनि के माध्यम से जो भी संवाद एक-दूसरे से करता है मौखिक संवाद के अंतर्गत आता है। मौखिक अभिव्यक्ति में हमेशा यह ज़रूरी नहीं होता कि वक्ता श्रोता आमने-सामने हो।
उदाहरण के तौर पर रेडियो या टीवी के प्रसारण में वक्ता श्रोता के समान नहीं होता है लेकिन वह अपनी अभिव्यक्ति को लाखों लोगों तक पहुँचा सकता है।
- मौखिक भाषा का प्रयोग बच्चों को भाषा के ध्वन्यात्मक रूप को समझने तथा प्रयोग करने में सहायता करता है।
- मौखिक भाषा के द्वारा हम अपने भावों की अभिव्यक्ति आसानी से कर सकते हैं। जैसे- प्रेम की अभिव्यक्ति, प्रसन्नता, दुख, पसंद-नापसंद आदि।
- जिस व्यक्ति के मौखिक अभिव्यक्ति में स्थिरता, स्पष्टता तथा आत्मविश्वास जैसे गुण होते हैं उनका व्यक्तित्व आकर्षक तथा संतुलित होता है।
- कक्षा में शिक्षक की अच्छी और आकर्षक मौखिक अभिव्यक्ति नीरस विषय को भी आकर्षक और भावपूर्ण बना देता है।
- अधिकतर ऐतिहासिक लोक कथाएँ, लोकगीत एवं लोकसाहित्य का हस्तांतरण मौखिक रूप में ही हुआ है।
मौखिक अभिव्यक्ति के प्रकार
- औपचारिक : शब्दावली, वाक्य विन्यास एवं विषय क्रम अव्यवस्थित से रहें। सामान्य बातचीत इसके उदाहरण हैं।
- अनौपचारिक : भाषण, संवेदना प्रकट करना, धन्यवाद ज्ञापन और विभिन्न साहित्यिक विधाओं में अभिव्यक्ति इसके उदाहरण हैं।
लिखित अभिव्यक्ति
मनुष्य द्वारा अपने भावों को व्यक्त करने के लिये भाषा को लिपिबद्ध करना लिखित अभिव्यक्ति के अंतर्गत आता है।
लिखित अभिव्यक्ति के प्रकार
- औपचारिक/निर्देशित और प्रयोजनमूलक रचना : कार्यालयी पत्र, प्रपत्र, परिपत्र, टिप्पणी, प्रतिवेदन (रिपोर्ट), पल्लवन, संक्षेपन, अनुच्छेद, जीवनी, निबंध इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
- औपचारिक/साहित्यिक या सौंदर्यमूलक रचना : कहानी, कविता, निबंध, नाटक, एकांकी, डायरी, संस्मरण, आत्मकथा, संबंधियों को लिखे पत्र जैसी स्वतंत्र मौलिक रचनाएँ इसके उदाहरण हैं।
विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा एक जटिल प्रक्रिया होती है। मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों के द्वारा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा के संदर्भ में दिये गए कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव निम्नलिखित हैं-
- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को अध्ययन में शामिल करने से पहले शिक्षक के द्वारा बच्चों का आकलन एवं मूल्यांकन किया जाना चाहिये। आकलन शिक्षक को उन शिक्षण-अधिगम पहलुओं को पहचानने में मदद करते हैं जिन पर ध्यान देने या सुधार की आवश्यकता होती है।
- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को एकीकृत और पृथक कक्षाओं में पढ़ाया भी जा सकता है। शिक्षा के संदर्भ में एकीकरण का अर्थ है विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को नियमित कक्षा में शिक्षा प्रदान करना।
- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिये समावेशी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये जिसमें सीखने की प्रक्रिया में सभी विद्यार्थी समान भागीदार होते हैं।
- शिक्षण प्रक्रिया से जुड़े घटकों को विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की ज़रूरतों से अनुकूलित होना चाहिये। यहाँ पर अनुकूलन एक विद्यार्थी की ज़रूरतों को समायोजित करने के लिये आकलन, सामग्री, पाठ्यक्रम या कक्षा के वातावरण को समायोजित करने की आवश्यकता को संदर्भित करता है ताकि वह शिक्षण-अधिगम लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। इसके लिये निम्नलिखित प्रयास किये जा सकते हैं-
- ब्रेल लिपि, ऑडियो टेप एवं इलेक्ट्रॉनिक पाठ का प्रयोग, कक्षा की गतिविधियों में सहायता के लिये सहकर्मी/सहपाठी का होना, नि:शक्त बच्चों की बैठने और चलने-फिरने योग्य अवसंरचना का विकास आदि।
- नि:शक्त विद्यार्थियों के ज्ञान और समझ को प्रदर्शित करने के लिये लिखित कार्य के विकल्प के रूप में मौखिक प्रस्तुति, ड्राइंग या पेंटिंग और अन्य कलात्मक प्रस्तुतियों जैसे माध्यम को अपनाना चाहिये।
- असाइनमेंट या टेस्ट को पूरा करने के लिये ऐसे बच्चों को अतिरिक्त समय प्रदान करना चाहिये।
- वाणी दोष वाले विद्यार्थियों की क्षमता को बढ़ाने वाले कंप्यूटर सॉफ्टवेयर का प्रयोग।
- सीखने की विभिन्न शैलियों के द्वारा विद्यार्थियों को अनुभव प्रदान करने पर बल देना। उदाहरण के लिये पौधे कैसे बढ़ते हैं को कक्षा की पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से बताते हुए व्यावहारिक अनुभव के द्वारा भी बच्चों को समझाना।
- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिये विशेष शिक्षकों को नियुक्त करना या उनका मार्गदर्शन उपलब्ध करवाना।
- ऐसे बच्चों के सीखने की ज़रूरतों को समायोजित करने के लिये सीखने के लक्ष्यों, शिक्षण प्रक्रियाओं, असाइनमेंट और आकलन प्रक्रिया में अपेक्षित बदलाव या सुधार किये जाने चाहिये।
- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के संदर्भ में उनकी सीखने की गति एवं मानसिक योग्यताओं के संदर्भ में पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाना चाहिये।
- माता-पिता और शिक्षकों में समुचित संचार कौशल विकसित करने के लिये उचित मार्गदर्शन प्रदान किया जाना चाहिये।
- मनुष्य में अधिगम की प्रक्रिया जन्मोपरांत ही प्रारंभ हो जाती है जिसमें वह निरंतर अपने जीवन में नई बातें, नए कार्य एवं नए विषय सीखता रहता है। मनुष्य के अधिगम की गति सदैव एकसमान नहीं होती है अर्थात् वह कभी तेज़ गति से एवं कभी धीमी गति से सीखता है।
- मनुष्य के सीखने की गति को यदि सरल ग्राफ पर अंकित किया जाए तो एक वक्र रेखा का निर्माण होता है, इसी को अधिगम वक्र या सीखने का वक्र कहा जाता है। अधिगम वक्र किसी व्यक्ति के अधिगम में होने वाली उन्नति या अवनति को व्यक्त करता है।
अध्ययन में सुविधा की दृष्टि से अधिगम वक्र को 5 चरणों में बाँटा जाता है जिनका विवरण निम्नलिखित है-
- धीमी प्रगति की अवधि : सामान्यत: जब कोई व्यक्ति किसी नई विषयवस्तु को प्रारंभिक बिंदु से सीखना शुरू करना है, तो उसकी शुरुआती प्रगति धीमी होगी। उदाहरण के लिये, चलना सीखने के संदर्भ में शिशु की प्रारंभिक प्रगति काफी नगण्य होती है।
- तीव्र प्रगति की अवधि : इस चरण में अधिगमकर्त्ता का निष्पादन (Output) तेज़ी से बढ़ता है। जैसे टाइपिंग में एक बार अधिगमकर्त्ता अपनी उंगलियों की गति में समन्वय विकसित कर लेता है तो वह तेज़ी से प्रगति दिखाता है।
- कोई स्पष्ट प्रगति नहीं होने की अवधि : अधिगम वक्र में एक ऐसी अवधि भी आती है जहाँ कोई स्पष्ट प्रगति नहीं होती है। इसे अधिगम पठार (Learning Plateau) के नाम से भी जाना जाता है। उदाहरण के लिये टाइपिंग में, एक व्यक्ति कुछ समय के लिये लगातार प्रगति करने के बाद उस बिंदु पर पहुँच सकता है जहाँ शायद हफ्तों तक कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं होती है।
- अचानक वृद्धि की अवधि : सामान्यत: एक पठार के अंत में अधिगम गति या उपलब्धि में तेज़ी आती है। पठार की अवधि में अधिगमकर्त्ता बेहतर तकनीक हासिल करता है, जो बाद में उसे तेज़ी से प्रगति करने में मदद करता है।
- समतलन या समतलीकरण : सारी अधिगम प्रक्रिया या शिक्षा अंतत: इस हद तक मंद हो जाती है कि यह बिना किसी सुधार के दौर में पहुँच जाती है। कोई भी व्यक्ति किसी भी स्थिति में अनिश्चितकाल तक सुधार जारी नहीं रख सकता। सीखने की अवस्था अंतत: एक सीमा तक पहुँच जाती है जिसके आगे कोई सुधार संभव नहीं है। यह सीमा शारीरिक सीमा कहलाती है।
अधिगम वक्र की विशेषताएँ (Characteristics of the Learning Curve)
- अधिगम वक्र को मुख्यत: तीन अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है प्रारंभिक, मध्य एवं अंतिम। अधिगम की गति सदैव समान नहीं होती।
- प्रारंभिक अवस्था में अधिगम की गति अन्य अवस्थाओं की तुलना में ज़्यादा तीव्र होती है, किंतु यह सार्वभौमिक विशेषता नहीं है।
- मध्य अवस्था में व्यक्ति अभ्यास के माध्यम से अधिगम में प्रगति करता है, किंतु प्रगति का स्वरूप स्थायी नहीं होता।
- अधिगम की अंतिम अवस्था में अधिगम की गति मंद हो जाती है एवं एक ऐसी अवस्था आती है जिसमें व्यक्ति सीखने की सीमा पर पहुँच जाता है।
- अधिगम की गति को कई कारक प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिये अभिरुचि, प्रेरणा, जिज्ञासा, उत्साह, कार्य की सरलता या जटिलता।
बाल विकास के सिद्धातों के शैक्षिक महत्त्व को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है-
इससे ज्ञात होता है कि विकास की गति और मात्रा सभी बालकों में एकसमान नहीं होती है। अत: व्यक्तिगत अंतरों को ध्यान में रखकर हमें सभी बालकों से एक जैसे विकास की उम्मीद नहीं करनी चाहिये।
- बालकों के विकास की भविष्य में होने वाली प्रगति का अनुमान लगा लेने के कारण यह लाभ हो सकता है कि बालकों से आवश्यकता से अधिक या कम आशाएँ न लगा बैठें।
- बाल विकास के दिशा और परिमाण संबंधी सिद्धांत हमें यह बताते हैं कि एक ही जाति के सदस्यों में विकास से संबंधित कुछ समानता पाई जाती है। जिस दिशा में, जिस रूप में विकास होना चाहिये, उस तरह बालक का विकास उस विशेष अवस्था या आयु में हो रहा है या नहीं, इस बात का हम ध्यान रखने की चेष्टा करते हैं। इसी आधार पर हम बालकों में सामान्यता या असामान्यता की मात्रा का अनुमान लगाकर उनकी उचित वृद्धि और विकास में सहयोग प्रदान कर सकते हैं।
- विकास की सभी दिशाएँ अर्थात् विभिन्न पहलू (मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक और सामाजिक विकास) परस्पर एक-दूसरे से संबंधित हैं। इस तथ्य की जानकारी हमें बालक के सर्वांगीण विकास पर ध्यान देने के लिये प्रेरित करती है।
- बाल विकास के सिद्धांत न केवल माता-पिता तथा अध्यापकों को विशेष रूप से तैयार होने के लिये आधार देते हैं, बल्कि इनके बालक भी आने वाली समस्याओं तथा परिवर्तनों के लिये अपने आप को तैयार करने में समर्थ हो जाते हैं।
- वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों मिलकर बालक की वृद्धि और विकास के लिये उत्तरदायी हैं, कोई एक नहीं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस बात का ज्ञान हमें वातावरण में आवश्यक सुधार लाकर बालकों का अधिक-से-अधिक कल्याण करने के लिये प्रेरित करता है।
जर्मन मनोवैज्ञानिकों द्वारा नेचर परसेप्शन (Nature of Perception) का अध्ययन करते हुए सीखने का गेस्टाल्ट सिद्धांत (Gestalt Theory) प्रस्तुत किया गया जिसे ‘अंतर्दृष्टि द्वारा सीखने’ का नाम दिया गया। मैक्स वर्थाइमर (1880-1943) को गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का प्रतिपादक माना जाता है। वर्थाइमर से जुड़े जर्मन मनोवैज्ञानिक वोल्फगैंग कोहलर और कर्ट कोफ्का महत्त्वपूर्ण थे।
- इस सिद्धांत के अनुसार किसी व्यक्ति की अनुक्रिया संपूर्ण परिस्थिति के प्रत्यक्षीकरण के आलोक में की जाती है एवं व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि से सीखता है। इसीलिये सीखने के इस सिद्धांत को गेस्टाल्ट सिद्धांत या अंतर्दृष्टि का सिद्धांत कहा जाता है।
- 1925 में जर्मन के मनोवैज्ञानिक वोल्फगैंग कोहलर द्वारा सीखने का अंतर्दृष्टि सिद्धांत प्रस्तुत किया गया। कोहलर ने सूझ या अंतर्दृष्टि सिद्धांत के तहत कई जानवरों जैसे- वनमानुष (चिंपैंजी), बंदर, मुर्गी तथा कुत्तों पर कई प्रयोग किये।
- अंतर्दृष्टि सिद्धांत के अनुसार जब भी किसी जीव के समक्ष कोई नई परिस्थिति उत्पन्न होती है तो सबसे पहले वह उस परिस्थिति का स्वतंत्र रूप से अवलोकन करते हुए उसके स्वरूप को समझता है।
- जब जीव अपनी नवीन परिस्थितियों के स्वरूप और विषय के बारे में अपनी समझ को विकसित कर लेता है तो अपने किसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु वह लक्ष्य को सामने रखकर अनुक्रिया करता है। इस प्रकार सीखने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है जो तब तक चलती रहती है जब तक जीव अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेता है। जीवों के द्वारा इस प्रकार से सीखने की विधि को ही सूझ द्वारा या अंतर्दृष्टि द्वारा सीखना कहा जाता है।
सृजनात्मक शब्द अंग्रेज़ी भाषा के क्रिएटिव (Creative) शब्द से बना है। क्रिएटिव शब्द के समानांतर में कई शब्दों का प्रयोग किया जाता हैं, जैसे- सृजनात्मक, सृजनशीलता, सृजन, उत्पन्न करना, सृजित करना आदि।
- सृजन को एक ऐसी मानसिक शक्ति के रूप में वर्णन किया जाता है जिसमें उपलब्ध साधनों से नवीन या मौलिक वस्तु, विचार या अवधारणा को जन्म दिया जाता है। सृजनात्मकता शब्द किसी व्यक्ति में उसके द्वारा कुछ नवीन वस्तु, विचार या अवधारणा को प्रस्तुत करने की योग्यता को प्रदर्शित करता है।
- प्राचीन काल से सृजनात्मकता को ईश्वर प्रदत्त उपहार माना जाता था जो केवल अत्यधिक प्रतिभाशाली लोगों और प्रतिभाओं में ही पाई जाती है। लंबे समय तक सृजनात्मकता को कलात्मक व्यक्तियों से जुड़ा माना जाता था जिन्हें विभिन्न क्षेत्रों में चित्रकारों, मूर्तियों या लेखकों के रूप में प्रतिष्ठित किया गया हो।
- हेल्वेटियस प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने सृजनात्मकता को ईश्वरीय उपहार के रूप में नहीं, बल्कि मानवीय गुण के रूप में पहचाना। अब यह स्वीकार किया जाता है कि सृजनात्मकता मानव गतिविधि के हर क्षेत्र में मौजूद है।
- मनोवैज्ञानिकों के द्वारा प्रस्तुत सृजनात्मकता की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित है-
- क्रो एवं क्रो के अनुसार, ‘‘सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को व्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है।’’
- जेम्स ड्रेवर के अनुसार, ‘‘सृजनात्मकता मुख्यत: नवीन रचना या उत्पादन में होती है।’’
सृजनात्मकता की प्रक्रियाएँ (Process of Creativity)
सृजनात्मक चिंतन की प्रक्रिया में कुछ विशिष्ट और निश्चित प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं। इन प्रक्रियाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-
- आयोजन (Preparation): प्रथम चरण ‘आयोजन’ में चेतन अवस्था में व्यक्ति समस्या-समाधान पर कार्य करना प्रारंभ करता है। इस चरण में समस्या को परिभाषित या विश्लेषित करना, संबंधित तथ्यों और सामग्रियों को एकत्र करना और जाँच करना, कार्य योजना तैयार करना और योजना पर कार्य करना जैसी प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं।
- उद्भवन (Incubation): दूसरे चरण ‘उद्भवन’ में जानबूझ कर या अनैच्छिक रूप से समस्या छोड़ने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इस चरण में हम समस्या समाधान वाली गतिविधियों एवं चिंतन को छोड़ते हुए अन्य गतिविधियों में संलग्न हो जाते हैं। हालाँकि इस अवस्था में व्यक्ति अचेतन रूप से समस्या का समाधान सोचना प्रारंभ कर देता है। उद्भवन चरण में कोई भी नई सूचना, नया ज्ञान या अनुभव स्मृति में भंडारित नहीं होता है।
- प्रबोधन (Illumination): तीसरे चरण ‘प्रबोधन’ की अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति को अचानक समस्या का समाधान मिल जाता है। अचेतन अवस्था में व्यक्ति के द्वारा समस्या समाधान से जुड़ी सारी सूचनाओं को संगठित करने के क्रम में समस्या-समाधान की प्राप्ति होती है।
- सत्यापन या पुनरीक्षण (Verification or Revision): अंतिम चरण ‘सत्यापन या पुनरीक्षण’ का होता है। इसमें समस्या समाधान के संदर्भ में प्रबोधन के निष्कर्ष या समाधान की प्रासंगिकता की जाँच की जाती है। यदि समस्या हल नहीं होती है तो पुन: नए सिरे से प्रयास करते हुए नए समाधान की खोज की जाती है।
इवान पावलॉव (1849-1936) एक महान रूसी मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने सीखने के क्लासिकल अनुबंधन सिद्धांत का प्रतिपादन किया। पाचन प्रक्रिया पर उनके शोध के लिये 1904 में उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था।
उन्होने कुत्तों में आमाशय या जठर रस (Gastric Juice) के स्राव की प्रक्रिया का अध्ययन किया तथा उनके निष्कर्षों ने सीखने के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया।
पावलॉव का प्रयोग
- उन्होंने अपने प्रयोग में एक कुत्ते को स्वचालित उपकरणों से सुसज्जित प्रायोगिक मेज़ पर बांधते हुए उसे भूखा रखा। कुत्ते को सहज रखते हुए उसका ध्यान हटाने वाले सभी विकर्षणों को बाहर रखने का प्रबंध किया गया। अपने प्रयोग में कुत्ते को स्वचालित उपकरणों के माध्यम से भोजन देने के दौरान एक घंटी भी बजाई जाती थी।
- भोजन को देखते ही कुत्ते की लार स्रावित होना स्वाभाविक था। एक दिन घंटी बजाई गई लेकिन खाना नहीं दिया गया। कुत्ते ने तब भी लार का स्राव किया। कुछ दिनों तक बिना भोजन दिये केवल घंटी बजाई गई, फिर भी यह देखा गया कि भोजन नहीं देने पर भी कुत्ते की स्रावित लार की मात्रा समान थी।
- कुत्ते की प्रतिक्रिया (लार का स्राव) को सामने लाने के लिये वास्तविक उद्दीपन भोजन था, लेकिन इसे इस तरह से अनुकूलित किया गया था कि एक अस्वाभाविक उद्दीपन, जिसका आमतौर पर लार के स्राव से कोई लेना-देना नहीं था, ने एक स्वाभाविक उद्दीपन की तरह कार्य करना प्रारंभ कर दिया था।
- इस प्रयोग में कुत्तें की लार निकलने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का संबंध अस्वाभाविक उद्दीपन (घंटी की आवाज़) में स्थापित हो गया था। इस प्रक्रिया को ही सीखने का क्लासिकल अनुबंधन सिद्धांत के रूप में वर्णित किया जाता है।
अनुबंधन के सिद्धांत
अपने सिद्धांत की व्याख्या के लिये पावलॉव ने अनुबंधन के कुछ सिद्धांत दिये हैं जो कि निम्नलिखित हैं-
- पुनर्बलन का सिद्धांत (Principle of Reinforcement) : यहाँ पुनर्बलन से आशय अवास्तविक उद्दीपन का वास्तविक उद्दीपन के अनुगामी होने से है; जैसे भोजन के लिये घंटी। पावलॉव के प्रयोग में भोजन एक पुनर्बलन है। भोजन के साथ घंटी को संबद्ध किये बिना कोई अनुबंधन विकसित नहीं की जा सकता था, यही पुनर्बलन है।
- अनुक्रम और समय अंतराल का सिद्धांत: अस्वाभाविक उद्दीपन और स्वाभाविक उद्दीपन की क्रिया के बीच एक इष्टतम समय होता है एवं इसमें यदि कोई भिन्नता (इष्टतम समय में वृद्धि या कमी) होती है तो कोई संबंध नहीं बन सकता है और कोई अनुबंधन नहीं होगा।
- उद्दीपन सामान्यीकरण का सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार, अगर हम एक चीज़, यानी घंटी के लिये अनुबंधित हैं, तो हम कमोबेश सभी प्रकार की घंटियों के लिये अनुबंधित होंगे। अनुबंधन द्वारा सीखने के शुरुआती चरणों में, जानवर ने सटीक अनुबंधन उद्दीपन के साथ संबंधित कई उद्दीपनों पर अपनी प्रतिकिया दी, किंतु उनकी प्रतिक्रिया अनुबंध उद्दीपन के लिये सबसे तीव्र थी और मूल उद्दीपन के समान अन्य उद्दीपनों के लिये क्रमश: घटती चली गई।
- विभेदन का सिद्धांत: जब दो उद्दीपन पर्याप्त रूप से अलग-अलग होते हैं, तो एक जीवित प्राणी को उनमें से किसी एक के प्रति प्रतिक्रिया करने के लिये अनुबंधित किया जा सकता है।
- सहज पुनर्प्राप्ति का सिद्धांत: यह सिद्धांत यह बताता है कि समय- अंतराल के कारण अनुबंधन का पूर्ण विलोपन नहीं होता है, लेकिन अनुबंधित प्रतिक्रिया में अवरोध आ जाता है। उदाहरण के लिये कुत्ते को प्रयोग के काफी समय के बाद पुन: उसी तरह के प्रयोग से गुज़ारा जाएगा तो कुत्ता पुन: अनुबंधित उद्दीपन पर प्रतिक्रिया देगा।
- निषेध का सिद्धांत: निषेध को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें एक उद्दीपन के द्वारा घटित होने वाली प्रक्रिया रुक जाती है। इसके दो प्रकार होते हैं- बाह्य निषेध (कुत्ते द्वारा अजनबी की उपस्थिति में अनुबंधित उद्दीपन के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करना) एवं आंतरिक निषेध (सहज पुनर्प्राप्ति अनुबंधन को कभी समाप्त नहीं होने देता)।
- अनुबंधन के उच्च क्रम का सिद्धांत: जब किसी पुराने उद्दीपन के आधार पर किसी नए उद्दीपन के लिये अनुबंधन किया जाता है तो इसे उच्च क्रम का अनुबंधन कहा जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा एक उद्दीपन को दूसरे उद्दीपन से जोड़कर अनुबंधन किया जा सकता है।
- द्वितीयक सुदृढ़ीकरण का सिद्धांत: अनुबंधित प्रतिक्रिया (CR) प्राथमिक उद्दीपन के अलावा कुछ उद्दीपनों के लिये स्थापित होती है, उदाहरण के लिये, भोजन को देखकर लार निकलना।
- उम्र और अनुबंधन का सिद्धांत: अनुबंधन की प्रक्रिया हर उम्र में महत्त्वपूर्ण होती है, विशेष रूप से बचपन में।अनुबंधन अनुक्रिया सिद्धांत शिक्षण-अधिगम की अनुदेशात्मक प्रविधियों के उपयोग पर अत्यधिक केंद्रित होता है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में श्रव्य-दृश्य साधनों के उपयोग में अनुबंधन सिद्धांत शामिल होता है।
अमेरिकी मनोवैज्ञानिक ई. एल. थॉर्नडाइक (1874-1949) संबंधवाद या परीक्षण और त्रुटि के सिद्धांत के मुख्य प्रतिपादक थे। थॉर्नडाइक द्वारा ‘एनीमल इंटेलिजेंस’ नामक शोध में उद्दीपक अनुक्रिया सिद्धांत के अंतर्गत पशुओं के व्यवहार का व्यापक रूप से अध्ययन किया गया।
- थॉर्नडाइक ने अपने शोध में यह निष्कर्ष निकाला कि जब कभी किसी भी व्यक्ति या पशु के समक्ष नई परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो वह नवीन परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने के लिये विभिन्न प्रकार से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।
- प्रारंभ में जब व्यक्ति या पशु अपनी नवीन परिस्थिति के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करता है तो उसमें त्रुटियों की मात्रा एवं लिया गया समय काफी ज़्यादा होता है। हालाँकि उसे सफलता मिलने एवं बार-बार यही प्रक्रिया दुहराने से त्रुटियों की मात्रा एवं लिये जाने वाला समय लगातार कम होता जाता है।
- थॉर्नडाइक ने इसे ‘चुनकर’ और ‘जोड़कर’ सीखना कहा है। इसे ‘परीक्षण और त्रुटि’ सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि सीखने की प्रक्रिया यादृच्छिक दोहराव के माध्यम से होती है।
थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित नियम
अपने प्रयोगों के आधार पर थॉर्नडाइक ने सीखने के निम्नलिखित तीन नियम प्रतिपादित किये-
- तत्परता का सिद्धांत- इस सिद्धांत को एक गौण नियम मानते हुए थॉर्नडाइक ने यह निष्कर्ष दिया कि जब कोई व्यक्ति किसी कार्य को करना चाहता है एवं ऐसा करने पर उसे संतुष्टि होगी, किंतु ऐसा नहीं होने पर या उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करने से उसे खीझ उत्पन्न होगी। यह नियम सीखने की प्रक्रिया में भाग लेने के लिये सीखने वाले की संग्लग्नता को संदर्भित करता है।
- प्रभाव का सिद्धांत- इस नियम को अधिगम का सबसे महत्त्वपूर्ण नियम मानते हुए थॉर्नडाइक ने यह निष्कर्ष दिया कि सामान्य स्थिति में प्राप्त विभिन्न प्रतिक्रियाएँ किसी व्यक्ति या पशु की संतुष्टि या असंतुष्टि से निकट संबंधित होती हैं। जिन कार्यों या अनुक्रियाओं के प्रभाव से संतुष्टि का स्तर ज़्यादा होगा उन प्रक्रियाओं को दोहराया जाएगा एवं जिन कार्यों या अनुक्रियाओं के प्रभाव से असंतुष्टि या खीझ होगी उन्हें भुला दिया जाएगा। किसी कार्य या अनुक्रिया के प्रभाव से संतुष्टि या बेचैनी जितनी अधिक होती है, उसका व्यक्ति से उतना ही मज़बूत या कमज़ोर संबंध होता है।
- अभ्यास का नियम- इस नियम के अनुसार, जितनी अधिक उद्दीपन-प्रेरित प्रतिक्रिया दुहराई जाती है, उतनी ही अधिक देर तक इसे बरकरार रखा जा सकता है। अन्य चीज़ें समान होने पर अभ्यास, स्थिति और प्रतिक्रिया के बीच के बंधन को मज़बूत करता है। इसके विपरीत, अभ्यास के अभाव में बंधन कमज़ोर हो जाता है। इसे दो भागों में बाँटा जा सकता है- उपयोग का नियम (law of use) और अनुपयोग का नियम (Law of Disuse)। किसी चीज़ को निरंतर अभ्यास के माध्यम से याद रखना उपयोग का नियम (Law of Use) और बिना अभ्यास के किसी चीज़ को भूल जाना अनुपयोग का नियम (Law of Disuse) कहलाता है।